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मंदसौर गोलीकांड: किसानों की शहादत के एक साल, खत्म नहीं हुई कसक

भोपाल। घनश्याम धाकड़, अभिषेक, कन्हैयालाल, चैनराम, बब्लू पाटीदार और सत्यानारायण धनगर, ये उन 6 किसानों के नाम हैं जो एक साल पहले सरकार से अपना हक मांगते हुए इस दुनिया से रुखसत हो गए। या यूं कहें कि रुखसत हुए नहीं बल्कि रुखसत कर दिये गए। इनकी गलती बस इतनी थी कि ये अपनी हाड़तोड़ मेहनत का मोल मांग रहे थे।

मेहनत भी ऐसी जो केवल अपने घर-परिवार के लिए नहीं की जाती बल्कि वो मेहनत जो गांव-शहर की सीमाओं को तोड़ते हुए पूरे देश का पेट भरने को अन्न उपजाती है। लेकिन, उनकी किस्मत में मेहनत का मोल नहीं, बल्कि सरकारी बंदूकों से निकलने वाली गोलियां लिखी थीं। जो अन्नदाता अपनी मेहनत के पौरुष से चट्टानों को भी चीरकर धरती पर सुनहरी चादर बिखेर देता है, उसके हिस्से में खुशियां नहीं सरकारी गोलियां आईं।

अपनों ने ही चलाई थी गोलियां
आज़ाद मुल्क में, भारत माता के सबसे मेहनतकश सपूत बेमौत मारे गए। उन्हें मारने वाले न तो पाकिस्तानी थे, न ही वो अंग्रेज जिन्होंने देश को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा था। वो बंदूकें भी अपनी ही थीं, उनसे निकली गोलियां भी अपनी ही थीं, और वे हाथ भी अपने ही थे जिन्होंने ये गोलियां चलाई थीं। जब अपना ही अपनों की जान ले, तो उसका दर्द आसानी से नहीं जाता।

एक साल बाद भी नहीं मिला इंसाफ
यही वजह है कि मंदसौर गोलीकांड के एक साल बाद भी अन्नदाता का ये दर्द कम नहीं हुआ। खासकर जब वो उन लोगों के बारे में सोचता है जिन्होंने उसके साथियों का ये अंजाम किया, तो उसकी कसक और बढ़ जाती है। क्योंकि एक साल गुजरने के बाद भी उन लोगों के नाम नहीं पता चल सके हैं, जिन्होंने उनके साथियों का ये हश्र किया।

किसी के पास नहीं है जवाब
किसानों की मौत पर जांच आयोग भी बना, सियासी बयानबाजी भी हुई। कभी सत्ता पक्ष ने इंसाफ की बात कर उन मृतकों के परिजनों को बरगलाया तो कभी विपक्ष ने अपने सियासी अभियान के लिए माइलेज लिया। लेकिन, अब तक ये कोई नहीं बता सका कि उन मजलूमों की जान किसने ली।

कोई बताएगा ऐसी योजना जो आत्महत्या करने से रोक दे
एक साल गुजरने के बाद भी अन्नदाता अपने भाइयों के हत्यारे को ढूंढ रहे हैं। एक साल में न तो उन हत्यारों का पता चला और न ही उन सवालों का जवाब मिला जिनके लिए किसान आंदोलन हुआ था। न तो किसानों की फसल का वाजिब मूल्य मिलना शुरू हुआ और न ही दुनिया को जीवन देने वाले अन्नदाताओं की आत्महत्या का सिलसिला खत्म हुआ। बस सरकारी योजनाओं के भंवर में फंसे ये किसान उस एक योजना को ढूंढ रहे हैं जो उन्हें खुदकुशी करने के लिए मजबूर होने से रोक सके।

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