एक गलती के कारण मेडम को समझौता करना पड़ा…
सरकार और प्राईवेट दफ्तरों में अपना सम्मान खो कर बदनामी का डर और परिवार चलाने की मजबूरी में कई महिलाएं काम कर रही हैं। जिनकी गलतियों का फायदा उठाने कुछ गिद्द हमेशा ताक में लगे रहते हैं। मजबूरी और बदनामी उन्हें मीटू नहीं कहने देती। आकाश माथूर की किताब मी टू की छटवीं कहानी बदनामी के डर से बदनाम.. में प्रशासनिक हल्को में महिला अधिकारियों को दैहिक शोषण को अजागर किया है और शोषित महिलाओं को दशा को समाज के समाने लाने की कोशिश की गई हैं। कहानी की समीक्षा वरिष्ठ पत्रकार शैलेश तिवारी ने की है। पहले आप समीक्षा पढें फिर कहानी और समझने की कोशिश कीजिए कि मजबूरी की मारी कोई महिला किस तरह बदनाम कर दी जाती है।
(कहानी समीक्षा) बदनामी के डर से बदनाम….
कितनी अजीब सी लगती है ये बात..। बदनामी के डर से बदनाम हो जाना..। जब बदनाम होना ही है तो उसके डर से क्यों हुआ जाए..? सवाल कौंधता है जेहन में..। मगर नहीं साहब..बदनामी के डर से बदनाम होना स्वीकार कर लिया..। क्या होगी मजबूरी..? कैसी होगी परिस्थिति..? गजब का असमंजस पैदा कर देता है..ये शीर्षक..अगर कहानी का हो तो..और उत्सुकुता..।
जी जनाब..है ये कहानी का ही शीर्षक..। जो आकाश माथुर की..कलम से जन्मी है…।
वैसे तो कहानी सीधी सपाट..किसी विधवा की मांग सी..आगे बढ़ती है..। बिना किसी अलंकार के भी…। सच कहा जाए तो बदसूरती पर..गहने फबते भी नहीं..। अपमान सा दिखता है उनका..। फिर विषय की गंभीरता का भी प्रश्न है..। उसे सीधे और सपाट लहजे में प्रस्तुत करना… लेखक को भाया..। पढ़ने से उकताहट तो नहीं होती..। दिलचस्पी बढ़ती है…। ये आकर्षण शीर्षक का है.।
शिक्षा व्यक्ति को संस्कारित करती है..ओहदा उसे प्रतिष्ठित करता है..। यही पशुओं से इतर हो जाना भी है…। लेकिन कहानी पढ़कर ये सारे प्रतिमान खंडित हो जाते हैं.। उनके भग्नावेश चीख चीख कर..मानवता के पशुता में बदल जाने की कहानी कहते हैं.। कहानी को झरोखों से झांके तो शायद..उक्त बातें अतिश्योक्ति होने की श्रेणि से..बाहर हो जाएं..। राजेश चाय वाला..डायवर्शन की फाइल..एस डी एम से पास कराने.. चार साल..चप्पल घिसता है..लेकिन साहब की बदली में आई मोहतरमा..अनामिका उसकी घिसी चप्पलों को मुस्कुराने का मौका देती हैं..बिना रिश्वत के..। उनका सम्मान बढ़ता है.. राजेश की नजर में..लेकिन एक गलती..उस हंसमुख महिला अधिकारी को…उदासी के अंधकार मे धकेल देती है..। वो रहस्य क्या है..यही कहानी पढ़ने का मजा है..पुरुष प्रधान समाज में नारी का नारित्व… सदा सर्वदा से..भोग की चाह रहा है..लेकिन इतना निर्लज्ज और नीचे जाकर..वो भी बॉस के द्वारा.. जो शिक्षित और ओहदेदार है..फिर अनपढ़..आवारा..मवाली टाइप के लोगों से उनकी भिन्नता कैसी..? जहाँ नारी खुद सक्षम अधिकारी होकर भी न कह पाए… #metoo…। इसी विडंवना को उजागर करती कहानी का आप भी पढिए और वो सब महसूस करने की कोशिश कीजिए जो इस कहानी में है…। फिर मिलेंगे..एक और नई कहानी के साथ…।
(कहानी) बदनामी के डर से बदनाम
