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कोरोना के दौर में खेतिहर मजदूर की महत्ता

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red “]संजीव कुमार भूकेश[/mkd_highlight]

 

 

इस वक्त पूरी दुनिया कोविड -19 महामारी का सामना कर रही है । विकसित, विकासशील और गरीब देश कोई भी इससे अछूता नहीं है! समाज के सभी वर्ग, जाति, धर्म, समुदाय के लोग इसकी चपेट में हैं । जहां एक ओर हम सब अलग-अलग अपने घरों में आइसोलेशन में हैं, वहीं दूसरी ओर देश का गरीब दिहाड़ी मजदूर, खेतिहर मजदूर कोरोना के साथ-साथ भुखमरी का सामना कर रहा है । यह महामारी सभी को एकजुट होकर इसका सामना करने का संदेश दे रही है।

पर्यावरण की शुद्धता का पाठ पढ़ा रही है । साफ सफाई का महत्व समझा रही है । उपभोक्तावाद, भौतिकतावाद की अतिवादी सोच से परहेज को कह रही है, लेकिन कमोवेश सभी का ध्यान कोरोना के संक्रमण से बचाव, प्रभावित लोगों का ठीक हो जाना और सबको भोजन उपलब्ध होने की ओर सबसे ज्यादा है । संक्रमित हो या घर में सुरक्षित बैठे लोग हो, भोजन की आवश्यकता सर्वोच्च प्राथमिकता है ।

 

उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग का प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव कर रहा है कि एसी,कूलर,फैन, फर्नीचर के बिना रह लेंगे । लेकिन बस भोजन खत्म ना हो, यही कारण है कि सरकार ने राशन की दुकानों और सब्जी की दुकानों को दिन के कुछ घंटों के लिए खुला रहने की अनुमति दी है, कुछ सुरक्षा के नियमों का पालन करने के साथ! अतः भोजन के उत्पादन से लेकर उपभोक्ता तक की सप्लाई चेन में सभी का महत्व यहां दृष्टिगत होता है, किंतु सबसे ज्यादा ध्यान शुरुआती बिंदु यानी कि उस खेतिहर मजदूर की तरफ जाता है जो खेत में बीज बोता है, निराई गुड़ाई करता है, खरपतवार दूर करता है, पानी लगाता है फसल बड़े होने के साथ सभी तरह का रखरखाव करता है, फसल तैयार होने पर उसे काटता है, फसल से खाद्यान्न अलग करता है, भूसा सुनियोजित जगह पहुंचाता है।

 

इस प्रक्रिया में सर्दी, गर्मी, धूप, छांव की शिकायत उसके लिए बेमानी होता है। अंततः अन्न हमारे घरों तक और फिर उदर तक पहुंचता है । यहां सोचनीय बात यह है कि क्या हम उस खेतिहर मजदूर की उसके श्रम के अनुरूप परवाह करते हैं? क्या हम उसके प्रति अब भी संवेदनशीलता नहीं दिखाएंगे? यदि सरकार किसान की आमदनी दोगुनी करने की बात करती है, जो कि अभी तक संभव हो नहीं पाया, लेकिन अगर होता भी है तो क्या इसका लाभ कभी उस खेतिहर मजदूर तक पहुंचता है या केवल जमींदार तक? आज उच्च और मध्यम वर्ग हर कोई 6 महीने का राशन का भंडारण अपने घरों में कर लेना चाहता है, लेकिन जो वास्तव में पैदा कर रहा है वही भूख से दम तोड़ रहा है।

 

बाकी के दिहाड़ी मजदूरों का हाल भी कमोबेश ऐसा ही है । सरकारी राहत और पैकेज मजदूरों के एक बड़े भाग के लिए आज भी स्वप्न है और राजीव गांधी के दौर में भी सपने थे जब उन्होंने कहा था कि सरकार के एक रुपए में से 15 पैसे ही अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक पहुंच पाते हैं । कौन जिम्मेदार है इस व्यवस्था का? सरकार, जमींदार, मंडी समितियां, व्यापारी, सप्लायर या उपभोक्ता या मालिक! सब किसी पर भी जिम्मेदारी डाल कर पल्ला झाड़ सकते हैं । लेकिन हार उस खेतिहर मजदूर की ही हो रही है।
समाधान – कोरोना दौर में हम सबको यह सीख है कि अंतिम पंक्ति के खेतिहर मजदूर के टपकते हुए पसीने, सूखते हुए रक्त और कंकाल होते हुए शरीर का ऋण चुकाए ।

 

हम सभी उसके गुनहगार हैं। आज कोरोना काल में आपको रोटी के एक-एक टुकड़े का महत्व समझ आ रहा है तो क्या उस खेतिहर मजदूर का महत्व समझ नहीं आ रहा? किसी एक पर जिम्मेदारी ना डालकर सामूहिक जिम्मेदारी लें और उसके श्रम का उचित मूल्य दिलाने का सामूहिक और सफल प्रयास करें ।

राजनेता, ब्यूरोक्रेसी, न्यायपालिका, मीडिया, कॉर्पोरेट और देश के प्रत्येक नागरिक का ध्यान खेतिहर मजदूर ने अपनी ओर खींचा है और वह सिर्फ इतनी सी गुहार लगा रहा है, कि उसे भूखा मत मरने दो । सिर्फ इतनी सी सामाजिक सुरक्षा चाहता है । पेंशन और रिटायरमेंट लाभ जैसी सामाजिक सुरक्षा से तो उसका दूर-दूर तक परिचय नहीं है और विलासिता पूर्ण जीवन उसकी चाहत में शामिल नहीं ।

 

 

                                                                                                                     ( लेखक रिसर्च स्कॉलर, एनआईटी भोपाल  हैं)

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