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विश्व परिवार दिवस विशेष : वसुधैव कुटुम्बकम-कोरोना काल और आत्मनिर्भरता

 

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]होमेन्द्र देशमुख[/mkd_highlight]

 

 

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

पंचतंत्र 5/38 और महाउपनिषद ,अध्याय चार के इस इकहत्तरवें श्लोक का आशय है –

“यह मेरा बन्धु है वह मेरा बन्धु नही है ,ऐसा विचार या भेदभाव छोटी चेतना वाले व्यक्ति ही करते हैं । उदार चरित्र का व्यक्ति सम्पूर्ण धरती यानी विश्व को एक परिवार ही मानता है ।
“यह निज, यह पर(दूसरा), ऐसा सोचना,एक संकुचित विचार है। उदाराशयों के लिए या अनेक आशय में  अखिल विश्व ,एक बड़ा परिवार है ।”

व्यक्ति से व्यक्ति मिलकर परिवार बनाता है ,परिवार से समाज और समाज से देश बनता है । सभी देश मिलकर विश्व कहलाता है जहां सभी मनुष्यों का निवास है ,और यही एक बड़ा परिवार है ।भारत की संस्कृति तो यही कहती है ।

“वसुधैव कुटुम्बकम”न केवल ऋषि मुनियों की कल्पना थी बल्कि आधुनिक भारत के संसद भवन स्थित केंद्रीय कक्ष के मुख्य द्वार पर अंकित इस श्लोक के असल मायने को हमारी सरकार ने कई मौकों पर साबित भी किया है ।

कोरोना काल के इस भीषण त्रासदी ने विश्व के कई देशों को आपस मे मिल कर इस समस्या से मिलकर मुकाबला करना सिखा दिया और इसका श्रेय भारत के प्रधानमंत्री के अनुसार भारत की इसी वसुधैव कुटुम्बकम की महान सोच को जाता है । हर राष्ट्र और समाज मे विभिन्न जाति वर्ग में व्यक्तिगत छोटे बड़े परिवार हैं । पर भारत ने संकट काल मे एक बड़े परिवार के रूप में परस्पर सहयोग के साथ विश्व बंधुत्व की भावना को अपनाया है ।

भारत के विदेश नीति में भी यही वैचारिक सोच दिखता है । श्रीलंका को भेजे गए शांति सेना । हाल ही में यमन से बमबारी के बीच सरकार का ऑपरेशन राहत । ऐसे कई उदाहरण और भी हैं । इस कोरोना काल मे भारत ने अपने विश्व बंधुत्व की भावना को और भी मजबूत किया है ।

भारत को अब एक और नया नारा मिला है “आत्म-निर्भरता”..! पर आत्म निर्भरता और स्वदेशी आंदोलन को अगर सही ढंग से समय रहते परिभाषित नही किया तो वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को आघात लग सकता है ।  आत्मनिर्भरता , स्वावलंबी तथा स्वदेशी अभियान में फर्क है , तीनो का मतलब एक नही है ।

भारत और भारत के गांव सदियों से स्वावलंबी रहे हैं । उनका अपना किसान , अपना बुनकर अपना लुहार, अपना सुनार अपना बढ़ई , नाई, धोबी और अपना चरवाहा होता था । सारे काम खुद के अपने गांव में ही हो जाते थे । पड़ोस के गांव को उसने देखा नही । उसे कभी दूसरे गांव की मदद की जरूरत ही नही पड़ी तो कभी परस्पर मित्रता ,बंधुत्व की भावना जागी नही । छोटे छोटे रियासतें और राज्य इसी लिए स्वतंत्र अस्तीत्व में होते थे।

गांव लुटता रहा पड़ोसी सोते रहे , क्योंकि स्वावलंबी समाज को दूसरों के फटे में टांग अड़ाने से क्या मतलब ..! और प्राचीन भारत के राज्य ,गांव ,पड़ोसी आक्रमणकरियों से लुटते रहे । भारत इसी तटस्थता के कारण गुलाम हुआ । नहीं तो 35 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश को एक छोटा सा उपनिवेश ने गुलाम कैसे बना लिया । और हम गुलाम बन बैठे । सालें तक सब कुछ सहते रहे । स्वावलंबी होने के कारण हमें दूसरों की फ़िकर भी नही रही ।

