जनाक्रोश की जलती मशाल : दुष्यंत कुमार
[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]शालिनी रस्तोगी[/mkd_highlight]
गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये।
जिसने अपनी कलम को तलवार बनाकर उसे तानाशाही, सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं से जलते अपने दिल के लहू में डुबोकर लोगों के भीतर दबी आग को हवा दी, वह कवि जिसकी आवाज़ सैकड़ों हजारों आन्दोलनों की आवाज़ बनी, वह जिसकी गज़लें समय सीमा के चक्र को तोड़ कालजयी हो गईं … आज हम हिंदी साहित्य के हस्ताक्षर उस महान कवि, कथाकार, गज़लकार को अपनी श्रद्धांजलि देते हैं जिनका नाम हमेशा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा – कवि दुष्यंत कुमार।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरा मकसद है की ये सूरत बदलनी चाहिए।
जिनकी कलम का उद्देश्य ही देश और समाज का सूरत-ए-हाल बदल उसे बेहतरी की तरफ ले जाना था ऐसे थे दुष्यंत कुमार त्यागी अर्थात् कवि दुष्यंत| हिंदी ग़ज़ल को महबूबा की जुल्फों के जाल से निकाल कर सामजिक अन्याय के विरुद्ध आक्रोश की आवाज़ बना देने वाले कवि दुष्यंत की आज यानि 1 सितम्बर को जन्म-जयंती है। कवि की पुस्तकों में जन्मतिथि 1 सितंबर 1933 लिखी है, किन्तु दुष्यन्त साहित्य के मर्मज्ञ विजय बहादुर सिंह के अनुसार कवि की वास्तविक जन्मतिथि 27 सितंबर 1931 है। कवि की पुस्तकों में जन्मतिथि 1 सितंबर 1933 लिखी है, किन्तु दुष्यन्त साहित्य के मर्मज्ञ विजय बहादुर सिंह के अनुसार कवि की वास्तविक जन्मतिथि 27 सितंबर 1931 है। फिलहाल हम कवि दुष्यंत द्वारा दी गई जन्मतिथि को सही मानते हुए आज के दिन कलम के इस सच्चे सिपाही को अपने भाव सुमन अर्पित करते हैं।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है।
“दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है। ” – निदा फ़ाज़ली का यह कथन दुष्यंत की रचनाओं के कथ्य की पृष्ठभूमि की स्पष्ट करती है।
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।
पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।
नसों में खौलते लहू को कलम से उगलने वाले दुष्यंत की ग़ज़लों के अश’आर कहीं मुहावरे और कहावतें बन कर लोगों की जुबां पर सजे तो कहीं आन्दोलनों में जन-आक्रोश के पैरोकार बने| युवाओं की आवाज़ बन कहीं मंच पर सजे तो कहीं नुक्कड़ नाटकों में जन-चेतना की आवाज़ बने।
आपातकाल के दौरान सरकारी नौकरी में रहते हुए हुए भी सरकारी तानाशाही के खिलाफ लिखने का परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा और वे सरकारी कोप के भाजन बने ।
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
पर अपनी जर्जर नाव के सहारे ही वे तूफानों से टकराते रहे| ग़ज़लों-संग्रह ‘साए में धूप’ उनके जीवन (जन्म-1933, मृत्यु-1975) की आख़िरी पुस्तक है। ज़िन्दगी की हर लड़ाई, आक्रोश, सामाजिक चेतना, पीड़ा से परिपक्व ग़ज़लों से सजी यह पुस्तक हर ग़ज़ल प्रेमी को अवश्य पढ़नी चाहिए।
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
….और वास्तव में मात्र 44 वर्ष की आयु में 30 दिसंबर 1975 की रात्रि में क्रांति की मशाल का यह प्रणेता इस दुनिया को अलविदा कह गया परन्तु उसके शब्दों की मशाल आज भी जल रही है और करोड़ो युवाओं के रक्त में चेतना की ज्वाला बन जल रही है।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए ।