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राम को जानते हैं ,अब जानिए कौन हैं रामलल्ला

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]होमेंद्र देशमुख[/mkd_highlight]

 

हिन्दू धारा का आधार सूत्र ‘प्रेम’ है । हिंदू विचार को जिसे भी समझना है उसे प्रेम की अलकेनी को समझना जरूरी है । जब बराबरी का दावा हो तो प्रेम है वहीं यदि शरणागत मान कर अपने आप को किसी को समर्पित कर उसे ही सत्ता मानकर प्रेम करें तो भक्ति है । भक्ति प्रेम की वह छैनी है जो अपने अंदर छुपे परमात्मा की प्यास को तराशती है और मनुष्य का मिलन उस परमात्मा से कराती है । इसकी चरम सीमा को केवल भक्त और भगवान ही समझ सकते हैं । बाकी को यह तमाशा लगेगा । मूर्ति को नहलाना ,वस्त्र पहनाना ,ठंड से बचने अग्नि का ताप देना ,गरम वस्त्र पहनाना ,आरती, भोग लगाना , झूला झुलाना ,शयन कराना । कुछ लोगों को यह नाटक या अतिरेक लगता होगा ।


श्रीमद्भागवत् में नवधा भक्ति का वर्णन है :
“श्रवणं कीर्तन विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

‘भक्ति’ के इन नौं मार्गों में
सगुन और निर्गुण ,भक्ति की धाराएं हैं । निराकार की आराधना सगुण और आकार की उपासना सगुन भक्ति की धारा है ।
शगुन भक्ति पत्थर में धातु में वृक्ष में जीव में अपने प्रभु को देखता है ।
इसके अलावा नारद भक्तिसूत्र संख्या 82 में भक्ति के जो ग्यारह भेद हैं, उनमें गुण माहात्म्य के अन्दर नवधा-भक्ति के श्रवण और कीर्तन, पूजा पद्धति में अर्चन, पादसेवन तथा वंदन और स्मरण-दास्य-सख्य-आत्मनिवेदन में इन्हीं नामों वाली भक्ति समाहित हो जाती है। रूपासक्ति, कांतासक्ति तथा वात्सल्यासक्ति भागवत के नवधा भक्तिवर्णन से अलग हैं ।

भक्ति का वात्सल्य रूप और उसका वर्णन ईश्वर या हमारे पूजनीय अवतारों के प्रति आस्था ही नही बल्कि हमारे हृदय में स्नेह भर देता है । हम उस बालरूपी ईश्वर की लीलाओं को देखते पढ़ते समझते हुए अपने आप को उनके संरक्षक , दर्शक के रूप में हृदय से जुड़ जाते हैं । कृष्ण की बाल-लीलाओं को हमने बहुत पढ़ा और जाना , पर राम के बाल-लीलाओं का सीमित वर्णन है ।

कलकत्ता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर में रामकृष्ण परमहंस साधक थे । तंत्र साधना के अलावा वे ईश्वर की नवधा भक्ति के भी साधक थे । अलग अलग धर्म सम्प्रदाय की साधना और उनकी प्रार्थना में डूबकर वह अनुभव करना चाहते थे । पश्चिम बंगाल में खूब प्रचलित सखी सम्प्रदाय के भक्ति मार्ग में तो वह औरत का रूप धर घूमते पाए गए ।
अपने साधना और दक्षिणेश्वर के काली मंदिर के मुख्य पुजारी हो जाने के कारण , आकर्षक और सिद्ध मंदिर के परिसर में देश भर के साधु संतों का आना जाना लगा रहता । उन्ही दिनों सन् 1860 के आसपास जटाधारी नाम का एक साधु दक्षिणेश्वर परिसर में आकर रुका । उसके पास भगवान राम के बालरूप की सुंदर प्रतिमा थी । जटाधारी उसे रामलल्ला बुलाते । नित उस प्रतिमा का वह ध्यान पूजा करते । सुबह का स्नान पूजन भोजन और विश्राम और साथ साथ प्रतिमा को मंदिर परिसर और पास के उपवन घुमाने ले जाते ,उसके संग खेल भी खेलते ।
रामकृष्ण तब तक बहुत विधाओं, मार्ग , मान्यताओं ,पंथों की साधना कर चुके थे । घोर तंत्र साधना के साथ भक्ति के सरल सहज अनुभव लेने क यह क्रम अभी भी जारी ही था । वो स्वयं अभी युवा थे ।

धातु की उस मनमोहनी मूरत पर रामकृष्ण का वात्सल्य जाग उठा । वह जटाधारी के साथ इस मूर्ति का संवाद और क्रियाकलाप रोज देखता । मूर्ति में निहित जागृत शक्ति का उनको आभास हुआ और अब युवा गदाधर चटोपाध्याय , ठाकुर जी श्री रामकृष्ण भी उस मोहिनी मूरत के मोहपाश में बंध गए ।

‘रामलल्ला’ , गंगा किनारे स्थित इस काली मंदिर परिसर भर में स्वयं उनके पीछे पीछे घूमने लग जाते । मां काली के पूजन हेतु थाल सजे सुगंधित पुष्पों , भोग के लिए रखे मीठे चांवल ,कंद मूल पर झपट्टा मारकर किसी निर्दोष और निर्मोही बालक की भांति बिखरा देते । किसी शरारती बालक की भांति पानी के हौद में गिर जाते ,पलट कर रामकृष्ण उसे बचाने दौड़ते । पर जिसने सब को जीवन दिया वह दिव्यदेह रामलल्ला की तो यह बस लीला ही थी । रामलल्ला के लिए उनके मन मे वात्सल्य जागने लगा । उन्होंने साधु जटाधारी से राममन्त्र की दीक्षा ली और मां काली के साथ वह भी उस बालरूप राम की भक्ति में लीन हो गए । उनके रामलल्ला के लिए अब रामकृष्ण सुंदर सुगंधित पुष्प स्वयं चुन कर लाते, मीठे मीठे फल , चुन चुन कर नरम गन्ने लाते और उन्हें भोग अर्पित करते । मंदिर परिसर में दोनो घूमते फिरते क्रीड़ा करते । आगंतुक उन दोनों के वात्सल्य रूप और भाव का रसपान करते और नटखट रामलल्ला की लीलाओं का आनन्द लेते ।
लोकगुरु होने के लिए सब रस और भाव का अनुभव रामकृष्ण की साधना का उद्देश्य था । वह तो अपनी साधना में लीन हो अपने होश गंवा देते । ऐसे में रामलल्ला के धातु की मूर्ति और उनके साथ स्वयं के आचरण की यह घटना हम सब के लिए मात्र किवदंती ही है ,कहानी है । पर रामकृष्ण के कई जीवनियों में यह कहानी जीवित है । उन्होंने अपने अनुभव को लिखा है ।