दुनिया विकसित हो चुकी है और हम स्वदेशी की बात कर रहे हैं । अपना अपना ही होता है, स्वदेश के मूल्य और स्वदेसी की भावना जरूरी है लेकिन कहां तक यह भी सोचना होगा । जो हमारे पास है वह गौरव का विषय है पर टेक्नालाजी की तरफ, तकनीक की तरफ । और अगर हम टेक्नोलॉजी को हटा कर स्वदेशी की बात करेंगे तो वह पिछले जमाने की बातें होंगी । दो पांच हजार साल पहले तकली और चरखा ईजाद हुए होंगे। तब वे सबसे बड़े यंत्र थे, अब वे सबसे बड़े यंत्र नहीं हैं। और एक आदमी अगर अपने लिए साल भर का कपड़ा भी बनाना चाहे तो कम से कम दिन में तीन-चार घंटे चरखा कातना पड़ेगा। तब कहीं अपने लायक पूरा कपड़ा एक आदमी तैयार कर सकता है।

एक आदमी की जिंदगी का रोज चार घंटे का हिस्सा उसके कपड़े पर खर्च करवा देना निहायत अन्याय है। क्योंकि हमें शायद पता नहीं, अगर एक आदमी को साठ साल जीना है तो रोज आठ घंटे आदमी सो जाता है उस हिसाब से बीस साल तो नींद में चले जाते हैं। खाने में, कमाने में और भी बीस साल चले जाते हैं। बीस साल बचते हैं आदमी के पास मुश्किल से। उसमें कुछ बचपन का हिस्सा निकल जाता है, कुछ बुढ़ापे का हिस्सा निकल जाता है। अगर हम एक आदमी के पास देखें तो साठ साल के औसत उम्र में पांच साल से ज्यादा नहीं होता ।

इस पांच साल के लिए उससे कहो कि चप्पल भी तुम अपनी बनाओ, कपड़ा भी तुम अपना बनाओ, खाना भी तुम अपना बनाओ, गेहूं भी अपना पैदा कर लो, स्वदेसी हो जाओ तो यह आज बड़ा हास्यास्पद सुझाव होगा । हाथ की घड़ी स्वीटजरलैंड की, चश्मा फ्रांस का जूता कानपुर का, जीन्स बंगलादेश का , बनारस की साड़ी का रेशम चीन से आता है । भारत का अस्सी प्रतिशत मोबाइल और उसके पुर्जे चीन से ही आते हैं । संकल्प और धरातल में बड़ा फर्क है ।

स्वदेशी और स्वावलंबी से आगे “आत्मनिर्भरता” की ओर हमारे कदम बढ़ चुके हैं । सालों से स्पेस और कम्प्यूटर के क्षेत्र में भारत अपना लोहा मनवा रहा है । और भी बहुत सारे क्षेत्र हैं । जिनमे भारत आत्मनिर्भर होता जा रहा है । पर जो कच्चा लोहा हम छत्तीसगढ़ के खदानों से जापान को देते हैं उसी से वह विश्व का सबसे परिस्कृत स्टील तैयार कर दुनिया को सबसे महंगा बेचता है । उनसे सालों का कच्चा माल देने का करार भारत के साथ है । जापान अगर मित्र नही भी हो तो हमारा कभी शत्रु नही रहा । रूस और अमेरिका कभी इसलिए पास आए कि रूस को खाने के लिए अमेरिका ने गेहूं दिया ।

व्यक्ति को स्वदेशी और स्वावलंबन से फुर्सत मिलेगा तब वह देश को आत्मनिर्भर बनाने में योगदान दे पाएगा । पर, आत्मनिर्भरता का मंत्र हमारे वसुधैव कटुम्बकम की भावना को कहीं आघात न पहुँचा दे ,उस पर सतर्क रहना होगा । वसुधैव कुटुम्बकम यदि हमारी संस्कृति है तो इस सम्पूर्ण विश्व रूपी वृहद परिवार के हम भी तो एक अंग हैं ।

 

आज बस इतना ही..!

 

 

 ( लेखक वरिष्ठ विडियो जर्नलिस्ट है )

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