Top Stories

‘स्टेटस सिम्बल’ के आगे दम तोड गया लोकल को ग्लोबल बनाने का सपना

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]शालिनी रस्तोगी[/mkd_highlight]

 

 

 

कोरोना संक्रमण काल में सबसे अधिक लोकल सामान बनाने और बेचने वालो को हुआ और अभी भी हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकल को वोकल बनाने की अपील देश वासियों की। उनकी अपील का असर सोशल मीडिया पर तो दिखाई दिया लेकिन जमीनी स्तर पर लोकल को वोकल बनाने का सपना ‘स्टेटस सिम्बल’ के आगे दम तोड गया।

दरअसल,‘गुच्ची’ ‘अरमानी’ और ऐसे ही कितने बड़े-बड़े ब्रांड्स के पीछे भागती आज की युवा पीढ़ी, लोकल ब्रांड्स के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वाली पीढ़ी, दिखावे की ख्वाहिश में बड़े-बड़े माल्स के इंटरनेशनल शोरूम्स के चक्कर काटती रहती है। यह चलन जो कुछ समय पहले तक महानगरों का हुआ करता था आज यही चलन छोटे-शहरों और कस्बों तक में पाँव पसारता दिखाई दे रहा है। अमीरों के यह ब्रांड्स के शौक धीरे-धीरे मध्यमवर्ग की युवा पीढ़ी में अपनी पैंठ बना चुके हैं। कभी ‘स्टेटस सिम्बल’ बनकर तो कभी ‘पीयर प्रेशर’ बनकर बड़े-बड़े ब्रांड्स हमारे दिलोदिमाग पर कब्ज़ा करते जा रहे हैं।

बास्तव में ग्लोबल ब्रांड्स के प्रति दीवानगी और भारतीय ब्रांड्स को हेय दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति ने भारतीय इंडस्ट्रीज पर बहुत बड़ी घात की है। जिस प्रकार ऑनलाइन शॉपिंग के प्रति बढ़ती दीवानगी ने लोकल बाजारों के व्यापार पर प्रभाव डाला है उसी प्रकार बड़े विदेशी ब्रांड नाम की भेडचाल ने स्वदेशी ब्रांड और कुटीर उद्योगों को प्रभावित किया है। लोकल बाज़ार जाना, लोकल वस्तुएं खरीदना आज की पीढ़ी को बहुत निम्नस्तरीय लगता है। वे लोग जो विदेशी ब्रांड के नाम पर किसी भी चीज़ के लिए हजारों लाखों खर्च करने से नहीं हिचकिचाते, यदि लोकल मार्केट से सब्जी भी खरीदने निकलते हैं तो मोल-भाव में लग जाते हैं। बड़े शोरूम्स में बिना हील-हुज्जत किए चुपचाप अपना डेबिट-क्रेडिट कार्ड सरका देने वाला यह वर्ग गरीब दुकानदार से 100-50 रुपए कम करवाने में अपनी शान समझता है। तो ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी का लोकल के प्रयोग को बढ़ावा देने का आह्वान इस संकटकाल में प्रासंगिक ही नहीं अनिवार्य हो जाता है। समय आ गया है जब हम घर के मंदिरों तक में घुसपैंठ कर चुके चीनी सामान को बाय-बाय कर देसी को अपनाने की शुरुआत करें। लघु एवं कुटीर उद्योगों को बचाने की कवायद में यह पहल जरूरी भी है। बड़े-बड़े ब्रांड्स को टक्कर देने की क्षमता पैदा करने के लिए लघु एवं कुटीर उद्योगों को सशक्त बनाना होगा। लोगों के सहयोग और लोकल सामान के ज्यादा से ज्यादा प्रयोग के बिना यह संभव नहीं हो पाएगा|

लोकल को ग्लोबल बनाने का सफ़र इतना आसान तो नहीं होगा। लोगों के मन से लोकल सामान के प्रयोग के प्रति जो हीन भावना घर कर चुकी है उसे निकालना आसान नहीं होगा। पर कहीं न कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी। ज़रूरत है मानसिकता बदलने की। जब हमें देसी पहनने पर शर्मिंदगी नहीं गर्व होगा, जब विदेशी ब्रांड लोगों की पहचान और उनके परिचायक नहीं बनेंग, जब हम गर्व से स्वदेशी को अपनाएँगे, तब मिलेगा लोकल को बल और तभी ग्लोबल बनेगा … लोकल।

Related Articles

Back to top button