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रामनवमीं,रामायण,कोरोना और क्वेरेन्टाइन

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]    कोरोना व्यंग्य [/mkd_highlight]
                                                                                              (  होमेंद्र देशमुख  )

ठक ठक ठक..

खुट खुट खुट..

सुनिए..!

साढ़े सात बज गए उठ जाओ आज रामनवमी है ।

पूरा घर हम सुबह से साफ कर रहे हैं । चाय पी लो और अपना कमरा भी साफ कर लो
दरवाजा खोलो ।
और तुम साफ नही कर रहे हो तो मैं आकर कर देती हूं ।
नही.. नही..
तुम इधर नही आना ..!

(खतरा जान कर ,कुंडी खोला और दरवाजा पकड़ उन्हें अंदर से ही मना लिया कि थोड़ी देर में कमरा मैं ही साफ कर लेता हूं )

थोड़ी देर में दरवाजे के गेप से चाय बिस्किट मिला । मोबाइल ऑन कर ई-पेपर खोला और आठ 10 दिनों से लगातार 24 घण्टे , मेरे 56 किलो वजन का बोझ ढोते बाबूजी के बेड पर बैठ कर चाय पीने लगा । बेड भी सोचता होगा क्या गुनाह किया था , इतना लोड तो तुम्हारे बुजुर्ग और बीमार बाबूजी ने भी मुझे नही दिया.! बेड का सोचना भी गलत नही है । क्यों मैं दस बारह दिन से पलंग तोड़ रहा हूँ, नहा रहा हूं, नाश्ता-खाना मिला के रोज चार-पांच बार पेट ठूंस रहा हूं, तीन बार सो रहा हूं । छः बार चाय पी रहा हूं । शुरू- शुरू में तो मुफ्त में आते चार पांच अख़बार पढ़ लेता था । अब न्यूजपेपर नही आते , पर चार-पांच दिनों से अपने मोबाइल पर देश-दुनिया की खबरें देख रहा हूं । फेसबुक पर रोज दो-तीन फ्रेंड रिकवेस्ट आ रहे, आठ-दस मैं भी भेज रहा हूं । लगता है ,कॉलेज के दिनों की लड़कियां फेसबुक नही चलातीं , नाम और शहर से सर्च करके थक गया हूं। कुछ तो चलो , ‘गधी’ थीं पर शिल्पा और किरण तो लाख ढूंढे नही मिल रही । लगती तो स्मार्ट और इंटेलिजेंट थी , पर न जाने कितने पिछड़े लोग होंगे जिनसेे उनकी शादी हुई । शादी से ख़याल आया , हो न हो सरनेम बदल लिया हो । आज फिर ढूंढता हूं , शादी का कार्ड तब आया था । पर जाने की हिम्मत ना हुई थी ..पति का सरनेम न जाने क्या था.. । यार अपने यहां लड़कियों का कितना दमन और शोषण किया जाता है , बताओ शादी के बाद सरनेम तक बदलना पड़ता है । इस पर भी लिखना चाहिए । बस एक बार इस क्वेरेन्टाइन से निकल ऑफिस जाने लग जाऊं । यार , कब ख़तम होगा ये चौदह दिन का क़वेरेन्टाइन ..!
न घर का न घाट का । कैदी बना के रख दिया है सरकार ने ! हमसे भले तो लॉकडाउन वाले हैं जो घर मे सबके साथ मजे ले रहे ।

