कविता : मेरे आंगन में चिड़िया…
[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]होमेन्द्र देशमुख[/mkd_highlight]
“चिड़िया”
‘मेरे आंगन में चिड़िया…’
मेरे बिस्तर से उठने के पहले
तुम चली आती हो
न कुछ खबर कहां से आती हो
क्या पता फिर कहां चली जाती हो
तुम्हारे आने से जाने के बीच मैं तुम मे समा जाती हूं,
तुम, मुझ मे समा जाती हो
क्या तेरा बाबुल
तुझे ‘घर’ से निकलने से नही रोकता
या तुम उसे अनसुना कर चली आती हो
क्या तुम्हारा भाई दहलीज पार करने पर तुम्हें नही टोकता
जो रोज फुर्र-फुर्र उड़ आती हो
क्या तेरी मैया तुम्हे छुप कर आ जाने देती है
या लौट कर मुझसे मिलने का बहाना बनाती हो…
‘बुलबुल’ थी मैं लाडली थी
फुदकती थी कभी मैं भी इस-उस अंगना
जैसे तुम मेरे पास चली आती हो
फिरती थी घर-घर गली-गली मस्ती में
तुम तो रोज आकर केवल मुझे सताती हो
क्या ये सब हैं तुम्हारी भी सहेलियां
जिसके संग तुम रोज आती-जाती हो
अब बड़ी हो गई हूं मैं ,सब कहते हैं ..
तुम भी क्या मुझे इसीलिए चिढ़ाती हो
पता है मुझे । तुम्हे भी भूख प्यास नही लगती मेरी तरह
जा मैं ना डालूंगी तुझे एक भी दाना
खाती कम, ज्यादा इतराती हो
सुन..! लड़कपन से उठकर खड़ी मत होना
कट जाएंगे तुम्हारे भी ‘पर’
तुम भी बड़ी मत होना
मुझ-सी यूं नही रहोगी
दरवाजे के इस पार
होगी जहां दहलीज और दीवार
‘मेरे आंगन की चिड़िया’
फिर तुम भी नही पूछोगी खुद से यह सवाल
छोड़ कर बन-आसमान
क्यूं पिंजरे की पंछी बन जाती हो….
न जानें क्यों मैं तुम में और तुम मुझ में समा जाती हो
न जानें क्यों मैं तुम में और तुम मुझ में समा जाती हो..
आज बस इतना ही…!
( लेखक वरिष्ठ विडियो जर्नलिस्ट है )