कसम राम की खाते हैं – मंदिर वहीं बनाएंगे… अब बन रहा है राम मंदिर
[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]होमेंद्र देशमुख[/mkd_highlight]
तीन विशाल गुम्बद जिस टीले पर खड़े थे ,उसी टीले पर नीम का एक पुराना पेड़ था । सुबह साढ़े 10 बजे तक उत्तर की ओर से पहले गुम्बद से लग कर खड़े नीम के इस विशाल वृक्ष के किसी पत्ते को देख पाना भी मुश्किल हो रहा था । फलों से लदे किसी फलदार पेड़ या बंदरों के विशाल टोली की तरह पूरे वृक्ष पर केवल मानव के सिर ही सिर नजर आ रहे थे । अधिकतर सिर पर बंधे भगवा कपड़े उस पेड़ पर गुलमोहर के फूल जैसे खिले थे । बंदरों जैसे उछल कूद की तो गुंजाइश ही नही थी लेकिन सारे सिर और पेड़ के तने को घेरे हजारों लोग बस , एक ही नारा लगा रहे थे – जय श्री राम -जय श्री राम !
पंजाब की ओर से आए दस बारह उत्साही जवान नीम के एक बड़े डंगाल के छोर पर पहुंचे और सीधे परकोटा लांघकर गुम्बद पर कूद गए । कूदना उनकी मजबूरी थी क्योंकि वो न कूदते तो वह डंगाल ही टूटने वाला ही था जिस पर वह अब तक टिके थे । उनके हाथों में तुरंत बाकी लोगों ने कुछ देशी तात्कालिक मिले पथरीले औजार ,कांच के बोतल , बैरिकेटिंग के टूटे पाइप फेंक फेंक कर देते रहे और इस उत्तरी गुम्बद के घेरे पर बनी जालीनुमा ढांचे को कुरेदना शरू हो गया । पेड़ के नीचे जमा लोग हर डाल पर टंगे लोगों को जल्दी दूसरे गुम्बदों पर कब्जा करने, कूद जाने को जोश जगा रहे थे । थोड़ी ही दूर से माइक से भी जोशीले भाषण इस अनियंत्रित झुंड को और जोश दिलवा रहे थे । इधर उसी पेड़ पर चढ़ने के तैयार तने को घेरे खड़े बाकी हजारों लोग भी किसी तरह ऊपर चढ़ना चाह रहे थे । वो लगातार पेड़ पर चढ़े लोगों को आगे बढ़ने को कह रहे थे । थोड़ी ही देर में उसी पेड़ और टीले पर खड़ी दीवार के सहारे तीनो गुम्बदों पर लगभग तीन सौ कार सेवक चढ़ चुके थे । उन्मादी नारे और शोर के बीच वह विशाल नीम का पेड़ धराशायी होता गया । जितने उसके पत्ते नही थे उसकी शाखाओं पर चढ़ने की कोशिश उतने लोग जो कर रहे थे ।
नीम के एक-एक डंगाल के साथ कई लोग ,नीचे जमे लोगों के सिरों पर गिरने लगे । कुछ दबते कुछ गिरते कई -कई घायल होते गए । कानून व्यवस्था में लगे सारे एम्बुलेंस इन घायलों को लगातार अस्पताल ले जाते रहे । लगभग डेढ़ घण्टे में पूरा का पूरा वह नीम का पेड़ टूट कर जमीन पर लेट गया और अपनी पीठ के सहारे कई लोगों को गुंबद के बाहरी परकोटे पर फिर चढ़ा दिया ।
जोश से भरे नारे ,नेताओं के भाषण , हाथ में आये पत्थर के औजार के रूप में इस्तेमाल करती । भीड़ ने एक बजे के करीब उत्तरी छोर स्थित यह पहला गुम्बद गिरा दिया । तब तक ,दूसरा और विशाल मुख्य गुम्बद आधा टूट चुका था । इसी बीच तीसरा और अंतिम गुम्बद भी भीड़ के निशाने पर आ चुका था । भीड़ और परकोटे की दीवार से दब कर हताहत हो रहे लोगों के कारण लगातार राम चबूतरा के पास लगे माइक से गुम्बद से दूर रहने की अपीलें शायद भीड़ या तो सुन नही रही थी या फिर सुनना नही चाह रही थी । दोपहर ढाई बजे वह मुख्य गुम्बद भी जमींदोज हो गया । अब तक जोशीले उद्बोधन से भीड़ का जोश उफान पर था लेकिन मंच के नेता थोड़ा पशोपेश में थे । मंच से कुछ अपीलें भी हुई कि कानून के खिलाफ काम नही करें ,ढांचा से दूर रहें । अब भीड़ उनकी भी नही सुन रही थी । बहुत बड़ी घटना हो रही थी ,कोई किसी के नियंत्रण में नही था । मंच पर से भीड़ भी थोड़ी छटने लगी । अब तो तीसरे गुम्बद को भी टूटने से बचा लेना किसी के बस में नही था । भीड़ किसी की नही सुनने वाली थी । और शाम साढ़े तीन बजे तीसरा गुम्बद भी धराशायी हो गया । उन ढांचों के साथ ही धराशायी हो गया , इतिहास,वजूद,अस्तित्व का.!