लॉकडाउन से याद आया । देश भर में कोरोना के चलते लॉकडाउन है स्कूल ऑफिस बंद , और तो और रेल- हवाई जहाज बंद ! लोग घरों में परिवार के साथ मजे कर रहे । सुना है शहर के महंगे महंगे डॉक्टर भी अपने क्लिनिक बंद कर घरों में मजे कर रहे । महिलाएं  ,बच्चे कालेज की लड़कियां tiktok बना-बना के पागल किये दे रही हैं । लोग लॉकडान के कारण घरों में जमे हैं । वाट्सउप के सौ-पचास ग्रुपों में जीवन के फलसफे और ज्ञान की गंगा का अमृतपान हो रहा है । अपन भी एक दो रोज पेले हुए हैं । क्या बताएं , हमीं फंस गए हैं इस चौदह दिन के झमेले में । हे भगवान मैं पत्रकार क्यों बना, बना तो भोपाल में क्यों बना, और पत्रकारिता करने गया भी तो सीएम हाउस क्यों गया ..! अपनी भी बड़ी इज्जत थी । संपादक जी ने कहा था , पक्का इस्तीफा देगा । टीवी देखते रह, यहीं बैठ कर पूरी हिस्ट्री लिख लेना , फुल पेज जाएगा ।  पुराने सीएम हाउस गए हमारे बड़े भैया को पॉजिटिव आ गया । उसी केस में अपन भी फंस गए । कलेक्टर को फोन करी ,उठा नही रहा था । गुस्सा हमारा देखा नही कभी ! आखिर उठाना पड़ा ..! कहा , घर मे रहिये पत्रकार साहब ..सबसे अलग .., कुछ लगे तो हमें बताइये कभी भी..! 

बढ़िया .. आदमी से लगे थे कलेक्टर साहब उस दिन । बताओ..! इतने भले आदमी का अपने पास नंबर भी नही था ,अब सेव कर लिया है ।
दूसरे ही दिन शाम, अंधेर होने से पहले कालोनी के गेट पर दो सरकारी गाड़ी आई । दो पुलिस के जवान के बीच खड़े एक आफिसर ने वहीं से पूछा – कोई दिक्कत तो नहीं ..सर ..?
हमने भी बालकनी से ऊंची आवाज में जवाब दिया , नो प्रॉब्लम आल ओके..! कालोनी वाले अप्रेन वाली बाईजी को देख कर थोड़ा डरे । पर बाबूजी ने मुहल्लेवालों को, बीवी ने पड़ोसनो को और बच्चों ने अपने दोस्तों को बता-समझा दिया । कलेक्टर साहब ने यूं ही हाल-चाल जानने भेजा था । सब बढ़िया सेट हो गया था । जब देश भर के हर शहर में कोरोना के मरीज हास्पिटल में ,मजदूर सड़कों पर दम तोड़ रहे हों और अपन तो बढ़िया घर मे रहते हैं । सालों का सपना था । जब से मीडिया में आए , सबको शिक़ायत घर मे नही रहते, छुट्टी नही लेते । क्या हुआ कमरे में रहें । भले बाबूजी का हो । उनका यह कमरा भी तो घर पर ही है। क्वेरेन्टाइन का खतरा भांपते ही , बाबूजी को दूसरे कमरे में टिकाकर उनका कमरा पहले ही ले लिया था ,क्योंकि उसी की बालकनी से पूरी कॉलोनी और उसका गेट दिखता था। उनका बाथरूम भी उसी के साथ था । मस्त सेपरेट । इन दिनों टीवी पर धारावाहिक रामायण की चर्चा थी । भगवान राम चौदह साल बन में काट लिए । ये चौदह दिन तो यूं ही निकल जाएंगे ।

