NationalTop Stories

राजनीति में कब्र पांव में लटकने तक पद की चाह…

-बचें ‘जगह मिलने पर ही साइड दी जाएगी’ से

(प्रकाश भटनागर)

गरमी के खास तेवर वाला वक्त चल रहा है। लू के झुलसा देने वाले थपेड़ों के चलते पेड़ों से सूखे और कमजोर पत्ते अकाल मृत्यु का शिकार होकर गिर रहे हैं। इधर, गरम हवा में नमी का जरा-सा भी अंश मिलते ही वह तेज आंधी चलती है कि आम के पेड़ पर आंखें खोल रही कई नन्हीं केरियां गिर पड़ रही हैं। इसे कुदरत का नियम कहते हैं। इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इस मौसम के बाद कुदरत ही बरसात के जरिये उस खुराक का बंदोबस्त करेगी, जिससे वृक्ष नयी पत्तियों से श्रृंगार करेंगे। आंधी से बचने में सफल रही केरियां आम की शक्ल लेकर लोगों के लिए और महत्वपूर्ण हो जाएंगी।

मौसम का हाल इस गरज से सुनाया कि ऐसा ही बहुत कुछ सियासी जगत में भी चल रहा है। जिसे लेकर मच रही हायतौबा पर सवाल उठाना बहुत जरूरी हो गया है। राहुल गांधी को पता नहीं कहा से एक ऐसी लात दिख गई, जो लालकृष्ण आडवाणी को कभी मारी ही नहीं गयी। नरेंद्र मोदी के घोर विरोधी राजनीतिज्ञ और गैर राजनीतिज्ञों की आंख में सुमित्रा महाजन को लेकर इतने आंसू भर आये हैं, जितने उन्होंने स्वयं के किसी प्रियजन की मौत पर भी शायद ही बहाये हों। यह सब शायद केवल इसलिए कि ऐसा भाजपा ने किया है। उसने आडवाणी का टिकट काटा। इसके जरिये सियासी वीआरएस की उस अघोषित प्रक्रिया का चरण शुरू हुआ, जिसके तहत सुमित्रा महाजन ने खुद ही अपने राजनीतिक डेथ वारंट पर दस्तखत कर दिये। इससे पहले कलराज मिश्रा ने वही किया, जो दो दिन पहले इंदौर की ताई को करना पड़ा। बाबूलाल गौर और सरताज सिंह का ऐपिसोड भी अतिथि कलाकार की भूमिका में यहां याद किया जा सकता है।

एक सवाल इस सब पर सवाल उठाने वाली प्रक्रिया के लिए है। कह सकते हैं राहुल गांधी कभी-कभी ‘बक्की’ की श्रेणी में आ जाते हैं। यूपी के कानपुर वाले बेल्ट में यह शब्द उनके लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो बेवजह और कुछ भी बोल जाते हैं। यदि गांधी बक्की नहीं होते तो वह दो में से एक काम कतई नहीं करते। या तो यह नहीं कहते कि सियासत में रिटायरमेंट की आयु साठ साल होना चाहिए। या फिर आडवाणी के नाम पर बेहूदा विधवा प्रलाप करने से बचते। गांधी ने जिस दिन पुणे में छात्रों से साठ साल वाली बात कही, उसी दिन वह आडवाणी प्रसंग पर भाजपा को कोसते दिख गये।

