क्या भाजपा नेता हो पाएंगे महाराज ?
( इनसाइड स्टोरी पॉलिटिकल डेस्क)
मध्यप्रदेश की राजनीति में वर्तमान में कोहराम मचा हुआ है। कांग्रेस सरकार डूबती नजर आ रही है और भाजपा सरकार बनाने की गणित में लगी हुई है। महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया ने स्वयं को प्रदेश एवं केन्द्रीय स्तर पर तवज्जो नहीं मिलने के कारण पार्टी के हाथ जोड़ लिए हैं। वहीं उनके समर्थक दो दर्जन विधायक भी कांग्रेस से हाथ खड़े कर चुके हैं साथ ही कई जिलों में सिंधिया समर्थक भी कांग्रेस से नमस्कार कर रहे हैं तो कुछ वेट एंड वाच की स्थिति में हैं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस सरकार कोमा में दिखाई दे रही है। इन परिस्थितियों के लिए कांग्रेसियों के निशाने पर आए महाराज को जाने क्या क्या उपमाएं प्रदान की जा रही है।
मौजूदा परिस्थितियों के लिए कांग्रेस के आला नेताओं के साथ ही प्रदेश के कांग्रेस प्रभारी दीपक बावरिया को जिम्मेदार कहना लाजमी ही होगा। यदि समय रहते अन्दर खाने में धधक रही चिंगारी को बावरिया महसूस कर लेते तो यह हश्र नहीं होता। खैर अब जो हो चुका है उसे वापस तो लाया जा नहीं सकता लेकिन उसमें सुधार की बहुत आवश्यकता है।
एक मुख्यमंत्री के तौर पर सवा साल के दौरान कांग्रेस सरकार की पकड़ बनाने में कमलनाथ लगे रहे और प्रदेश कांग्रेस भगवान के भरोसे रही वे सरकार में व्यस्त रहे और जो कांग्रेसी नेता फ्री थे वे कांग्रेस की जड़ें खोदने में लगे रहे यदि कमलनाथ और बावरिया दोनों चाहते तो लोकसभा चुनाव के बाद निगम मंडल और प्रदेश कांग्रेस का पुर्नगठन कर सकते थे और प्रदेश भर के कांग्रेस नेताओं को एडजस्ट कर काम पर लगा सकते थे यह सारे व्यस्त रहते तो सरकार को कोमा में जाने से रोका जा सकता था।
स्वयं ज्योतिरादित्य सिंधिया जो अत्यंत व्यस्त रहते हैं जब तक वे केन्द्रीय मंत्री थे तो 18 घंटे काम में लगे रहते थे बाकी बचे समय में वे विदेश में रहते थे और अपने काम काज देखा करते थे। वे अपने निर्वाचन क्षेत्र में भी साल में सिर्फ 3 या 4 मर्तबा ही आ पाते थे। लोकसभा चुनाव हारने के बाद वे बिल्कुल बेकाम हो गए थे और लगातार ट्वीटर पर ही एक्टिव रहते थे। उन्होनें जब अपने ट्वीटर हेंडल पर अपने नाम के आगे लिखा कांग्रेस हटाया था तब ही आला नेताओं को समझ लेना चाहिए था कि सिंधिया कितने फ्री हो गए हैं उन्हें काम पर लगाया जाना चाहिए लेकिन नहीं देखा गया। एक साल तक तो वे इंतजार करते रहे लेकिन सब्र का बांध टूट गया और उस बांध के बहाव में बह गई मध्यप्रदेश की सरकार। वहीं इसका असर राजस्थान और पंजाब में भी देखने को मिल सकता है।
कांग्रेस से बाय बाय करने वाले सिंधिया के 21 सिपहसालार और स्वयं सिंधिया क्या भाजपा का साथ पकड़ेंगे यह अभी भविष्य के गर्त में है। प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह से मुलाकात के बाद अंदाजा यही है कि वे भाजपा के साथ जा सकते हैं। सिंधिया का यह फैसला उनके लिए कितना फायदेमंद रहेगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन भाजपा के प्रदेश के दिग्गज नेता सिंधिया को सहज तौर पर सहन नहीं कर पाएंगे। ग्वालियर की भाजपाई राजनीति में नरेन्द्रसिंह तोमर, अनूप मिश्रा, प्रभात झा, जयभानसिंह पवैया, अरविंदसिंह भदौरिया, यशोधराराजे सिंधिया के बीच पहले से ही तगड़ा काॅम्पीटीशन है। ऐसे में सिंधिया का लश्कर भाजपाईयों को कैसे हजम होगा कहना कठिन है।
