विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस : बदल गया है प्रेस का वास्तविक स्वरूप और स्वभाव …
[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]विनीत दुबे[/mkd_highlight]
आज 3 मई को पूरे विश्व भर में हर साल की तरह प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है। हालांकि इस स्वतंत्रता दिवस पर कोरोना वायरस के चलते लाक डाउन की बेड़ियां डली हुई हैं अन्यथा देश भर में प्रेस की स्वतंत्रता के जलसे चल रहे होते और देश के रहनुमा प्रेस के सम्मान में कसीदे गढ़ रहे होते। रहनुमाओं के श्रीमुख से तारीफों के पुल बंधे हुए देखकर हम भी अपनी छाती कम से कम 54 या 55 इंच तक चौड़ी कर रहे होते।
असल में यह नौटंकी अनवरत सालों दर सालों चली आ रही है। हर साल नए किरदार नई पैरोडी नई तालियां परंतु स्थितियों में बदलाव नजर नहीं आता है।
यदि सोशल मीडिया प्लेटफार्म को छोड़ दिया जाए तो मेरी नजर में प्रेस की स्वतंत्रता के दायरे अब कम हो चले हैं। बीते कुछ दशकों में पत्रकारों का पत्रकारिता से लगभग नाता टूटा हुआ सा प्रतीत होता है। पत्रकारों ने अपने अपने खेमे बना लिए हैं एक दूसरे को नीचा दिखाने की कला को विकसित कर लिया है। हम अपनी कला को निखारने के स्थान पर दूसरे को नीचा दिखाने की कला में निपुण होते जा रहे हैं। पत्रकारिता ही एक मात्र ऐसा पेशा है जिसके बारे में हर कोई अपनी टिप्पणी करने लगाता है और हम भी सुनकर कानों में रूई डाल लेते हैं क्योंकि जब हमारे ही सिक्के में खोट है तो परखने वाले को क्या दोष दिया जाए।
कुछ संदर्भों को देखा जाए तो पत्रकारिता और चाटुकारिता लगभग समानार्थी शब्द प्रतीत होने लगे हैं। देश के नामी गिरामी न्यूज चैनलों के महान और वरिष्ठ कहे जाने वाले मीडियाकर्मी कई बार पार्टी विशेष के मुख्य कार्यकर्ता लगने लगते हैं। तकलीफ तो तब होती है जब अनेक सोशल मीडिया प्लेफार्म पर लोग लिखते हैं कि न्यूज देखना छोड़ दो अखबार पढ़ा छोड़ दो तो मन विचलित हो जाता है।
असल मेें प्रेस आज अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है और उसे बचाने के प्रयास मुझे तो नजर नहीं आते। आने वाले वाले समय में प्रेस की छवि और भी बदतर होने आशंका बनी हुई है। आजादी के दौर में अखबारों मेें लिखे हुए लेखों की प्रतिक्रिया में आंदोलन हो जाया करते थे सरकार अखबारों बंद करने के लिए उतारू रहती थी। तब प्रेस परतंत्र थी और उसे स्वतंत्र करने के लिए आंदोलन हुए और प्रेस स्वतंत्र हुए तो उनकी विश्वसनीयता खत्म होती जा रही है।
वास्तविकता में प्रेस को स्वतंत्रता से अधिक विश्वसनीयता की आवश्यकता है। प्रेस को अधिक जिम्मेदार बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए पत्रकारों को अपनी जिम्मेदारी समझना होगा, अपने आप को और अपनी पत्रकारिता को अलग अलग करना होगा। व्यक्तिगत तौर पर आप भले ही किसी दल या व्यक्ति विशेष के प्रशंसक हों लेकिन अपनी पत्रकारिता में जबतक निश्पक्षता नहीं लाएंगे तब तक पत्रकारिता की विश्वसनीयता मजबूत नहीं होगी।
पत्रकारिता एक मिशन है एक आंदोलन है जो अनवरत चलता है। आंदोलन जो सत्ता के खिलाफ और व्यवस्थाओं के खिलाफ है। यदि इस आंदोलन को व्यक्तिगत रूप दे दिया जाएगा तो आपकी विश्वसनीयता पर सवाल उठ ही जाएंगे। असल में देखा जाए तो प्रेस का जन्म ही हुआ है सत्ता के खिलाफ लिखने के लिए यही प्रेस का मूल स्वभाव और स्वरूप है। आज हमने अपने निजी स्वार्थों के लिए प्रेस के मूल स्वभाव और स्वरूप को ही बदल दिया है। आज सत्ताधीश की वाह वाही खूब प्रकाशित होती है और व्यवस्थाओं के खिलाफ व्यक्तिगत आलोचनाएं। हमने पत्रकारिता का मूल स्वरूप बदल कर व्यवसायिक कर दिया है और जब किसी वस्तु का मूल स्वरूप बदलने लगता है तो लोगों में उसके प्रति अरूचि पैदा होने लगती है।
जब एक मनोहारी नृत्य करने वाली स्त्री को हर कोई एक टक निहारता रहता है लेकिन वह नृत्यांगना किन्नर हो तो उस मनोहारी नृत्य से अरूचि होने लगती है। ठीक ऐसी ही स्थिति आज प्रेस जगत की हो गई है व्यक्ति उसे मनोहारी नृत्यांगना समझता है लेकिन हकीकत इसके उलट होती है।
अभी भी समय है इन स्थितियों को सुधारा जा सकता है इसका एक मात्र हल है मीडियाकर्मियों को प्रशिक्षित और शिक्षित करना। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि अधिकांश मीडियाकर्मियों प्रशिक्षण की आवश्यकता है और मीडिया संगठनों को देश भर में गांव गांव तक फैले मीडियाकर्मियों को प्रशिक्षित करना चाहिए।
जब तक मीडियाकर्मी प्रशिक्षित नहीं होगे तब तक वे अपने कर्तव्यों का निर्वाहन नहीं कर पाएंगे। मीडियाकर्मियों को प्रेस के वास्तविक स्वरूप और स्वभाव से रूबरू कराया जाए जब तक पत्रकारिता आंदोलन न बन जाए तक तक प्रेस की स्वतंत्रता की बात करना बेमानी ही होगा।