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जेएनयू ने आखिर भारतीय समाज को दिया ही क्या है?

 

       (जे सुशील)

 

ये सवाल घूम फिर कर कथित चिंतक लोग करते रहे हैं पिछले कुछ सालों में. इन चिंतकों की दिक्कत ये है कि वो न तो अखबार पढ़ते हैं और न ही खबर पढ़ते हैं. खबर पढ़नी भी हो तो उनको सिर्फ अपने मतलब की खबर दिखाई देती है. मसलन जेएनयू के मामले में उनको देश विरोधी नारे दिखेंगे या फिर आजकल उनको विवेकानंद की मूर्ति को गंदा करना दिखेगा. बाकी फीस वीस के मुद्दे पर उन्हें सत्रह सौ मेस चार्ज नहीं दिखेगा. कमरे का किराया दिखेगा. लेकिन फिलहाल मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता हूं.

आज बात करेंगे जेएनयू ने आखिर भारतीय समाज को दिया ही क्या है. इसके लिए शुरु से शुरू करते हैं. जेएनयू की स्थापना हुई थी 1969 में वो भी किसी पीएम की मनमर्ज़ी से नहीं बल्कि संसद के एक्ट के ज़रिए. कुल जमा आइडिया ये था कि वैचारिक तौर पर नए बुद्धिजीवी बनाए जाएं जो सोशल साइंस में या किसी भी विषय में गंभीर रिसर्च करें. इसे बनाने वालों के जेहन में ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज जैसी कोई अवधारणा होगी कि यहां से बौद्धिक निकलेंगे. अच्छी रिसर्च होगी. रिसर्च की क्वालिटी को लेकर बहस बिल्कुल संभव है लेकिन ये कहना कि आज तक यहां से कोई अच्छी रिसर्च हुई नहीं है ये सिर्फ और सिर्फ बेवकूफ कह सकते हैं. अगर आपको भी लगता है कि जेएनयू में कुछ नहीं हुआ है तो जेएनयू की वेबसाइट ही देख लेते. जहां के पहले पन्ने पर ही बताया गया है कि एक- जेएनयू के प्रोफेसर दिनेश मोहन दुनिया में अपने क्षेत्र के उन प्रोफेसरों में से है जिनका रिसर्च सबसे अधिक बार cite किया गया है. ये पहली बार नहीं है. प्रोफेसर मोहन लगातार छठे साल ऐसे एक परसेंट लोगों की सूची में हैं. उनका विषय है पर्यावरण विज्ञान और फिलहाल वो कई विषयों समेत पानी के संरक्षण पर काम कर रहे हैं. अब रिसर्च cite होने का मतलब क्या होता है ये वो लोग ज़रूर समझेंगे जिन्हें पता है कि रिसर्च होता क्या है. अखबार में लेख लिखने वालों को इसका महत्व समझ में नहीं आएगा. दो- जेएनयू के ही प्रोफेसर ए एल रामानाथान को इस साल हियोसी पर्यावरण पुरस्कार मिला है जो जापान की सरकार देती है. जाहिर है कि प्रोफेसर को ये पुरस्कार रिसर्च के लिए मिला है. तीन- जेएनयू के ही प्रोफेसर एन जे राजू को इस साल भारत सरकार ने नेशनल जियोसाइंस अवार्ड दिया है. जाहिर है सरकार वामपंथी नहीं है तो टैलेंट को ही दिया होगा. चार- प्रोफेसर मीता नारायण को रूसी भाषा में योगदान के लिए प्रतिष्ठित पुश्किन मेडल भी इसी साल मिला है. पांच- जेएनयू के ही डॉ मुकेश जैन को इस साल टाटा इनोवेशन फेलोशिप भारत सरकार ने ही दिया है. ये तो बस बानगी है. भारत सरकार जी हां भारत सरकार के अनुसार ही देश के शीर्ष यूनिवर्सिटियों में जेएनयू पिछले साल दूसरे नंबर पर रहा है और उससे आगे सिर्फ आईआईएसी बंगलौर है. तो क्या भारत सरकार को पता नहीं है कि जेएनयू में क्या हो रहा है. क्या सरकार बिना जाने कैंपस को शीर्ष यूनिवर्सिटी की सूची में रख रही है. ये तो हुई विज्ञान से जुड़ा शोध, रिसर्च पेपर आदि आदि. अब आते हैं सोशल साइंस पर. किसी ने लिखा कि पिछले पचास साल में जेएनयू में कोई रिसर्च पेपर नहीं आया है चर्चित. ऐसे लोगों को पता होना चाहिए कि अकादमिक पेपर आम लोगों के लिए नहीं होते हैं और उसका अपना एक क्षेत्र होता है समझ का और उससे जो ज्ञान आता है वो धीरे धीरे आम