आप सभ्य हैं, ईमानदार हैं और दलालों से दूरी चाहते हैं। तो घर बनाने का न सोचें और सोच रहे हैं तो नियमों का पालन करने की जहमत न उठाएं। नहीं तो राजस्व और नगर परिषद आपको इतने चक्कर लगवाएगी कि आप किराए के घर में ही जीवन निकालना बेहतर समझेंगे। चाहे पार्किंग न मिले, मकान मालिक चिकचिक भी करे, पर दफ्तरों के चक्कर तो नहीं लगाने पड़ेंगे। यही कारण है कि लोग दलालों के चक्कर में फंस जाते हैं। दलालों को दी जाने वाली दलाली के बराबर रुपए का जूता भी घीस जाता है। तो बेहतर है पैसा दलालों को ही दे दो। एक और विकल्प है बना बनाया घर लेलो। इससे भी सरल है किसी कॉलोनी में बना-बनाया कोठरी नुमा कमरों का एक घर खरीद लो। मैं जो आपको इतनी ज्ञान की बातें बता रहा हूँ। मैं अपना नाम तो बताना ही भूल गया। मैं राजेश जो राजगढ़ जिले की नरसिंहगढ़ तहसील से कुछ
दूरी पर रेस्टोरेंट चलाता हूं। तहसील में चाय मेरे यहाँ से ही जाती है। मुझे भी घर बनवाना था। बात नियमों की नहीं थी मैं इतना ईमानदार कहाँ, कि नियमों से चलूं, पर बात यह थी कि मुझे लोन लेना था और उसके लिए घर बनाने से पहले डायवर्सन कराना जरूरी था। प्लॉट का
डायवर्सन कराने के लिए 4 महीनों से तहसील के चक्कर काट रहा था। कुछ दलाल संपर्क में आए पर उन्होंने इतने पैसे मांगे कि मैं दे न सका या यूं कहें बचाना चाहता था। पैसे बचाने के चक्कर में 4 महीने तो परेशान हो चुका था, पर शायद मेरी किस्मत अच्छी थी, जो एसडीएम साहब मुझसे चक्कर लगवा रहे थे, उनका तबादला हो चुका था। उनकी जगह एक नई मेडम आईं थीं। जो जहाँ जाती अपने रंग और महक छोड़ जाती थीं। लोगों ने बताया कि मेडम बहुत ईमानदार हैं। उनके आने के 4 दिन बाद ही मैं अपनी फाइल लेकर उनके पास पहुँच गया।
लोगों ने सच ही कहा था, जिस काम के लिए मैं 4 महीने से चक्कर लगा रहा था। वह 4 दिन में हो गया और रिश्वत का एक रुपए भी नहीं लगा। यह कुछ बातें थीं, जिनके कारण मेरे मन में मेडम के लिए बहुत सम्मान था। ईमानदार, सदा मुस्कुराने वाली। खूबसूरत, अधकारी और आकर्षक पर घमंड नहीं। सबसे बड़ी बात यह थी कि सरकारी दफ्तरों में ऊँची कुर्सी पर बैठने वाले अफसर आम आदमी को आदमी ही नहीं समझते। बड़ी देर तक खड़े रखना, बदतमीजी से बात करना और चक्कर लगवाना, बताता था कि अफसर कितना बड़ा है। मेडम ने न तो बदतमीजी से बात की और आदमी को आदमी भी समझा। चक्कर भी कम ही लगाना पड़े। अब जब भी कहीं प्रशासनिक अधिकारियों की बात होती तो मैं मेडम की तारीफ जरूर करता।
यह तो मेडम का एक पक्ष ही था। जितना उनका स्वभाव अच्छा था उतनी ही सुन्दर थी वो। गजब का आकर्षण। वो हमेशा गहरे रंग के साधारण पर आकर्षक कपड़े पहनती थीं। कोई भी उनको देखकर यूं ही आकर्षित हो जाए और स्वभाव देखले तो उनका सम्मान करने लगे। सम्मान ही तो मैं भी करता हूँ। वो जिनकी बात हो रही है उनका नाम, नाम अनामिका रहने दें, तो बेहतर है। हांलाकि एक बात और है कि जिनकी सोच में गंदगी घर कर गई हो वो सम्मान से ज्यादा उन पर मोहित हो कर… आगे मैं कहना नहीं चाहता। कुछ बातों पर पर्दा ही अच्छा लगता है। मेडम को राजगढ़ की नरसिंहगढ़ तहसील में 8 महीने हो गए थे। इस दौरान मेडम को हर कोई जानता था। गलत काम करने वाले तहसील के आसपास तक नहीं दिखते थे और आम आदमी बेधड़क काम के लिए चला जाता।
लेकिन एक दिन मैने उनको देखा, वो उदास थीं। मैंने सोचा कोई पारिवारिक कारण होगा। मैं कुछ दिनों बाद फिर उनके कार्यालय गया, वो अब भी उदास थीं। उनकी जिंदादिली अब कहीं गुम सी हो गई थी। होठों की जो कोरें हमेशा तनी रहती थीं। दोनों होंठ जो कभी कभार ही मिलते थे। वो चिपक से गए थे। होठों की कोरें लटकी थीं। देख कर अच्छा नहीं लगा। अब जब भी मैं उनके ऑफिस जाता उनको ऐसा ही देखता। कई बार कोशिश की, उनके आस-पास रहने वाले लोगों से जानने की कि आखिर मामला क्या है? पर कोई