आखिर इस में गलत क्या है? बाबूलाल गौर लम्बे समय, दस बार विधायक रहे। मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री बनाये गये। सरताज केंद्र में मंत्री बने। राज्य में भी वे मंत्री पद से नवाजे गए। कलराज मिश्रा 75 की आयु तक आते-आते हर किस्म का सम्मान तथा तमाम वरिष्ठ ओहदे से सुशोभित होते रहे। नजमा हेपतुल्ला को रिटायरमेंट से पहले राज्यपाल का गरिमामयी पद दिया गया। अब ताजा-तरीन किरदारों पर आयें। आडवाणी उप प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे। जीवन का नवां दशक छूने तक उन्हें सांसद का पद एवं पार्टी के पितामह जैसा सम्मान दिया, बावजूद इस तथ्य के कि आडवाणी अपने राजनीतिक उत्कर्ष के अंतिम दिनों में उन मोदी के घोर विरोधियों में शामिल हो गये, जिन मोदी के लिए यह आरोप लगाया जाता है कि वह अपने विरोधियों को ठिकाने लगा देते हैं। सुमित्रा महाजन के मामले में इंदौर में तीन दशक तक भाजपा ने किसी किसी विकल्प पर विचार ही नहीं किया। लोकसभा अध्यक्ष जैसा गरिमामय पद उन्हें दिया गया। मुरली मनोहर जोशी तथा जसवंत सिंह आदि भी भाजपा से जुड़ने के तमाम सियासी लाभ लम्बे समय तक पाते रहे। इतना सब होने के बाद यदि बदलाव किया गया, तो उसे कम से कम घटिया विरोध और ओछे आरोपों से तो नहीं ही परिभाषित किया जाना चाहिए। और यदि ऐसा किया ही जा रहा है तो फिर चिंतन और चिंता तो सीताराम केसरी को अध्यक्ष पद से घसीटकर हटाये जाने वाले प्रसंग को याद करते हुए भी की जाना चाहिए। कमलापति त्रिपाठी के उन पत्रों से भी बुजुर्ग राजनीतिज्ञों का वह विलाप सहानुभूतिपूर्वक महसूस किया जाना चाहिए, जो कांग्रेस का यह वरिष्ठ नेता अपने जीवन के अंतिम दिनों में राजीव गांधी को पत्र लिख-लिखकर करता रहा।

क्यों नहीं याद किए जाएं वह दिन जब इस देश के 66 वर्षीय राष्ट्रपति बने ज्ञानी जैल सिंह की प्रधानमंत्री के तौर पर राजीव गांधी ने सतत रूप से उपेक्षा की थी। यह स्थापित तथ्य है कि ज्ञानीजी को प्रकारांतर से यह दुख उजागर करना पड़ गया था कि गांधी उन्हें राष्ट्रपति के स्तर का सम्मान ही प्रदान नहीं करते हैं। भाजपा ने गौर, सरताज, आडवाणी या महाजन सहित अन्य बुजुर्ग चेहरों का अपमान कर उन्हें अक्रिय नहीं किया। अपमान वह होता है, जो सीताराम केसरी का जीते-जी और पीवी नरसिंहराव का मरने के बाद किया गया। राहुल गांधी कभी मार्गरेट अल्वा की आत्मकथा पढ़ लें। शायद इससे उन्हें यही सबक मिले कि सच और झूठ के बीच अंतर करने का बोध हर किसी को होना चाहिए। लेकिन गांधी के पास सबक लेने का समय है ही कहां! वो तो भाजपा को सबक सिखाने के उन्माद में खालिस बक्की वाला आचरण करने को ही अपने शान समझने की महाभूल कर बैठे हैं। 
राजनीति में कब्र पांव में लटकने तक पद, सम्मान से जुड़ी रहने की चाह इस क्षेत्र में ‘जगह मिलने पर ही साइड दी जाएगी’ वाले घातक हालात को जन्म देती है। नयी पीढ़ी के लिए यदि मैदान खाली नही किया गया तो सियासी ट्रेफिक जाम में युवा पीढ़ी पिसकर रह जायेगी और फिर वही होगा, जिसका लाभ कांग्रेस में सिर्फ और सिर्फ एक परिवार को मिला तथा सारे देश को उसका नुकसान उठाना पड़ा है। इसलिए भीषण गरमी से कमजोर होकर गिरते पत्तों के लिए व्यर्थ प्रलाप उचित नहीं है। इसे भी कुदरत का इंसाफ मानकर देखना ही उचित होगा। और यह बदलाव सिर्फ व्यक्ति में नहीं संगठन का भी कायाकल्प कर सकता है। वो चाहे फिर भाजपा हो, कांग्रेस या अन्य पार्टियां।

Related Articles

Back to top button