समता मूलक समाज बनाने जीवन भर रहे संघर्षरत कोल्हापुर के शाहूजी महाराज को आखिर क्यों भूले
—परिनिर्वाण दिवस पर किया जा रहा याद
जोरावर सिंह
भारत जैसे देश जहां पर विषमताओं का बोलबाला सदियों रहा है, और वर्तमान समय में भी विषताएं समाप्त नहीं हुई है, यहां विभिन्न विचार धाराएं भी जन्मी और पल्लवित हुई है, विषमताओं से भरे इस देश में जन्मे क्षत्रपति शाहूजी महाराज को उनके परिनिर्वाण दिवस के मौके पर उनके अनुयाइयों द्वारा नमन किया जा रहा है, उन्होंने देश में समतामूलक समाज की नींव रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह हमेशा समता मूलक समाज के पक्षधर रहे, और इसके लिए अनवरत प्रयास करते रहे।
छत्रपति शाहूजी महाराज का जन्म 1682 में हुआ था, और 6 मई को उनका परिनिर्वाण हुआ था, बचपन में ही उनकी मां का देहान्त हो गया था। उनके पिता का नाम जयसिंह राव अप्पा साहिब घटगे था। उन्हें अल्पायु में ही राजकाज का काम संभलना पडा। वर्तमान में महाराष्ट्र राज्य के कोल्हापुर की राज्य गददी पर बैठने के बाद भारत में व्याप्त विषमताओं का सामना उन्हें भी करना पडा। भारत में दलित और पिछडों के लिए जीवन भर संघर्ष करने वाले शाहूजी महाराज के बारे शायद अनुयाइयों तक जानकारी नहीं पहुंचने के कारण वह ज्यादा चर्चा में नहीं आ सके, लेकिन अब जैसे जैसे बहुजन समाज में जागरूकता आ रही है, वह महापुरुष याद किए जा रहे हैं। जिन्होंने उनके हित की लडाई लडी है।
—भोगना पडा विषमताओं का दंश
कोल्हापुर के महाराज शाहूजी एक राजा थे, इसके बाद भी वह पढाई लिखाई के बाद जब भारत भ्रमण के लिए निकले, तो उन्हें देश के कई शहरों में वर्गवाद और जातिवाद का सामना करना पडा, रुढवादियों का तिरस्कार भी झेलना पडा। इससे माना जाता है उस दौर में कर्मकांड अपने चरम पर था, और उन्हें कर्मकांड का दंश भी भोगना पडा, इसके बाद भी उन्होंने ऐसे कर्मकांडों का विरोध किया जो शायद उस दौर करना किसी के लिए भी काफी कठिन निर्णय रहा होगा, विषमता को बेहतर मानने वालों के विरोध का भी सामना किया। उन्हें किस तरह से मुश्िकलों का सामना करना पडा, इसके कई उदाहरण है, जिन पर काफी कुछ लिखा जा चुका है।
—यह फैसला दर्शाता है वह समतावादी थे
देश में शायद यह पहले राजा हुए जिन्होंने समता मूलक समाज को गढने के लिए प्रयास किए। उन्होंने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सन 1902 में शाहूजी ने अतिशूद्र व पिछड़े वर्ग के लिए 50 प्रतिशत का आरक्षण सरकारी नौकरियों में दिया। उन्होंने कोलहापुर में शिक्षा संस्थाओ का विकास किया। दबे कुचले समाज के लिए शिक्षा के प्रसार के लिए कमेटी का गठन किया। शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए छात्रवृति व पुरस्कार की व्यवस्था भी करवाई। उनके द्वारा लिए गए यह निर्णय समतावादी सोच को दर्शाता है उन्होंने देवदासी प्रथा, सती प्रथा, बंधुआ मजदूर प्रथा को समाप्त किया। विधवा विवाह को मान्यता प्रदान की और नारी शिक्षा को महत्वपूर्ण मानते हुए शिक्षा का भार सरकार पर डाला। मन्दिरो, नदियों, सार्वजानिक स्थानों को सबके लिए समान रूप से खोल दिया गया। वह जीवन भर समानता के लिए प्रयास करते रहे।
—पोस्टरों तक न रहें सीमित
भारत में वर्तमान दौर में बहुजन समाज जिस पायदान पर खडा हुआ अपने आपको देखता है, वहां तक का सफर तय करने में कई महापुरुषों का त्याग और बलिदान किया है, इन महापुरुषों के नाम पर सियासत भी हो रही है, सियासी पोस्टरों में उनके चित्र भी दिखाई देते है, उनके नाम के नारे भी लगाए जा रहे है, लेकिन उनके संघर्ष को युवापीढी कितना जानती है उनके बारे में अौर उनके बताए मार्ग पर कितना चल रही है, जरूरत इस बात की है ऐसे महापुरुषों के कार्यों की जानकारी युवाओं तक पहुंचाई जाए, इससे वह उनके विचारों का आत्मसात कर सकें।
—समानता का पथ हो सकेगा मजबूत
भारत में वर्तमान दौर में जातिवाद की घटनाए विवाद का रूप धारण कर लेती है, कहीं से समाचार आता है कि िकसी जाति के दूल्हे को घोडी पर नहीं चढने दिया गया, इसके साथ ही अन्य अत्याचार की घटनाएं सामने आती रहती है, माना जाए तो इसके पीछे भी वजह यही है कि शिक्षा के अभाव में इस तरह की घटनाएं जन्म ले रही है, समाज में यदि समानता का अभाव रहेगा, तो ऐसी घटनाएं भी जन्म लेती रहेंगी। समता मूलक समाज की स्थापना करने के लिए ऐसे महापुरुषों के संघर्ष से सबक लेना होगा। इसके बाद ही समानता का पथ और मजबूत हो सकेगा।