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मजदूर दिवस विशेष : भाषणों से पेट नहीं भरता है साहब

 

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]विनीत दुबे[/mkd_highlight]

 

 

 

आजादी के पहले और आजादी के बाद भारत मेें मजदूरों की दशा में बहुत बदलाव आया है। वे अब गणितीय भाषा में प्रतिशत के हिस्से हो गए हैं बड़े बड़े जानकार बताते हैं कि इतने प्रतिशत मजदूर अमुक अमुक कार्यों में संलग्न हैं इनके लिए इतने प्रतिशत वेतन आदि की व्यवस्था होना चाहिए। वहीं दूसरी तरफ देश के नुमाइंदे भी मजदूरों की बेहतरी को लेकर जैसे रात रात भर जागकर विचार करते से प्रतीक होते हैं। उनके भाषणों में यदि आप मजदूरों की चिंता को ताड़ जाओ तो कलेजा मुंह तक आता हुआ दिखाई पड़ जाएगा। बस नहीं दिखता तो सिर्फ मजदूरों की जिन्दगी में उजाला।

हकीकत यह है कि मजदूरों की भूख और गरीबी दूर करने के लिए पिछले कई दशकों से सिर्फ भाषण ही परोसे जा रहे हैं और इन भाषणों से मजदूरों के पेट नहीं भरता है साहब…।

अजीब सी बात है कि भूलने की बीमारी सदियों से चली आ रही है और इस लाइलाज बीमारी के इलाज के लिए कोरोना वैक्सीन की तरह उपचार या वैक्सीन की खोज तत्परता के साथ नहीं की गई है। मेरा विश्वास है कि यदि भूलने की बीमारी का उपचार किया गया होता तो शायद इस देश में भुखमरी, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसी बीमारियां नहीं पनपतीं। यदि यह बीमारियां नहीं होती तो मजदूरों की दुर्दशा नहीं होती।

देश में जब भी सरकार चुनने का वक्त आता है तो नेता मंत्री सब के सब जोर जोर से कसम उठाकर मजदूरों की भलाई के लिए रात दिन एक कर देने की इतनी कसमें खाते हैं कि कसमें ही कम पड़ जाती हैं। फिर कुर्सी पाने के बाद वे भूलने की उस लाइलाज बीमारी का शिकार हो जाते हैं।

इधर मजदूर भी भूलने की बीमारी का शिकार है। वह भी भूल जाता है कि कोई हमारी बेहतरी का वादा करने के बाद भूल गया है। इस भूल भुलैया के मौसमों की आवाजाही में साल दर साल चुनाव आते हैं नेता कसम खाते और भूल जाते मजदूर भी भूल जाते। यह अब सनातन काल से चली आने वाली प्रथा हो गई है। अब न तो मजूदरों को बुरा लगता है और न ही नेताओं को शर्म आती है।

दूसरी तरफ मजदूरों के हक की लड़ाई सरकारों से लड़ने के लिए भी एक वर्ग है उस वर्ग की भी अपनी ही एक अलग दुनिया है। मजदूरों की पैरवी करने वाले अधिकांश रहनुमा कलफदार कुर्तों में आते हैं उनके पास अब चार पहियों वाली गाड़ियां आ गईं हैं। वे क्षेत्र के जनप्रतिनिधि का चुनाव तक जीत जाते हैं लेकिन हार जाता है तो सिर्फ मजदूर। मजेदार बात तो यह है कि मजदूरों की हक की लड़ाई लड़ने के लिए सबसे आगे झंडा उठाकर चलने वाले इन रहनुमाओं के जेबों में दो पर्चे रखे होते हैं।

पहला जो मजदूरों को पढ़कर सुनाया गया और हस्ताक्षर कराया गया तो दूसरा वह पर्चा जिसमें मजदूरों का सौदा किए जाने की शर्तंे होती हैं। असल में यह रहनुमा भी भूलने की बीमारी के ही शिकार हैं और सरकार को पर्चा देते समय भूल जाते हैं कि असल में पहला वाला पर्चा देना था। अपनी शर्तों पर मजदूरों को नीलाम करने के बाद यह इंकलाब जिन्दाबाद का ऐसे नारे लगवाते हैं मानों वे मन कर्म और वचन से सिर्फ मजदूरों के असली गांधी हों।

इन दिनों जब कोरोना संकट काल चल रहा है तब हमने सबने देखा कि देश के महानगरों में मजदूरी कर अपना और अपने परिवार के पेट वाले लाखों मजदूर कितने बेबस और लाचार हैं। इन मजदूरों के आस पास सरकार की कोई भी योजना फटक ही नहीं पाई है। सरकार की फाइलों में दर्ज मजदूरों की संख्या और उन्हें दी जाने वाली राहतों की असलियत सिर्फ फाइलों तक ही सिमट रही है और जमीनी हकीकत वही है जो आज दिखाई पड़ रही है। अब तक देश और प्रदेश की सरकारों ने मजदूरों के लिए जितनी भी योजनाएं चलाई हैं वे आज के संदर्भ में ढकोसला के अलावा कुछ ओर नहीं लगती हैं।

देश की राजधानी दिल्ली में करीब 10 लाख से अधिक मजदूर हैं और सरकार के रिकार्ड में सिर्फ 3 लाख ही दर्ज हैं। यही हाल मध्यप्रदेश, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के भी हैं। यानि वास्तविक मजदूरों की संख्या के मुकाबले सरकारों के पास सिर्फ 30 प्रतिशत ही मजदूरों के पंजीयन हैं। जब सरकार के पास वास्तविक आंकड़े ही नहीं हैं तो योजनाओं का लाभ दिलाए जाने की उम्मीद ही बेमानी है। हां मगर इन सब बातों के बीच हमारे रहनुमा आज भी रात दिन मजदूरों की चिंता कर रहे हैं।

हजारों मील भूखे प्यासे पैदल अपने घर जा रहे मजदूरों के साथ उनकी संवेदनाएं हैं। वे मजदूरों को उनके गांव पहंुचने के कुछ मील पहले तक व्यवस्था जुटाने का प्रयास कर रहे हैं। और हां यदि भूलने की बीमारी का शिकार हो गए तो। खैर देश के मेहनतकश मजदूरों आप सभी के कंधों पर ही देश की बागडोर है तो आप तैयार रहिए भाषणों के लिए। मगर साहब एक बात जरूर सुन लीजिए भाषणों से पेट नहीं भरता…।

 

 

(  लेखक मप्र के सीहोर जिले के ​वरिष्ठ पत्रकार है  )

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