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50 साल बाद पूर्वजों के नाम पर गाड़ते हैं पत्थर, होता है जलसा

जिला मुख्यालय से 5 किमी दूर ब्रेहबेडा पंचायत में एक पीढ़ी के बाद पूर्वजों का अंतिम संस्कार किया गया। करीब 50 साल बाद यहां 95 गांवों से सैकड़ों ग्रामीण आए हुए हैं। पूर्वजों की याद में गायता पत्थर गाड़ने की रस्म अदा की गई, जिसमें महिलाओं ने गीत गुनगुनाए।

मालूम हो कि जिले की गोंड जनजाति में अपने दिवंगत परिजनों का अंतिम संस्कार पचास साल बाद भी किया जाता है। इस जनजाति का मानना है कि शरीर नश्वर है और इसे पत्थर के रूप में पहचानेंगे।

इसी मान्यता को लेकर यहां दिवंगत लोगों के नाम से सालों बाद पत्थर गाड़ने की रस्म होती है। ऐसे सामूहिक पत्थर गोंड जनजाति बहुल गांवों में दिखाई देते हैं। इन्हें गायता पखना कहा जाता है। गोंडी में इसे कल उरसाना यानि पत्थर रखना भी कहते हैं। बहुवचन में इसे कल्क उरसना कहते हैं।

आसपास के गांव के एक ही गोत्र के लोग कई साल में अपने परिवार के दिवंगत लोगों का अंतिम संस्कर एक ही स्थान पर करते हैं। वे

यहां पत्थर गाड़ते हैं।

मंडा और टोंडा

गोत्र को मंडा यानि छत और इसकी शाखा को टोंडा कहा जाता है। एक ही गोत्र में विवाह नहीं होते हैं। मसलन वड्डे गोत्र में तेता, कोर्राम, गावड़े, कचलाम, उसेंडी, सलाम, नेताम, उइके, पोयाम आदि शाखाएं होती हैं।

पट्टावी गोत्र में पोटाई, मंडावी, नुरूेटी, दुग्गा, सोढ़ी, करंगा, गोटा, ध्रुव, कोरोटी, कुंजाम, कौड़ो,दर्रो, नाग, तारम इत्यादि शाखाएं होती हैं। गोंडवाना समाज के बालसाय वड्डे बताते हैं कि सभी गोत्रों एवं शाखाओं के चिन्ह होते हैं। यदि गोत्र या शाखा का निशान बकरा है तो उसमें इस पशु को खाने को मनाही होती है। अन्य कुछ प्रतिषेध भी जातियों के साथ गोत्रों में प्रचलित हैं।

पत्थर के रूप में पहचानते हैं बुजुर्गों का

नई पीढ़ी अपने बुजुर्गों को पत्थरों के रूप में पहचानती है। बिंजली के पियाराम दुग्गा का कहना है कि अमूमन एक पीढ़ी के बाद यह रस्म की जाती है। यह कभी 50 साल बाद होती है तो कभी 30 साल बाद। कहीं – कहीं 20 साल बाद भी रस्म होती है।

समाज में यह किसी दिवंगत का अंतिम संस्कार ही है। मरकाबेड़ा गांव के रखाराम वड्डे बताते हैं कि कल्क उरसने का कार्यक्रम तीन से पांच दिनों तक चलता है। इसमें सगोत्रीय परिवार के सदस्य तो रहते ही हैं, विशेष रूप से दिवगंत के नाती को आमंत्रित किया जाता है। नाती ही पत्थर लाकर गाड़ता है। एक ही स्थान पर भोज चलता है। इसके लिए लोग खुद व्यवस्था करके आते हैं। भोज नदी किनारे या कुंओं के आसपास होता है।

भोज के लिए सुअर एवं बकरे भी कटते हैं लेकिन इनकी बलि आना पुजारी देता है। अनाज की व्यवस्था के लिए एक भंडारी होता है और वह एकत्र अन्न को बांटता है। गांव के युवक – युवतियां भोजन पकाते हैं।

गांव में नाच – गाना होता है और कृत्रिम बाजार लगाया जाता है। कोई व्यक्ति अपने दिवंगत बुजुर्ग के नाम से बकरा या मुर्गी लाता है तो बलि के बाद इसके सिर या पूंछ को गाड़े जाने वाले पत्थर के सामने रखा जाता है। इसके अलावा पत्थर के पास चावल – दाल आदि रखे जाते हैं। इसके पीछे कुछ मान्यताएं भी हैं।

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