और खड़ा हो गया एक नए इतिहास का नींव , एक और नए विवाद का नींव ।
उन ढांचों के बाद टीलानुमा चबूतरा भी साबुत नही बचा । कहा जाता है कि भीड़ के ढांचे पर हमले के बीच मुख्य गुम्बद के टूटने के पहले दोपहर में ही तीसरे गुम्बद के नीचे रखी हुई मूर्ति सुरक्षित निकाल ली गई थी ।
गिरते जा रहे ढांचे के मलबे से ,भीड़ एक एक ,आधा- आधा ईंट , जिसके हाथ जो लगे , ले – लेकर चलते बनी थी । वो अब किसी की नही सुनने वाले थे ।
छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के एक गांव के श्यामलाल सहित कुछ नौजवान 30 नवंबर 1992 शाम को किसी नेता के बुलावे पर राजनांदगांव रेलवे स्टेशन पहुँचे थे । अयोध्या की तरफ जाने वाले ट्रेनों में कई गांवों से आने वाले ऐसे ही लोगों की भीड़ थी । अयोध्या में अब कारसेवकों की तादाद बहुत आ चुकी थी और अब सीमाएं सील कर दी गई थीं । 2 दिसंबर दोपहर तक अयोध्या पहुँचे इन लोगों को किसी तरह छुपते छुपाते , शहर में एंट्री मिल गई । देश भर के अलग अलग क्षेत्रों से आने वाले लोगों के लिए अलग अलग निर्धारित आश्रमो, सरायों ,सार्वजनिक ईमारतों में सहित शामियाने वाले मैदानों में जिसे कारसेवक पुरम बताया जाता था ,यहां भी ठहरने का प्रबंध था ।
श्यामलाल अपने साथियों के साथ तीन दिन रोज सरयू में स्नान करता और अयोध्या के धार्मिक स्थान घूमता । पांच दिसम्बर को बहुत लंबी कतार और इंतजार के बाद बाबरी ढांचे पर रखे राम लला की मूर्ति का भी दर्शन कर लिया । दक्षिण की ओर स्थित तीसरे गुम्बद के लगभग नीचे एक कमरे में लोहे के भारी सलाखों के बीच रखे या कैद मूर्ति को श्यामलाल के अलावा हजारों लोगों ने भी देखा । इसके लिए कोई सरकारी मनाही नही थी ,पूजा और निर्माण जरूर निषेध था , सो बड़ी भीड़ के साथ श्यामलाल भी दर्शन और प्रणाम कर वापस निकल आए ।
छः दिसंबर 1992 को हिन्दू संगठनों ने देश भर से अपने संगठनों और जनता को राम मंदिर निर्माण के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होने अयोध्या बुलाया था । कार्यक्रम था ।विवादित स्थल के आसपास गड्ढों को सरयू के रेत से भरना ।
शहर में पिछले कई दिनों से हर तरफ भीड़ बढ़ते जा रही थी । एक दिसंबर से ही बाहर से आने वाली जनता को शहर में घुसने से रोकना शुरू कर दिया था । पास के स्टेशनों और शहर में भी गाड़ियां रोक कर लोगों को उतारा जा रहा था । प्रसाशन सकते में आते जा रही थी । हिंदूवादी नेता भीड़ देख फूले नही समा रहे थे । जो पहुँच गए थे उनको संगठनों द्वारा बकायदा नाश्ते और खाने की व्यवस्था की जा रही थी । पुलिस बल लगातार बढ़ाया जा रहा था । शहर के कई सड़कों पर बैरिकेटिंग कर भीड़ को नियंत्रित और डायवर्ट किया जा रहा था । पुलिस वहां पहुँच चुके लोगों के प्रति बहुत शख्त तो नही दिखती थी , लेकिन जय श्री राम का सवाल और जवाब मिलते ही भीड़ और पुलिस दोनों एक अघोषित सहमति से अयोध्या की गलियों में निश्चिंत घूम रहे थे । 