सुबह उठे तो कॉलोनी के गेट पर भीड़ थी । मोबाइल का कैमरा खट खट चल रहा था । देर अंधियारी रात कोई नीले रंग का पोस्टर गेट पर चिपका गया था , बताते हैं , जिस पर लिखा था – “मैं हूं क्वेरेंटाइन ”
‘अच्छी इज्ज़त थी’ , पिछली बार कालोनी के बाहर वाली सड़क पर नेता जी ने अपने कोटे से पेवर ब्लॉक लगवाया था । बाबूजी ने तब भी उल-जुलूल फैला दिया था । आज कॉलोनी के गेट पर पोस्टर देखकर हमें तो पता नही क्या हुआ । अपन तो कहीं निकलते भी नही ।  अब दस दिन घरी में हो गए । घर क्या .. आनन फानन में बाबूजी का कमरा तो पकड़ लिया था । कमरा काटने को दौड़ रहा । अब यह कैद सा लगने लगा । बड़े जिम्मेदारी से हम सेल्फ क्वेरेन्टाइन यानि चौदह दिन के लिए एकांतवास में आए थे । पर ये चौदह दिन अब भारी पड़ रहे है । कल संपादक जी भी डांट रहे थे.. “चूतिये ! तुझे किसने हल्ला मचाने कहा था कि तू भी उस दिन वहीं था .., एक ख़बर तो सम्हाल नही सकता , कहता है एक दिन संपादक बनेगा ..!”

मैंने अपने चाय के बर्तन धो लिए । अपने कमरे का पोछा भी लगा ही लिया । सेल्फ क्वेरेंटाइन में बड्डे.. ये काम खुदई करने पड़त । बाई तो कब से छुट्टी पर है । पोछा की बाल्टी धोने मेरे बाथरूम में घुसते ही पत्नि ने चुप, लेकिन मेरे कमरे की बाल्कनी जबरदस्ती घुस कर झाड़ पोंछ ही दी । आज घर का कोना कोना जो साफ होना था । मैंने भी नहा-धो कर उस दस बाई ग्यारह के दबड़े जैसे छोटे कमरे में अभी योगा करने दरी बिछाई ही थी कि हॉल के टीवी से रामायण शुरू होने की आवाज आने लगी –

आज के एपिसोड में भरत अपनी नानी के घर से लौट कर अयोध्या आ चुके थे । एक तो टीवी की आवाज तेज थी ऊपर से भरत अपनी मां कैकेयी से चिल्ला चिल्ला कर जवाब मांग रहे थे – भैया राम को बनवास क्यों, वह भी चौदह बरस का..! नही ये कभी नही हो सकता । ऐसा दंड तो भयंकर अपराधियों को दिया जाता है । मेरे राम भैया तो सत्य, धर्म और मर्यादा की मूर्ति हैं । फिर उनको यह दंड किस कारण दिया गया । क्या दोष था उनका माता.., ?
किसी का कोई दोष नही था पुत्र भरत ! वचन पालने की बात , सत्यनिष्ठ और धर्मपरायण न्यायप्रिय महाराज ने उस वचन के पालन में अपने प्राण निछावर कर दिए ।

ये संवाद नेपथ्य में चलते रहे ।। दरवाजे पर खड़े होकर मुझे कोरोना के वे संक्रमित मरीज याद आने लगे जो जाने- अनजाने इस संक्रमण के शिकार हुए । किस- किस शहर के किन-किन अस्पतालों में इन्हें भेजकर भर्ती किये जा रहे थे । कहीं का मरीज कहीं अस्पताल ! ये कोरोना है ही ऐसी मर्ज । जनता के साथ सरकार के भी हांथ-पांव फूले हैं । इंदौर के मरीज भोपाल में तो कानपुर के मरीज लखनऊ में । आइसोलेशन के कारण घर वालों से भी दूर ,किसी अस्पताल के आइसोलेलटेड वार्ड में बेचैन मरीज और घर मे तड़पते परिजन । ये किसी बनवास से कम है क्या..? ऊपर से कोरोना जैसी महामारी का कलंक । इस महामारी से बाकी को बचाने मरीज तो मरीज उनसे दूर से भी जुड़े रहे ,जिनको संक्रमित होने या वाइरस और संक्रमण का वाहक होने का खतरा था । ऐसे किसी भी संदिग्ध को चौदह दिन के लिए कमरे में स्वतः बंद यानि क्वेरेन्टाइन रहने की सख्त हिदायत और आदेश दिया गया था । मैं भी उनमें से एक था और आज मेरे भी ऐसे ही दस-बारह दिन हो चुके हैं । सुरक्षा ही समाज को इससे बचाव का पहला और कारगर तरीका है ।यही आज की जरूरत भी है । कम से कम हम किसी और को पीड़ा पहुचाने के भागीदार नही बन रहे हैं , हमारे लिए यह संतुष्टि भी है और उपलब्धि भी ।