जनता के बीच पहुंचता है जिसमें समय लगता है. जेएयू के सोशल साइंस विभाग से जुड़े प्रोफेसरों में रोमिला थापर, आदित्य मुखर्जी, बिपन चंद्रा, नामवर सिंह, आंद्रे बेते, सुदीप्त कविराज, दीपांकर गुप्ता, पुष्पेश पंत, कांति वाजपेयी, मैनेजर पांडेय और न जाने कितने ही नाम हैं जिन्होंने सोशल साइंस में कई तरह की अवधारणाएं रखी हैं. जिन लोगों ने इनकी किताबें नहीं पढ़ी हैं वो ये जरूर कह सकते हैं कि इन्होंने न तो कोई पर्चा पढ़ा और न ही कोई रिसर्च पेपर लिखा है. अकादमिक हलकों में रिसर्च पेपर का जवाब रिसर्च पेपर से ही दिया जाता है और वहीं मौलिक बिंदुओं पर बहस होती है. ऊपर दिए गए नामों के रिसर्च पर सवाल उठाया जा सकता है और उसका जवाब रिसर्च से दिया जा सकता है लेकिन ये कहना कि उन्होंने कोई नया रिसर्च पेपर नहीं लिखा और कोई बात ही नहीं कही ये Preposterous है. कम से कम सुदीप्त कविराज का काम देखना चाहिए जिन्होंने सबऑल्टर्न स्टडीज़ में बेहतरीन काम किया है और अभी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे हैं. दीपांकर गुप्ता की किताब मिस्टेकन मॉडर्निटी आज भी एक बेहतरीन टेक्सट है भारतीय समाज को समझने के लिए. शिक्षा के मसलों पर अविजित पाठक की किताबें पढ़ कर किसे नई दृष्टि नहीं मिलेगी. और हां हिस्टॉरिकल मेथड्स की चर्चा किए बिना रिसर्च की बात कैसे पूरी होगी. इतिहास के विभाग में निलाद्रि भट्टाचार्य जैसे शिक्षक जिनकी क्लास में रोमिला थापर आकर बैठा करती थीं. डीयू और जामिया से लोग आते थे उनकी क्लास करने के लिए. क्या ये कहा जाए कि उनकी क्लास में कुछ नहीं पढ़ाया जाता था. क्या उन्होंने उम्दा शोधार्थी नहीं तैयार किए. क्या टीचर का ये काम नहीं है. योगेन्द्र यादव ने जेएनयू से ही पढ़ाई की और राजनीति में आने से पहले तक उनकी चुनावी समीक्षाएं और जाति पर उनकी नई दृष्टि को कौन नहीं मानेगा. अगर आप आंखें बंद कर लेंगे और हर चीज़ को एक ही चश्मे से देखेंगे तो जाहिर है आपको जेएनयू में सिर्फ और सिर्फ वामपंथ और राजनीति दिखेगी. वैसे बताना जरूरी है कि इसी जेएनयू में मकरंद परांजपे जैसे शिक्षक भी नियुक्त हुए जिन्होंने लेफ्ट के वर्चस्व को बौद्धिक चुनौती दी. क्या ये बौद्धिक चुनौती बिना रिसर्च के हुई. मकरंद परांजपे का टैगोर पर लिखा लेख पढ़ना चाहिए लोगों को तो पता चलेगा रिसर्च कैसे की जाती है. ये कह देने भर से कि जेएनयू में कोई रिसर्च नहीं होती है न केवल गलत है बल्कि गैरजिम्मेदाराना बयान है. कम से कम कैंपस की नहीं तो वहां मौजूद दक्षिणपंथी और गैर वामपंथी शिक्षकों और छात्रों के रिसर्च के बारे में तो पढ़ लीजिए. किस टीचर ने अंडमान में जाकर लुप्तप्राय भाषाओं पर काम किया है. आपको निश्चित रूप से पता नहीं होगा. वो जेएनयू की ही टीचर अन्विता अब्बी हैं जिन्होंने अपने छात्रों के साथ मिलकर ये दुर्लभ काम किया है. अभी मैं बी वेंकट मणि, दया थुस्सु और ऐसे कई छात्रों का जिक्र नहीं कर रहा हूं जिनकी लिखी किताबें दुनिया की बेहतरीन यूनिवर्सिटियों के कोर्स में है. क्या वो बिना रिसर्च के लिख दी गई हैं? आपकी समस्या है कि आप जेएनयू में देशद्रोही नारों से आगे कुछ देखना नहीं चाहते हैं. वो नारे जिसके बारे में आज तक दिल्ली पुलिस पता नहीं लगा पाइ कि वो नारे किसने लगाए थे. बाद बाकी पोस्ट लंबी और गंभीर है. वाट्सएप फॉरवर्ड नहीं है कि चट से पढ़ लिए. पढ़ के गुनिए और खुद खोजिए क्या रिसर्च हो रहा है. सर्च करेंगे तो रिसर्च का पता चलेगा.

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