पेट्रोलियम कीमतें कम करने के लिए 3 विकल्प, लेकिन चाहिए बड़ा कलेजा
देश में पेट्रोल और डीजल की कीमतें शतक लगाने की तरफ बढ़ रही हैं. जनता में इसे लेकर काफी गुस्सा है और विपक्षी दल सरकार पर हमलावर हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार आखिर कुछ कर क्यों नहीं रही है? क्या सरकार कुछ कर सकती है? क्या उसके पास कोई विकल्प है?
असल में, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर अंकुश के लिए सरकार के पास फिलहाल तीन विकल्प हैं, लेकिन तीनों बहुत मुश्किल हैं. सरकार और भारतीय जनता पार्टी को यह आभास है कि पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों से उन्हें नुकसान हो सकता है. पेट्रोल और डीजल की कीमतें अपने अब तक के उच्चतम स्तर पर हैं. मंगलवार को दिल्ली में पेट्रोल 76.87 रुपये प्रति लीटर और डीजल 68.08 रुपये प्रति लीटर था. आइए जानते हैं कि सरकार के सामने क्या हैं विकल्प…
एक रुपया भी टैक्स घटा तो 13,000 करोड़ का नुकसान
पहला विकल्प यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले एक्साइज ड्यूटी और वैट को घटाया जाए. अप्रैल तक के आंकड़ों को देखें तो उपभोक्ता पेट्रोल की जो कीमत देता है उसका 47 फीसदी टैक्स और डीजल की कीमत का 38 फीसदी टैक्स होता है. लेकिन समस्या यह है कि टैक्स में सरकार अगर एक रुपये की भी कमी करती है तो उसके खजाने में सालाना 13,000 करोड़ रुपये का नुकसान होता है. इसलिए न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें इसके लिए हिम्मत कर पा रही हैं.
तो दिल्ली में पेट्रोल की कीमत होगी 45.75 रुपये प्रति लीटर!
दूसरा विकल्प यह है कि ईंधन को जीएसटी में लाया जाए. यह लॉलीपॉप तो काफी समय से दिखाया जा रहा है, लेकिन अभी तक संभव नहीं हो पाया है. यह केंद्र और राज्य सरकारों, दोनों के लिए काफी कड़वी दवाई है. अगर पेट्रोल पर 18 फीसदी का भी जीएसटी तय कर दिया जाए तो दिल्ली में पेट्रोल की कीमत घटकर 45.75 रुपये प्रति लीटर आ जाएगी. लेकिन इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को बहुत बड़ा कलेजा दिखाना होगा. इसकी वजह है तेल पर टैक्स से होने वाली भारी कमाई.
पेट्रोलियम पर टैक्स से लाखों करोड़ की आय
ईंधन को जीएसटी के तहत लाने से सरकार को कर राजस्व में करीब 2 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होगा. गौतलब है कि ईंधन पर टैक्स से साल 2016-17 में केंद्र और राज्य सरकारों को 4.63 लाख करोड़ रुपये का राजस्व मिला था.
ओपेक देशों से करें मोल-तोल
तीसरा विकल्प दुनिया के भू-राजनीतिक परिदृश्य पर निर्भर करता है. भारत, जापान और चीन उन एशियाई देशों में शामिल हैं, जो ओपेक देशों से कच्चे तेल की खरीद के लिए ऊंची कीमत देते हैं. इसे ‘एशियन प्रीमियम’ कहते हैं और यह प्रति बैरल 3 से 8 डॉलर तक ज्यादा हो सकता है. यह दस्तूर साल 1987 से चल रहा है. एशियाई देश यह धमकी तो देते रहे हैं कि वे लामबंदी कर क्रूड खरीद करेंगे, लेकिन अब तक ऐसा हो नहीं पाया है. इसलिए अगर भारत ऐसे किसी गोलबंदी में शामिल हो पाया और ओपेक ने एशियन प्रीमियम को हटाने पर सहमति जताई तो भारत सरकार इसके भरोसे अपने टैक्स में कटौती कर सकती है.
अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड यानी कच्चे तेल की कीमत 80 बैरल प्रति डॉलर पहुंच गई है. अप्रैल तक भारत का जो क्रूड बॉस्केट 52.49 डॉलर प्रति बैरल था वह अब बढ़कर 72 डॉलर को पार कर गया है, यानी भारत को इस कीमत पर कच्चा तेल मिल रहा है. क्रूड की कीमत यदि 100 डॉलर को पार करती है तो इस पूरे साल में भारत को औसतन 93 डॉलर प्रति बैरल के हिसाब से कच्चा तेल मिलेगा. यह साल 2016-17 के स्तर से ठीक दोगुना होगा.
फिलहाल तो ऐसा नहीं लगता कि सरकार टैक्स में कोई कटौती करने की सोच भी रही है. इस बारे में एक सवाल पर हाल में पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा, ‘यह संभव नहीं है. गांवों में सड़कें कैसे बनेंगीं? यदि राज्य सरकारें पेट्रोलियम उत्पादों पर कोई टैक्स न लगाए तो गांवों में विकास कैसे होगा? फिलहाल तो सबसे आसान रास्ता हो सकता है कि सरकारें धीरे-धीरे क्रमिक रूप से एक्साइज और वैट को घटाएं.