दरवाजा बंद करने पल्ले को पकड़ा ही था कि रसोई से हड़बड़ी में हाथ पोछते निकलतीं, रामायण शुरू हो जाने की हड़बड़ी में हॉल की ओर झांकती पत्नि को मैंने टीवी की आवाज थोड़ी कम करने कहा । पत्नि बेपरवाही से मेरी ओर पलटींऔर सोशल डिस्टेंसिंग की ऐसी तैसी करती साड़ी के पल्लू से मुंह ढांक कर मुझ पर लपकते हुए झिड़कीं – ” और कितने दिन..! दस दिन से तो कुछ हुआ नही..? वहां तो लोगों के चार-पांच दिन में लच्छन दिख रहे हैं । सुबह शाम ये दे दो- वो दे दो ..उप्पर से वाशिंग मशीन तुम्हारे कमरे में फंसी , फिट नही होती तो हम कब के निकाल लेते । बाऊजी के इंग्लिश टोइलेट में तुमने कब्जा जमा ली , वहां उनके घुटने नई मुड़ सकत । एकइ बाथरूम में बाकी लोग घुसे पड़े हैं । बच्चों की तो हॉल में भी नही गुजर रही । उन्हें कार्टून क्या ,अपनी रामायण बंद कर के दिखाएं । बस घर मे घुसे रहो, तुम्हारे सौ नखरें सो अलग ।
हमें तो होने से पहले ही मार डाला इस कोरो..ना..!

मेरे चेहरे का रंग कुछ उड़ सा गया होगा ..! यह देख पत्नि सम्हली ,आखिर पत्नि है.. थोड़ी अपनी जबान दबाती , फुसफुसाती आगे बोलीं – घर के मंदिर में जो रामदरबार जी की मूर्ति है ,पुरखों की अकेली निशानी है । बाबूजी कह रहे थे , इमरजेंसी के दिनों में भी मूर्ति को रामनवमीं के दिन रामजी का गला कभी सूना नही रहा । सुबह कह रहे थे , मुन्ना पत्रकार है ! कितना भी बंद हो एक बढ़िया माला मंगा ही देगा आज के लिए किसी के हाथ । मां को भी नीचे से फूल लाने नही दिया । डांट दिया ! अब तुम्हारे घुटने में क्या मशीन लग गई । लगता है बच्चे भी बोर हो रहे , आप निकलते तो आते-जाते दस-बीस मिनट नानी के घर दूसरे बच्चों से मिला आते । आखिर स्कूल कब खुलेगी यह भी तो पता नही । एक कमरे में तुम अकेले । सबको लगता होगा मौज कर रहे हो । बाबूजी के कमरे से पूरी कॉलोनी दिख जाती थी ।
मैंने महसूस किया, ‘बालकनी’ बोलते समय थोड़ी शरारत भरी नजरें घुमाती चहक सी गई थीं मेरी पत्नि । उसने लगातार मद्धम से ऊंचा सुर लगाते शिकायती सवाल दाग ही दिए – सुनो मिसेस गुप्ता की बालकनी रोज खुलती है क्या..आज कपड़े सूखते देखा ..वो तो महीने भर से बाहर थीं । मैं नासमझी का ढोंग करते , कुछ सम्हलते उल्टे , किसी मोरनी के जबड़े में फंसे सपोले की, अधखुले फ़न फैला कर डराने और आत्म रक्षा की असफल कोशिश की तरह उल्टे सवाल दाग दिया । लॉकडाउन का मतलब अभी तक नही समझी ..? लोग यहां से वहां नही हो सकते । ऐसे में कौन उनके फ्लैट पर आ जायेगा । मैंने और होशियारी मारते आगे बोला – और फिर मैंने उधर कभी ध्यान भी नही दिया ।

