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जबलपुर का भूकंप और कोरोना का क्वेरेंटाइन : पत्रकारिता केवल सर्टिफिकेट और नौकरी से नही अंदर के जुनून से आती है

 

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]होमेन्द्र देशमुख[/mkd_highlight]

 

 

 

एक कहावत है “जब गीदड़ की मौत आती है तब वह शहर की तरफ दौड़ लगा देता है”..!

मतलब गीदड़ के मन मे शेर के प्रति खौफ से है । जंगल मे जहां गीदड़ों का एक बड़ा झुंड रहता था ,वहीं खतरनाक शेर तेंदुए चीते और दूसरे बड़े जानवर भी थे । पर गीदड़ों को उनसे हमेशा डर लगता कि किसी दिन ये हमें निवाला न बना डालें , जबकि उन बड़े जानवरों की इनके शिकार करने में कोई दिलचस्पी ही नही थी । एक दिन गीदड़ के झुंड ने देखा कि कुछ चीते एक हिरण का पीछा करते उन्ही की ओर दौड़े आ रहे , और डर के मारे सारे गीदड़ यहां वहां ऐसे भागे की कुछ जंगल के बाहर आकर मानव आबादी में छुपने की कोशिश करने लगे । मानव ने इसमे अपना खतरा देखा और शहर की ओर आते कई गीदड़ों को मार डाला ।
ये मुहावरा सिखाता है कि नाहक डर से बचने हम अक्सर कई गलतियां कर अपने आप को उससे भी बड़ी मुसीबत में डाल लेते हैं । इसलिए धैर्य और दिमाग को कूल कर ऐसी परिस्थितियों से बचा जा सकता है ।

पाकिस्तान सीमा से लगी लोंगोवाला पोस्ट की कहानी पर बनी सैनिक और उसके देशभक्ति के जज्बे पर आधारित जेपी दत्ता की फिल्म बॉर्डर फ़िल्म में युद्ध के मैदान पर डटी सेना की टुकड़ी के एक सैनिक को घर से मां की तबीयत का तार मिलता है और वह उस पोस्ट और रणभूमि को छोड़कर छुट्टी में घर लौटने की खुशी मनाने लगता है । तब उसे याद दिलाया जाता है कि जब कोई योद्धा को अपनी धरती ,अपनी भारत मां की रक्षा करने युद्धभूमि पर वह काम करने का मौका आता है जिसके लिए उसे तैयार किया गया है या जिस जज़्बे के कारण वह सेना में आया है तब ऐसे समय मे अपनी स्वयं की जननी या निजी जज़्बात या परिवार के प्रति कर्तव्य ही क्यों न हो , क्या, देश से जुड़े उसके बड़े कर्तव्य के सामने उसके कोई मायने रखना चाहिए । बड़ा बुरा भी लगता है कि अपनी माता, परिवार अपने उनके प्रति फर्ज के क्या कोई मायने नही..!
लेकिन सैनिक छूट्टी का वारंट फेंककर वापस रणभूमि पर लौट जाता है ,चाहे उसे यहीं शहीद क्यों न होना पड़े ..

यूं तो राष्ट्र पर आई आपदा के समय किसी भी देश के नागरिकों को वारियर्स की तरह अनिवार्य भूमिका निभानी पड़ सकती है । हर व्यक्ति उस राष्ट्र की पूंजी होता है । पश्चिमी देशों में तो वहां के हर नागरिक को बकायदा सेना का प्रशिक्षण और अनिवार्य सर्विस देने का प्रावधान है । भारत मे अभी तक ऐसे मौके नही आए हैं लेकिन राष्ट्र के हित मे सरकार , अपने नागरिकों के निजी मालिकाना हक की एक एक इंच भूमि मकान,प्लाट ,कृषि भूमि, फ्लैट, संयंत्र और वाहन तक का अधिग्रहण उसे ले सकती है । जिसकी रजिस्ट्री है तो आपके नाम लेकिन अंततः वह राष्ट्र की ही सम्पत्ति है । उसी तरह हर नागरिक और उसके श्रम को अनिवार्य सेवा में उन आपात परिस्थितियों में भी ले सकती है । हालांकि यह अनुमान भी है कि विशाल सरकारी अमलों वाले देशों में ऐसे मौके शायद ही आए । हर शासकीय सेवक किसी 10 से 5 बजे की ड्यूटी का बंधनकारी नियम का दावा नही कर सकता , वह समर्पित राष्ट्र सेवक है । हालांकि यह स्पिरिट कई सरकारी सेवकों में बहुत कम देखने को मिलता है । पर समय आने पर आपात वॉरियर्स उन्हें भी भी बनाया जा सकता है ।

