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जिन्हें जुर्म ए इश्क़ पे नाज़ था..

 

(शालिनी रस्तोगी)

कुछ लेखक ऐसे होते हैं जिनकी किताबों का पाठक बेसब्री से इंतज़ार करते हैं| पंकज सुबीर उन्हीं चंद लेखकों में से हैं जिनकी हर किताब एक नया कथ्य लेकर सामने आती है, वो कुछ अनछुए पहलू, एक विशिष्ट कथानक के लिबास में सजा कर जब पाठकों के सामने पेश किए जाते हैं तो पाठक उनसे मंत्रमुग्ध हुए नहीं रह पाता। कहानियाँ हों, ग़ज़ल हो या उपन्यास, पंकज सुबीर का शैली वैशिष्ट्य सबमें अलग ही नज़र आता है। ‘अकाल में उत्सव’ और ‘ये वो सहर तो नहीं’ के बाद पंकज सुबीर अपने शिवना प्रकाशन से तीसरा उपन्यास ‘जिन्हें जुर्म ए इश्क़ पे नाज़ था’ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है| बहुप्रतीक्षित इस उपन्यास की प्रतीक्षा की घड़ियाँ आखिर समाप्त हो ही चुकी हैं और लगभग सभी ऑनलाइन स्टोर्स पर यह उपन्यास पाठकों के लिए उपलब्ध है|
आखिर ऐसा क्या है इस उपन्यास में – यह जानने की जिज्ञासा पाठकों के मन में निरंतर उठ रही है| यह उपन्यास उनकी करीब डेढ़ साल के शोध और फिर कई महीनों के लेखन के पश्चात् वजूद में आया है| अनेक तथ्यों, किताबो, सरकारी गजट्स के साक्ष्यों की रौशनी में सांप्रदायिक ताकतों द्वारा साम्प्रदायिकता का ज़हर फैलाकर प्रेम का सन्देश देने वालों को नेस्तनाबूद कर देने की नाकाम कोशिशों को बड़े करीने से कथ्य में बाँधकर परोसा गया है।
प्रेम – एक ऐसा शब्द जिसमें इस सृष्टि का सार समाया हुआ है| प्रेम कोई संकीर्ण सीमाओं या परिभाषाओं में बंधी चीज़ नहीं है. प्रेम तो अपरिभाषित, असीमित और अपरिमित है| और यही प्रेम ‘जिन्हें जुर्म ए इश्क़ पे नाज़ था’ का मूल कथ्य है। करीब 280 पृष्ठों में 5000 से भी अधिक पहले का इतिहास संजोए यह उपन्यास इस देश के सामजिक ताने-बाने के धार्मिक आधार को भी सम्मुख रखता है। सांप्रदायिक ताकतें हमेशा से ही प्रेम के खिलाफ रही हैं और हर संभव तरीके से प्रेम का सन्देश देने वालों की पुरजोर ख़िलाफ़त करती रहीं हैं। धर्म के उन्मादियों द्वारा प्रेम का वज़ूद मिटाने की कोशिशों के बाद भी क्या प्रेम मिट पाया है? उन्होंने जिस्मों को सजाएँ दीं पर प्रेम की खुश्बू को फैलने से वे नहीं रोक पाए। और आज भी यह प्रेम मिटा नहीं है। प्रेम के इसी अहसास को जगाता है यह उपन्यास। दिलों से साम्प्रदायिकता के मैल को मिटाकर उसे इश्क़ की ताजातरीन खुश्बू से महकाने के लिए आ रहा है –‘ मैंने तो अपनी प्रति आर्डर कर दी है, आप कब कर रहे हैं??’।

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