टीवी पर शाम को महाभारत भी आता है । पर फिलहाल पत्नि रामायण देखने चली गई । मेरा ध्यान अब योग में नही लगा । थोड़ी देर पहले तक ताजे हवा के झोंके लाती बालकनी का दरवाजा बंद किया । बिस्तर तो मेरी ओर जैसे देख ही रहा था ,पता नही कब ये इंसान फिर लौट के पसरे । मैं फिर उसी पर ढेर हो गया । मटमैला छत और रुका पंखा देखते देखते मन मे हल्के झकोरे चलना शुरू भी हो गए ।  मुझे भी पता है और पत्नि को भी पता है कि बराबर वाले पड़ोसन से आपस मे कल बात हो रही थी । आजकल मिसेस  गुप्ता घर मे भी बड़ी मेकअप-सेकप में दिखती हैं । तब मैंने ज्यादा ध्यान नही दिया था । अब वो बातें याद आ रही । ये पत्नियां भी न अजीब होती हैं ,अपने पतियों के चरित्र से से सबसे ज्यादा नफा-नुकसान और फरक इन्हीं को पड़ता है पर न जाने क्यों ..रस्सी में में आग भी यही लगाती हैं ।
अब समझ आ गया । मेरे कमरे की बालकनी कितनी गन्दी थी और आज ही साफ होना क्यों जरूरी था ।
योग में तो अब कहां, ‘मन’ लगे ..!
बिस्तर पर  टीवी से आवाजें और तेज आने लगी थी । अपने पिता राजा दशरथ का अंतिम संस्कार कर लौटे भरत , अयोध्या के खचाखच भरे राज दरबार मे राजपाठ ग्रहण करने के बजाय चीख चीख कर कह मंत्रियों और मुनि वशिष्ठ से पूछ रहे थे – राजा दशरथ ने अपनी एक चहेती रानी के कहने पर आपके दिए मतों के बावजूद राम को राजा बनाने के बजाय उसे बन में भेज दिया । तब क्या आपने उस राजा को ललकारा कि हमारे दिए मत का क्या हुआ.. किसी ने अनीति के के खिलाफ विद्रोह की आवाज उठाई ? मत का अधिकार मिलना अच्छी बात है । लेकिन जो अपने उस अधिकार की रक्षा करना नही जानते । उनके लिए लड़ना नही जानते, उनका यही हाल होगा । महलों के षड़यंत्र से उन पर इसी तरह राजा थोप दिया जाएगा जिस तरह आज मैं आप पर थोपा जा रहा हूं । क्या आप चाहते हैं कि इतिहास में ऐसा ही होता रहे ..?
समवेत स्वर उभरा- कदापि नही ।

मैं रघुकुल के महान राजा दशरथ का पुत्र हूं, राम मेरा बड़ा भाई है । इस सिंहासन पर जब राम का अधिकार हो तो क्या किसी के स्वार्थ और जिद्द के लिए मैं बड़े भाई के अधिकार पर कब्जा जमा लूं । यह नही हो सकता । इस राजसिंहासन पर श्री राम ही बिराजेंगे ।वो मुझसे अवस्था मे भी बड़े हैं और गुणों में भी । मैं गुरुजनों से आग्रह करता हूँ कि राजनीति-धरामनीति की बातों में उलझाकर मुझ पर ये कलंक न लगाएं ।
भरत का जयघोष होने लगा ।

पत्नि की प्रत्यंचा चढ़ चुकी थी ।

रामायण खत्म महाभारत शुरू ..!

अब तो बारह बजने लगे ..
ये इमरजेंसी में क्या क्या मिलता था ,आप में से किसी को पता है क्या..

आज बस इतना ही..!

 

  (  लेखक वरिष्ठ विडियो जर्नलिस्ट है   ) 

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