कोरोना के इस आपात संकट काल मे प्रसाशन के वरिष्ठतम पद पुलिस , फायर ब्रिगेड , चिकित्सक सेवा, राहत कर्मी, रेल्वे ,स्वच्छता कर्मी सहित विशेष आपात सेवा में लगाए गए सरकारी निजी और स्वयं सेवा के तहत आपात सेवा में लगे कर्मियों के साथ-साथ पत्रकार भी एक वॉरियर यानि योद्धा ही है । ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे संवाददाता ही नही उनके साथ खतरों के बीच जा जा कर फोटोजर्नलिस्ट विडियोजर्नलिस्ट ,ओबी टीम और उनके ड्राइवर्स भी हैं जो अपने घर के लोगों से दूर दूर रह कर अपना काम और फ़र्ज़ को इस कोरोना काल मे बखूबी निभा रहा है ।

तीन दिन पहले कोरोना से जंग जीतकर लौटे भोपाल के पत्रकार जुगल शर्मा एक उदाहरण हैं । सतर्कता जरूरी है ,लेकिन सब डर के मारे या कोई और काम के ऐसे मौके पर कैसे घर बैठ सकता है । जब तक कि उसे आधिकारिक रूप से मना न किया गया हो । जुगल शर्मा ने काम और चुनौतियों के दौरान अपने आप को परिवार से अलग रखा ताकि उन सब को कोरोना फैलने का खतरा न्यूनतम हो । उनकी सतर्कता और बचाव के प्रोटोकॉल ने बाकी पूरे परिवार को कोरोना पॉजीटिव होने से बचा लिया ।

मप्र में कोरोना के शरुआती दिनों में राजनैतिक घटनाक्रम देश भर के समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों की सुर्खियों में पहले नम्बर पर थीं । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की टीम का सदस्य होने के नाते पिछले तीन मार्च से हमारे आने जाने खाने पीने सोने जागने का कोई निश्चित समय नही था । साथ मे कोरोना की सावधानियां सो अलग मानसिक दबाव दे रही थी । 22 मार्च को भोपाल में एक पत्रकार के परिवार और बाद में स्वयं पत्रकार के कोरोना पाज़िटिव होने के कारण मुझे भी आधिकारिक रूप से 14 दिन के लिए अनिवार्य क्वेरेंटाइन में घर के कमरे में दुबकना पड़ा । वे कुछ दिन सही लेकिन ऐसा समय जब मेरे पेशे को मेरी जरूरत थी और मैं कमरे में कैद था । बाहें फड़फड़ा रही थीं और मन मे छटपटाहट थी । युद्ध छिड़ा था और योद्धा , बार्डर फ़िल्म के उस सैनिक की भांति रणभूमि छोड़कर ऐसी छुट्टी का जश्न और आराम कैसे मना सकता था । बड़ी मुश्किल से वे चौदह दिन निकले और हम कोरोना युद्ध के मैदान में फिर निकल पड़े ।

मैं छोटे छोटे दो और उदाहरण देकर बताना चाहता हूं कि कैसे हमारी नादानी या लापरवाही कभी कभी हमे ही खतरों में डाल सकती है । फिर हम न गीदड़ रह पाते हैं और न योद्धा ।