प्रदेश भाजपा में शिवराजसिंह चैहान किसी अन्य को ताकतवर नहीं बनने देना चाहते इसके कई उदाहरण बीते 15 सालों के दौरान देखने को मिले हैं। शिवराज ने अपने कद के उपर के कद वाले नेता चाहे वो उनके गुरू राघवजी हों या विश्वासपात्र लक्ष्मीकांत शर्मा सभी को बे-इज्जत घर बैठा दिया है। इनके अलावा उमा भारती, कैलाश विजयवर्गीय, प्रभात झा, गौरीशंकर शैजवार, सरताजसिंह आदि की भी बिस्तर पेटी बंधवा दी। ऐसे में क्या वे सिंधिया को हजम कर पाएंगे जबकि वे उनकी बुआ यशोधराराजे सिंधिया को ही बेमन से स्वीकार कर पाते थे।
दूसरी तरफ वे 21 विधायक यदि अपना इस्तीफा देकर भाजपा में आते हैं तो उन्हे अपनी विधायकी छोड़ना पड़ेगी और दुबारा से चुनाव लड़ कर भोपाल का सफर तय करना होगा। यह सफर आसान नहीं लगता क्योंकि उन सभी 21 विधानसभा क्षेत्रों में कई सालों से भाजपा का झंडा डंडा उठाने वाले नेता कांग्रेस से आए इन नेताओं का अपना रहनुमा मान लें यह आसान नहीं है। पिछले कई सालों के दौरान कांग्रेस से भाजपा में गए नेता आज तक अपने आप को सहज महसूस नहीं कर पाते हैं तो दूसरी तरफ भाजपाई भी उन्हे अपना नहीं पाए हैं। यही कारण है कि लगभग सभी ऐसे मामलों में असली और नकली भाजपाई वाली बातें जब तब चर्चाओं में बनी रहती हैं।
इन परिस्थितियों के बीच महाराज, उनके 21 सिपहसालार और प्रदेश भर में फैला लश्कर अपना राजनैतिक वजूद बचा पाएंगे या महाराज की भाजपा में पहुुंचने की सीढ़ी बनकर रह जाएंगे। जिला और ब्लाक लेबल के सिंधिया समर्थक भाजपा में पद ले नहीं पाएंगे ऐसा ही कांग्रेस में भी होता है वे भाजपा से नेता को तमाम विरोध के बाद एडजस्ट कर लेते हैं लेकिन नेता के समर्थकों को इंट्री नहीं हो पाती। इसी प्रकार माननीय विधायक भी सारे के सारे भाजपा से टिकट पाने में सफल हो जाएं इसमें भी संशय है क्योंकि बगावत भाजपा में भी हो सकती है और पिछले विधानसभा चुनावों में हुई भी थी जिसके परिणाम स्वरूप भाजपा के चैहान चंद सीटों से सरकार बनाने से चूक गए थे।
यहां निदा फाजली की इस गजल की चंद पंक्तियां बहुत ही मुफीद हैं कि……….
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
इधर उधर कई मंज़िल हैं चल सको तो चलो बने बनाये हैं साँचे जो ढल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता मुझे गिराके अगर तुम सम्भल सको तो चलो
यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब चन्द उम्मीदें इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
हर इक सफ़र को है महफ़ूस रास्तों की तलाश हिफ़ाज़तों की रिवायत बदल सको तो चलो
कहीं नहीं कोई सूरजए धुआँ धुआँ है फ़िज़ा ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो