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अपने गांव-घर जाने के लिए चोरों की तरह जाना पड़े यह कौनसा भारत है?

 

— सरकार को दिहाड़ी मजदूरों की याद आई भी तो सबसे अंत में

 

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]कीर्ति राणा[/mkd_highlight]

 

 

रात तक इकट्ठे हुए जूठे बर्तन मांजने के लिए रख दिए थे। सुबह बर्तन साफ करने के लिए बैठा तो जूठन लगेबर्तनों पर लाल चीटिंयों का झुंड अपने काम में लगा था।मेरे लिए बर्तन साफ करना प्राथमिकता थी लिहाजाऐसे बर्तनों को नल के नीचे रखा और तेज धार से चींटियां तितर-बितर हो गईं। पानी की धार से बची कुछचीटिंयां रेंगते हुए हाथ पर चढ़ गई, फूंक मार कर उन्हें अलग किया इस बीच पैर की अंगुलियों तक पहुंची कुछचींटियों ने काटा तो उन्हें भी पानी डाल कर अलग कर दिया, काटी हुई जगह को हल्के से मसला और फिरकाम में जुट गया।

बर्तन साफ करते हुए आंखों के सामने घूम रहे थे वो दृश्य जब सींमेंट-कांक्रीट वाले टैंकर, दूध के टैंकर में छिपकर एक राज्य से दूसरे राज्य वाले अपने गांव-घर जाने वाले मजदूरों को इंदौर, गुजरात, हरियाणा आदि कीबार्डर पर तैनात पुलिसकर्मी टैंकर आदि से बाहर निकाल कर विभिन्न धाराओं में प्रकरण दर्ज कर गिरफ्तारीकर रहे थे और न्यूज चैनलों पर चल रही ऐसी तमाम ब्रेकिंग न्यूज शायद ही हलचल पैदा कर रही थी। किसीन्यूज रूम में हलचल हुई होती तो कोई एंकर चीख चीख कर सवाल पूछता, सच जानने के लिए केंद्र के मंत्रियोंपर दहाड़ता, दो चार पांच मजदूर नेताओं से बहस करता नजर आता, ऐसा नहीं हुआ।

घरों में कैद भारत को जब सिर्फ अपनी और अपने परिवार की चिंता हो तो इन दिहाड़ी मजदूरों की चिंता कोईक्यों करेगा। खुद मेरी प्राथमिकता जूठे बर्तन साफ करने की थी, मैं भी यह भूल गया कि ये सैंकड़ों चींटियां भीतो मेरा काम हल्का कर रही थी। लगभग यही हालत कोरोना कर्फ्यू वाले दिन से अब तक विभिन्न राज्यों मेंफंसे ऐसे लाखों दिहाड़ी मजदूरों की हो रही है।

मजदूरी के लिए गांव-घर से इनके झुंड जब निकले थे तब बस, रेल आदि साधन मिल गए थे और अब भूखे पेट, नंगे पैर सिर पर गृहस्थी के सामान का गट्ठर लादे, अधनंगेबच्चों का हाथ पकड़े बढ़े चले जा रहे थे अपने घरों की तरफ। कहां रुकेंगे, क्या खाएंगे की चिंता से बेफिक्र इनमजदूरों में से कब किसने कहां दम तोड़ दिया, रेल की पटरियों से घरों की तरफ जाती महिलाओं के सपनों कोधड़धड़ाती रेल ने कब चीर दिया, कितनों के पैर में फफोले पड़ गए, कौन नव प्रसूता पर्याप्त भोजन नहीं मिलनेसे नवजात बच्चे को दूध तक न पिला सकी, ऐसी खबरें आईं भी तो हमें अपनी चिंता के आगे बेमानी ही लगीं।मृत मजदूरों को तो कोरोना वारियर्स जैसा सम्मान भी नहीं मिल सकता, इन्होंने तो चोरी छुपे अपने घर जाने केलिए जान दी है।

लाकडाउन के इस पार्ट थ्री में यह बात समझ आई है कि इससे सर्वाधिक प्रभावित होने वाले मजदूर वर्ग कीहालत ‘लगान’ के क्रिकेट मैच में जुटी उन हजारों एक्स्ट्रा कलाकारों जैसी ही रही है जिनका फिल्म कीसफलता में कहीं जिक्र नहीं रहा।खाड़ी देशों में काम की उम्मीद में मजदूरों को जहाज में छुप कर जाते तो सुनाथा लेकिन कोरोना ने यह सच भी दिखा दिया जिसे नजर अंदाज कर सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है किमजदूरों को भूखे-प्यासे सैंकड़ों किलोमीटर पदयात्रा करते हुए अपने घर पहुंचना है।

अखंड भारत की दो बारपदयात्रा करने वाले आदि शंकराचार्य से लेकर आजादी आंदोलन के लिए अलख जगाने पैदल चलने वालेमहात्मा गांधी का नाम तो फिर भी इतिहास में दर्ज हो गया लेकिन अपने घर जाने के लिए ठाणे (महाराष्ट्र) सेदूध के टैंकर में छिप कर या सीमेंट के मिक्सर टैंकर में छुप कर जाने वाले मजदूरों को तो गिरफ्तारी का दंडभुगतना पड़ा है।जब विश्व के बाकी देशों में कोरोना पैर पसार रहा था तब हमारी सरकार अमरीकी राष्ट्रपतिट्रंप की अगवानी में रेड कारपेड बिछाने और गंदगी को छुपाने के लिए ऊंची दीवार उठाने में लगी थी।

इस कोरोना काल ने अनचाहे यह संदेश भी दे दिया कि मेक इंडिया के सपने को पूरा करने में देश के आममजदूर के लिए जगह नहीं है। सरकार के लिए विदेशों और देश के विभिन्न राज्यों में फंसे छात्रों को उनकेमुकाम तक पहुंचाना प्राथमिकता रहे और प्रधानमंत्री आवास योजना सहित गगनचुंबी इमारतों का सपना पूराकरने वाले मजदूरों को पैदल, टैंकरों में छुप कर अपने गांव-घर तक पहुंचने में जान गंवानी पड़े तो ये कौनसाभारत है? अब ट्रेन चलाई जा रही है, एक राज्य से दूसरे राज्य तक मजदूर परिवारों को लेकर बसें भी दौड़ रहीहैं।

लॉकडाउन पार्ट थ्री में यह सब किया जा सकता है तो लॉकडाउन लागू करने से पहले इन लाखों दिहाड़ीमजदूरों को सुरक्षित घर पहुंचाने की दिशा में काम क्यों नहीं हो सकता था।प्रधानमंत्री ने इस डेढ महीने में कमसे कम तीन बार राज्यों के मुख्यमंत्रियों से चर्चा की है। इस चर्चा में शिवराज सिंह, बिहार के नीतिश कुमार औरझारखंड के हेमंत सोरेन से लेकर राजस्थान के अशोक गेहलोत तक शामिल रहे हैं।इन राज्यों ने भी अपनेराज्यों के छात्रों को लेकर चिंता जाहिर की दिहाड़ी मजदूरों को लेकर इन सब के मुंह में भी दही जमा रहा।जबकेंद्र की प्राथमिकता में ही मजदूर नहीं रहे तो कोई मुख्यमंत्री बेवजह क्यों पंगा लेने लगा केंद्र से और शिवराजसिंह तो बिलकुल नहीं। अब इन दिहाड़ी मजदूरों की दशा भी आलू की तरह हो गई है।

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