इसका कोई निश्चित पैमाना नही हो सकता । यह बहुत डिफरेंट लेकिन रोचक विषय है । हर इंसान के साथ अलग अलग परिस्थितियों वश ऐसी घटना हो ही जाती है और आम तौर पर हम अपने सामान्य स्वभाववश कुछ ऐसा कर कर जाते हैं कि बाद में हमे अपने उन कृत्यों पर कभी हंसी आती है तो कभी पछतावा भी होता है । और तो और ऐसी आदतें या परिस्थितिजन्य अप्रत्याशित व्यवहार से हम अपनी जान खो सकते है। बच गए तो स्मार्ट और मर गए तो दूसरे स्मार्ट जिन्होंने ऐसा नही किया ।

पिछले साल 2019 की घटना आपको शायद याद हो , रूस में हुए विमान में आग की घटना में ऐसा ही हुआ । हवा में ही उस विमान में आग लगने के बाद पायलट ने उस जलते विमान को सुरक्षित लैंड भी करा लिया । एयर होस्टेस ने सबको इमेरजेंसी एग्जिट कराया । उतरने का मौका मिला लेकिन कुछ लोग अपने सीटों के ऊपर रखे अपने हैंड बैगेज को निकालने के चक्कर मे एयरहोस्टेस के निर्देश को नही माना । जो लोग बिना समान के कूदे वो बच गए लेकिन कुछ लोग ऐसी आपात समय मे अपने सामान को ढूंढते रह गए । इसी बीच , 73 यात्री और 5 क्रू मेम्बर से लदे इस सुखोई जेट विमान में ब्लास्ट हो गया और उस ब्लास्ट के साथ ही चीथड़े बन उड़ गए और 41 की मौत हो गई ।

यह टेंडेंसी अजूबा नही है हर इंसान में इस तरह की आदतें होती हैं , “अगर सफल हो गए तो हम हंसे और कहीं विफल हुए तो जग हंसे । ” मेरे साथ भी ऐसा होते रहता है,आखिर मैं भी इंसान ही हूं लेकिन एक बार तो हद ही हो गई ।

22 मई 1997 को सुबह 4 बजकर 27 पर जबलपुर का वह भीषण भूकंप आया था । इत्तफाक की बात है कि उस भूकंप में भी 41 लोगों की जान गई थी । उस रात हम जबलपुर के ही नेपियर टाउन के संगल बंगलो (Bunglow) में रात 12 बजे तक सुराग नाम के टीवी धारावाहिक की शूटिंग खत्म कर,रात कूलर चलाकर उसी बंगले के एक कमरे में सो रहे थे । रात के अंतिम प्रहर में घड़घडाहट की आवाज के साथ हम 5 लोगों में मेरी नींद टूटी । मैंने चिल्लाकर सब को जगाया । दरवाजा फड़फड़ा कर खुल गया था । सामने एम्पायर सिनेमा से कैंट की ओर आता हाइवे था जिस पर चल रहे ट्रक के हेडलाइट मुझे जम्प करते से लग रहे थे । मैंने सबको बाहर आने के लिए चिल्लाया । सब निकल कर खुले में आये और सामने नींबू अनार के बगीचे में घुस गए ।
मुझे याद आया कि कुछ दिन पहले ही लिया मेरा नया लेदर शू रात सोने से पहले मैंने कूलर के ऊपर रख दिया था । कुछ सोचा ही नही ,बस उस पुराने बंगले के उसी जीर्ण कमरे में भूकंप के थरथराहट से जूझते ,अपना जूता वापस लाने फिर घुस गया । जूता कूलर के ऊपर से गायब था । भूकंप में कूलर के हिलने से जमीन और नीचे बिछे बिस्तर पर पानी फैल रहा था । वहीं मेरा जूता भी कहीं गिर गया था । पहले बिस्तर को भीगने से बचाया और मैं कूलर के नीचे अपना जूता ढूंढने लगा । अंततः मेरे दोनो जूते लेकर ही वापस कमरे से बाहर निकला ।

तब तक बगीचे की ओर भागे मेरे साथी झाड़ से टकराकर हल्के चोटिल हो चुके थे । मैं बाहर निकला अभी भी हल्के कंपन जारी थे ,और फिर लगा कि आज तो अब मेरी ओर एकाद ट्रक ही घुसेगा ।
जब कंपन शांत हुआ तब तक भी पता नही चला कि हमारे साथ यह क्या हुआ था । भूकंप क्या होता है, हम जानते नही थे तो अंदाजा ही नही था । बिजली के खम्बों में चिंगारियों के बाद अंधेरा छा गया ।
पर मन मे सुकून था कि हमारा प्यारा जूता हमारे हाथ मे है….

मैं तब न्यूज़ के अलावा फिक्शन और धारावाहिक का भी वीडियो ग्राफर था । और उस दिन वीडियो रिकार्डिस्ट की भूमिका में था । मैं जिस संस्थान का प्रतिनिधि था उनके पास न्यूज कलेक्शन और कवरेज का काम भी हमे करना होता था । एक दो घण्टे बाद समझ मे आया कि ये जो धरती हिली थी इसलिए मैं भी हिला था और इसे ही भूकंप कहते हैं । तब तो यह बड़ी घटना थी ।
मेरे अंदर का पत्रकार जागा और क्योंकि मैं जबलपुर शहर के प्रभावित इलाकों से अनभिज्ञ था इसलिए आनन फानन में एक ऑटो रोक उसमे बिजली से चलने वाला भारी भरकम कैमरा इक्विपमेंट लोड कर एक सहयोगी के साथ सीधे वहां के जिला अस्पताल पहुँच गया ।
सरकारी इमरजेंसी चिकित्सा कक्ष के टूटे फूटे बिजली बोर्ड से बिजली का कनेक्शन लेकर , वहां सिर पर टांके लगाते मेडिकल स्टाफ, धूल से सने मरीजों को लाते और छोड़कर फिर वापस भूकंप प्रभावित क्षेत्र की ओर निकलते तीन चार एम्बुलेन्स , चीखते चिल्लाते लोग , मर्च्युरी मे तब तक रख दिये गए सात लाशों के विजुअल्स सहित एक घायल के परिजन और ड्यूटी डॉक्टर का इंटरव्यू आदि रिकॉर्ड कर जल्दी जल्दी मैं जबलपुर बस स्टैंड की तरफ भागा और भोपाल दूरदर्शन केंद्र तक पहुचाने के लिए वह कैसेट मैं वहाँ से भोपाल जाने वाली बस में रखवा आया ।

मैं ये कुछ कहानी और उदाहरण सुना कर न तो यह सिद्ध करना चाहता हूं कि घर बैठने या रणभूमि से भागने वाला गीदड़ होता है और न ही यह साबित करना चाहता हूं कि जानबूझकर जोखिम में घुसने वाला योद्धा होता है ।
हमारी बिना समझदारी के अति डर हमे गीदड़ की कहावत की तरह खतरे में डाल सकती है तो पत्रकार जुगल शर्मा की तरह, जरा सी सतर्कता से हम अपने और परिवार को बड़े जोखिम से दूर रख अपनी भूमिका समाज के प्रति निभा सकते हैं ,और बेशक निभाने की कोशिशें भी करते रहते हैं ।

पत्रकारिता एक ऐसा ही क्षेत्र है, जिसमे स्व-वैयक्तिक क्षमता और आत्म- नियम की सीमाएं लिखीं नही जा सकतीं । पत्रकारिता , फैशन का नही पैशन का पेशा है । पत्रकारिता एक सोच है एक मिशन है जो सर्टिफिकेट और नौकरी से नही जुनून से आता है , और यह जुनून आमतौर पर आंका और मापा नही जा सकता…

 

आज बस इतना ही…!

 

 

 

                                                                 ( लेखक वरिष्ठ विडियो जर्नलिस्ट है )

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