श्री रघुवीर रामकृष्ण के कुलगुरु थे । वह कहते हैं , वात्सल्य रस की इस साधना में डूबे रामकृष्ण के शरीर मे एक दिन लल्ला मूर्ति से निकल कर स्वयं उनकी देह में समा गए । दोनो के बीच हसी ठिठोली डांट फटकार और रूठना मनाना भी होता । रामलल्ला अपने दीर्घ ,गहरे ,कमल नयन से रामकृष्ण को देखते । एक दिन रामलल्ला को भूख लगी । आसपास कुछ न होने से रामकृष्ण ने धान की लाई (लावा) खिला दिया । बाल रूप राम के छोटे से मुख और नरम नरम तालू में लाई के साथ आया धान का नुकीला भूंसा चुभ गया और लल्ला रोने लगे । उसे रोता देख स्वयं रामकृष्ण दहाड़ मार रोने लगे । माता कौशल्या से क्षमा मांगते रामकृष्ण कहने लगे हे माँ जिसे तुमने मीठे खीर ,पुए खिलाए उसे मैंने यह क्या खिला दिया । मैं कितना निर्दयी कितना अभागा हो गया । भक्त लोग रामकृष्ण का यह रूप देख व्याकुल हो जाते । उनका परस्पर प्रेम और वात्सल्य देख जटाधारी उस धातु मूर्ति को उन्ही के पास छोड़ अज्ञात स्थान की ओर प्रस्थान कर गए ।
यह सच है या किस्सा, कहानी या किवदंत..सवाल यह नही है । पर वात्सल्य की भक्ति का यह सुंदर अभिव्यक्ति है ।
भगवान कृष्ण के बाल लीला का सूरसागर में भक्ति मार्गी कवि सूरदास ने अद्भुत वर्णन किया है । कवि रसखान ने तो कृष्ण के बालपन का चर्मोत्कर्ष वर्णन किया है । भक्त इन लीलाओं को सुन और पढ़कर प्रभु के संरक्षक की भांति अनुभव करते पर अपने आप को उनके बालरूप को भी समर्पित कर देते हैं ।
सूरसागर में ही सूरदास ने राम के बालरूप रामरस का भी कुछ पदों में लघु वर्णन किया है ।

प्रभु राम के बालरूप का बहुत कम वर्णन मिलता है । पर राम के मूर्ति के बहाने रामकृष्ण की उस कहानी में रामलल्ला जागृत हैं ।

अयोध्या के बहु चर्चित विवाद में जब रामलल्ला (रामलला) शब्द की बात होती थी तब मुझे राम को मर्यादा पुरुष की मेरी मन मस्तिष्क में छाई छवि को तोड़ना और श्री राम को लला या लल्ला या बालरूप में स्वीकारना बड़ा मुश्किल हो जाता था । दिग्विजयी अपने प्रभु राम का यह रूप जनमानस में अपरिचित सा लगता था ।
रामकृष्ण की जीवनी पढ़ते समय पिछले दिनों मुझे प्रभु राम को लल्ला यानि क्रीड़ा करते शरारत करते , जिद्द करते बालक – रूप राम का जीवंत वर्णन और उनके लोक- दृष्टा , जगत गुरु , मर्यादा पुरुष प्रभु श्रीराम बनने की ओर उनकी यात्रा मेरे मन मे सम्पूर्ण होती सी प्रतीत हो रही है ।

हमे अगर हमारे जीवन की नियति निर्णय करने की आजादी मिल जाए तो हम अपने बचपन मे लौटने की लालसा रखेंगे । राम की जन्मभूमि और उसका पुनर्निर्माण हम सब के लिए अपने ही बचपन के प्रतिमानों , घटनाओं में पुनर्भ्रमण, अवलोकन के भावनात्मक लगाव का अवसर है…
देश मे बारह प्रमुख और प्रसिद्ध राम मंदिर हैं । जिसमे से अधिकतर दक्षिण-भारत मे हैं । मप्र के ओरछा में श्री राम एक राजा के रूप में बिराजते हैं , तो चित्रकूट में वनवासी की तरह । इसके अलावा जम्मू में रघुनाथ जी कहलाते हैं । अब अयोध्या में बनने वाले भव्य मंदिर को भविष्य में शायद राम जी के बाल रूप
“रामलल्ला” के लिए जाना जाएगा । ।
आशा है ,अब अयोध्या हमारे लिए किसी अदालती ,राजनीतिक या साम्प्रदायिक विवाद और विरोध का शब्द नही बल्कि प्रभु श्री राम के जन्म और उनके नटखट बाललीला का आंगन कहलायेगा । अपने प्रभु , ”लल्ला” के झुलनी का झूलना …..

 

आज बस इतना ही…

 

( लेखक वरिष्ठ विडियो जर्नलिस्ट है )

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