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मुखौटा : इन दिनों तेरे जलवे कुछ और हैं….

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]होमेन्द्र देशमुख [/mkd_highlight]

 

 

कविता : मुखौटा

 

मुखौटे इन दिनों तेरे जलवे कुछ और हैं।
कहते हैं मास्क ,नकाब या मुख-आवरण
क्या क्या छुपाते हो बीमारी के नाम पर
महामारी के बहाने बचाते ये कुछ और हैं
मुखौटे इन दिनों तेरे जलवे कुछ और हैं।

तन पर लंगोटी
न पेट को दो रोटी
मुंह तो छुपा लें
पर भूख भी बीमारी
कैसे-कैसे मुखौटे
कहां-कहां लगवाओगे
बैरन इस बीमारी के चेहरे कई और हैं..

घूंघट में नारी
आज़ादी थी प्यारी
बुरकों की सियासत
बराबरी और ख़िलाफ़त
देहरी में सिमटा
मुखौटे का चिमटा
‘परदे में ही रहना’ दुआओं का दौर है..

मिलती थीं बहुएं
रनवासे की ओट
करती थीं घूंघट से
नजरों की चोट
मुखौटे की कसी डोरियां
मुस्कान भी छुपाए
अधरों की अठखेलियां
कहीं नज़र नही आए
लिफाफे के अंदर जैसे मजमून खत का कुछ और है…

रात खड़ी थी इक औरत
सरे बाज़ार
भूख की बीमारी
रोज इज्जत तार-तार
शर्मो हया तेरी
तेरे सिर का दुपट्टा
बन गया कब से हया का मुखौटा
तुझको है लानत ! तेरी बे-हयाई कुछ और है…

मुखौटे का किस्सा
मिला सबको हिस्सा
बीमारों के नाम पर
किसी की कमाई
फ़िकर न सरम
हो रही जग हंसाई
मुंह तो छुपा भी लें
नज़र कैसे मिलाएंगे
मुखौटे के आड़ में क्या क्या छुपाएंगे
आपदा के मौसम में अवसरों का दौर है…..

बीमारी के नाम पर
तू ठगी भूखी जनता
कर्ज बेरोजगारी तेरी किसको है चिंता
घर बैठे ख़ाली
खुद ना बन सवाली
चार पैसे कमा ले
मुखौटे तू भी बना ले
आपदा नही है तेरे लिए अवसर अपने जेहन में बिठा ले
न बिक पाए बाज़ार में
चेहरे पर खुद चढ़ा ले
माना ‘मुखौटे’ ! तू महामारी से बचाएगा
भूख की रिपोर्ट भले पॉजिटिव आए
पर दावा है कि कोरोना निगेटिव ही आएगा
‘अंधों’ का यह ‘शहर’ जहां लालटेन बेचने का भी तो ठौर है..
मुखौटे इन दिनों तेरे जलवे कुछ और हैं।

 

आज बस इतना ही…!

 

                                              ( लेखक वरिष्ठ विडियो जर्नलिस्ट है )

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