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नया नहीं है राजनीति में बाजी पलटने का खेल

 

  (ब्रजेश राजपूत, मप्र हेड एबीपी न्यूज)

 

वैसे तो घर पर टीवी कम देखता हूं मगर शुक्रवार की रात में टीवी देखकर सोने से पहले फेसबुक और टविटर पर अपडेट डाला था कि महाराप्ट में अब सरकार का संकट सुलझा, पवार ने किया है इशारा उदृधव ठाकरे ही बनेगे मुख्यमंत्री। दिन भर टेलीविजन चैनलो पर राजनीति का अपडेट देने वाले मेहनती टीवी रिपोर्टरों को भी देर रात हिदायत दी गयी थी कि कल का दिन बहुत खास है इसलिये एनर्जी और हौसलों में कमी नहीं आनी चाहिये बस एक दिन की बात और है लगे रहिये। मुझे उम्मीद है कि टीवी रिपोर्टर भी थक हार कर जब सोये होंगे तब भी उनके दिमाग में यही समीकरण बन बिगड रहे होंगे कि उदृधव की कैबिनेट में कौन विधायक मंत्री बनेगा और दोनों सहयोगी दलों के कौन कौन से लोगों की लाटरी खुलेगी, कौन उनकी पहचान का मंत्री बनेगा जिससे उनको आसानी से इंटरव्यू उसी दिन मिल जायेगा। मगर ये सब आबले दिन उठकर अच्छे से तैयार भी नहीं हो पाये होंगे कि दफतर से फोन आने लगे होंगे ओर एक अविश्वनीय सी खबर बतायी जा रही होगी कि देखो देवेन्द्र फडनवीस ने राजभवन में मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली और तुम सो रहे हो। सच अजीब सी हालत होती है टीवी रिपोर्टर कल दिन भर भले ही आप एक पैर पर खडे रहे हों मगर अगले दिन फिर वही एनर्जी और अलर्टनेस आपसे उम्मीद की जाती है। मुंबई जैसे बडे शहर में कैसे सारे रिपोर्टर कहां कहां भागे होंगे क्योंकि तैयारी तो ठाकरे के सीएम बनने के हिसाब से की गयी होगी कैसे भीडभाड वाली मुंबई में ओवी वेन की जगह बदलवायी होगी सब कुछ सोच कर लगता है यही टेलीविजन रिपोर्टिंग का मजा ओर सजा है।
वैसे खबरों के मामले में पीछे तो अखबार भी रह गये। आज के सारे अखबारों में ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने की खबर पहले पेज की खास सुर्खी है मगर जब तक हम अखबार पढने की तैयारी में ही थे कि वहां मुंबई में राजभवन में खबर बदल चुकी थी। मुख्यमंत्री पद की शपथ विधि तो हुयी मगर उदधव ठाकरे की नहीं बल्कि देवेंद्र फडनवीस और अजीत पवार की। रात भर में बाजी पलट गयी चुकी थी। राजनीति अपना खेल कर चुकी थी। तीन पार्टियां सरकार बनाने के सपने ही देख रहीं थी ओर बीजेपी एनसीपी का अलग हुआ धडा राजभवन में जाकर सरकार बनाने का दावा कर शपथ भी ले चुका था। हमारे देश में राजनीति की अनिश्चितता का यही मजा है जो हम सोच नहीं पाते वो हो जाता है जिस पर जानकार लंबा ज्ञान देते और विश्लेपण करते हैं वो होता नहीं है। राजनीति संभावनाओं का खेल इसलिये ही नहीं कहा जाता कब कौन कहां किससे मिल जाये और मेल कर ले, राजनीति में पुराने गठबंधन तोड कर नये साथ के साथ जाने को आप भले ही धोखा कहें मगर जो कर रहा है वो इसे जनहित ओर जनता की आड मे करता है।
हमारे मध्यप्रदेश में भी ऐसा कई बार हुआ है कि विधायकों ने अपनी पार्टी, नेताओं और जनता को सकते में डालते हुये पाला बदला है। पार्टी बदलने की ये शुरूआत हुयी थी 1967 में जब कांग्रेस के दबंग और चाणक्य समझे जाने वाले मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा की सरकार थी और शिक्षा विभाग की अनुदान मांगों पर कांग्रेस के छत्तीस विधायकों ने विधानसभा में ही पार्टी बदल ली। इस पाला बदल के सूत्रधार थे गोविंद नारायण सिंह ओर उनको हवा दी थी जनसंघ की विजयाराजे सिंधिया ने। पाला बदलने के बाद कांग्रेस के ये बागी विधायक आज के दिनों की तरह ही कुछ दिन दिल्ली और मुंबइ घूमे थे ओर बाद मे जब गोविंदनारायण सिंह के नेतृत्व में संविद यानिकी संयुक्त विधायक दल की सरकार बनी तो उसमें सत्तारूढ पार्टी के विधायक मंत्री बने। हांलाकि ये संविद सरकार भी उन्नीस महीने ही चली थी। हाल के सालों में हमने पाला बदलने की कहानी जुलाई 2013 में देखी जब कांग्रेस के लाये अविश्वास प्रस्ताव पर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के भापण के दौरान ही कांग्रेस के व्हिप और वरिप्ठ एमएलए चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी ने पाला बदल लिया। पार्टी के खिलाफ स्टेंड लिया और सामने जी बेंच ओर जाकर बीजेपी का दामन थाम लिया। ये पाला बदल भी अप्रत्याशित तरीके से हुआ कहां कांग्रेस अविश्वास प्रस्ताव पर शिवराज सरकार को घेरने की कोशिश कर रही थी और उनके ही सीनियर लीडर ने पाला बदल लिया बस फिर क्या था एक तरफ रह गया अविश्वास प्रस्ताव और अजय सिंह की बहुत महंत से लिखा गया भाषण। अजय सिंह इस सदमे से लंबे समय तक नहीं उबर सके, बाद में चौधरी राकेश सिंह का क्या हुआ हम सबने देखा। इस बार के चुनाव में राकेश सिंह ओर अजय सिंह दोनों कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लडे और दोनों हारकर विधानसभा में नहीं पहुंच सके।
कुछ ऐसा ही पाला बदल कमलनाथ सरकार के दौरान इस साल भी हुआ जब विधानसभा में एक बिल के समर्थन में बीजेपी के दो विधायकों नारायण त्रिपाठी और शरद कोल ने कांग्रेस के साथ बिल के पक्ष में मतदान किया और बाद में मुख्यमंत्री के अगल बगल में बैठकर पत्रकार वार्ता कर कांग्रेस को समर्थन देने की बात कही। ये अलग बात है कि फिर इन विधायकों का मन बदल गया है और फिर ये अपनी पुरानी पार्टी के गुण गाने लगे हैं हांलाकि पाला बदल भी इन्होंने जनता के हित में किया था और अब वापसी भी जनता के कहने पर की है। इस भोलेपन पर कौन ना मर जाये खुदा।
खैर आज की ग्राउंड रिपोर्ट में ये सब लिखने का मकसद ये था कि राजनीति में जोर का झटका देने की परंपरा नयी नहीं है बडी बडी पार्टियों को ऐसे छोटे छोटे झटके लगते रहते हैं हालाँकि महाराप्ट की राजनीति में पिक्चर अभी बाकी है आने वाले दिनों मे कुछ और झटके लगने तय है।

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