कुछ कहता नहीं। एक दिन मैं उनके कार्यालय गया। वहाँ के स्टाफ से चाय के पैसे लेने। स्टॉफ चाय दिन में तीन बार पीता था और रुपए महीने में एक बार, तीन चक्कर लगवाने के बाद देता था। जब मैं पैसे लेने पहुंचा, तो देखा वो सीट पर नहीं है। पूछा तो पता चला कि कलेक्टर साहब आए हैं। हमारे जिले के कलेक्टर शिवेंद्र सिंह दबंग और शातिर थे। मैंने दफ्तर के बाबू मोहन जी से पूछा साहब कहाँ हैं, तो उन्होंने बताया वो मेडम के घर गए हैं। जिज्ञासा थी घ्ार क्यों? मैं उस ओर गया। वहाँ मेडम के घर का दरवाजा लगा था और कलेक्टर की गाड़ी बाहर खड़ी थी। अब जिज्ञासा थी कि कोई अधिकारी कार्यालयीन समय में किसी अधिकारी के घर क्या कर रहा है? लोगों से चर्चा की तो कई बातें सामने आईं। किसी ने मेडम को चरित्रहीन कहा तो किसी ने कहा ये तो बड़े लोगों के लिए आम बात है, लेकिन मैं बहुत दुखी था। एक पात्र जो नायक की तरह था मेरे लिए उसकी छवि बिगड़ रही थी। लग रहा था कि राम को रावण की भूमिका में ला खड़ा किया किसी ने। सम्मान कम हो रहा था और जब लोग उनके बारे में बातें करते तो गुस्सा भी आता पर मैं क्या करता?
अब उनके बारे में इस तरह की बातें हर कोई करता। जब बातें बढ़ती गईं तो एक दिन उनके ड्राइवर के सामने ही कुछ लोगो ने उनके चरित्र को लेकर उंगलियां उठा दीं। उस समय मैं भी वहीं था। शायद उनका ड्राइवर भी उनकी बहुत इज्जत करता था। उसे बुरा लग रहा था कि मेडम के बारे में कोई इस तरह की बात क्यों कर रहा था? तेज स्वर में नाराजगी व्यक्त करते हुए वो बोला- तुमको नहीं मालूम कि हुआ क्या है?
वो कलेक्टर बहुत कमीना है, वो तो खुद को यहाँ का राजा समझता है। पता नहीं कितनी महिलाओं को झांसे में लेकर या दबाव बना कर उनके साथ सो चुका है। पर मेडम उसके दबाव में नहीं आई। कहती थीं जिल्लत की नौकरी करने से बेहतर घर पर बैठ जाना, पर एक गलती के कारण मेडम को समझौता करना पड़ा।
ड्राइवर ने बताया – याद है पीली मस्जिद रोड पर अतिक्रमण मुहीम चली थी। उस समय मेडम ने एक ऐसी दुकान को धराशाही कर दिया था, जिस पर कोर्ट का स्टे था। ऊपर से वह एक अल्पसंख्यक व्यक्ति की दुकान थी, वह व्यक्ति मेडम पर धार्मिक द्वेषता, भेदभाव और रिश्वत के लिए दबाव बानाने के आरोप लगा रहा था। यह बात तूल पकड़ लेती तो कोर्ट के चक्कर और बदनामी दोनों होती। इसी बदनामी के डर ने बदनाम कर दिया मेडम को।
मेडम इस सबसे बाहर नहीं निकल पा रही थीं। डर उन पर हावी होता जा रहा था और कलेक्टर इस समस्या से उन्हें बाहार निकाल सकता था, लेकिन वह उन पर दबाव बना रहा था। कलेक्टर कई बार पहले भी मेडम के साथ अवैध संबंध बनाने के लिए प्रयास कर चुका था और दवाब भी डालता था। कभी कहता निलंबित कर दूंगा, कभी कहता केस चलेगा, अदालत के चक्कर लगाना पड़ेंगे फिर समझ आएगा। मेडम की यह गलती कलेक्टर के लिए अवसर थी। जिसका फायदा उसने बखूबी उठाया और मेडम को समझौता करना पड़ा। अब कलेक्टर मनमर्जी करता है और वो कुछ नहीं कर सकती और न कह सकती हैं मीटू।
दफ्तरों में अपना सम्मान खो कर बदनामी का डर और परिवार चलाने की मजबूरी में कई महिलाएं काम कर रही हैं। जिनकी गलतियों का फायदा उठाने कुछ गिद्द हमेशा ताक में लगे रहते हैं। मजबूरी और बदनामी उन्हें मीटू नहीं कहने देती।
खैर, अब भी मेडम के लिए मेरे मन में उतना ही सम्मान बरकरार है।