5 दिसंबर तक लगभग एक लाख पुलिस के जवान सड़कों और सुरक्षा पर आ चुके थे । लगभग वहां के मुश्लिम नागरिक भी अप्रत्यक्ष रूप से कई व्यवस्थाओं में शामिल थे । वहीं बैरियर रुकावटों और सख्ती के बाद भी
5 दिसंबर शाम तक इस छोटे से शहर में देश भर से पहुँचे लगभग दो लाख जमा हो चुके थे ।
6 दिसम्बर की अंधियारी सुबह ,बल्कि आधी रात से लोग सरयू नदी में स्नान के लिए पहुचने लगे । श्यामलाल सहित हजारों लोगों ने अपने अपने तंबुओं, सरायों से निकल कर सरयू नदी में स्नान किया और डुबकी लगा कर एक-एक मुट्ठी रेत लेकर उसी ढांचे की ओर बढ़े । सभी को मंदिर निर्माण के लिए रेत इकट्ठा करने (गड्ढा भरने) के ऐसे ही निर्देश थे । ढांचे से कुछ दूर निर्धारित जगह पर मुट्ठी -मुठ्ठी भर इस रेत को छोड़ना था ।
अयोध्या में उस दिन पहुँचे भीड़ की संख्या पूछने पर श्यामलाल का दावा था कि सरयू नदी में डुबकी लगाकर एक एक मुट्ठी लाई गई इन रेत के ढेरों में 6 दिसम्बर 10 बजे सुबह तक लगभग आठ ट्रक के बराबर रेत इकट्ठा हो चुका था ।
ढांचा टूटते ही सबको अयोध्या खाली करने का निर्देश हुआ और श्यामलाल अपने साथियों के साथ उसी रात एक बजे की ट्रेन पकड़ कर वहां से निकल गए ।
छः दिसंबर 1992 को अयोध्या की इस घटना के बाद मैं आठ दिसंबर को बिलासपुर से एक सगाई समारोह से दुर्ग लौट रहा था । हालांकि छत्तीसगढ़ हमेशा की तरह शांत था लेकिन देश भर में उत्पन्न हालात के कारण सड़क मार्ग से 180 किमी का सफर अचानक मुश्किल हो सकता था ,इसलिए दुर्ग के लिए ट्रेन पकड़ने अचानक हम बिलासपुर के रेलवे स्टेशन पहुच गए । सुरक्षित पहुचने की हड़बड़ी में जो पहली ट्रेन आ कर रुकी उसी के भीड़ भरे जनरल क्लास के एक कोच में जैसे तैसे हम भी ठस गए । ट्रेन कुछ दूर चली तब पता चला कि सामान्य यात्री की तरह सफर कर रहा ये भीड़ अयोध्या से ढांचा तोड़कर लौट रहा कारसेवकों का जत्था था जिन्हें दुर्ग के बाद राजनादगांव स्टेशन तक जाना था । इत्तफाक से 150 किमी के इस खचाखच भरे ट्रेन के सफर में इनके बीच खड़े होने फिर बाद में हमें बैठने की जगह भी मिल गई । आपस मे बातचीत होने लगी और जत्थे ने हमें खुल कर अयोध्या वृतांत सुनाया । अयोध्या पर लिखा यह संस्मरण उसी जत्थे के एक मुखर -वाचाल ,जोशीले युवा श्यामलाल के जुबानी सुना गया एक किस्सा मात्र है । ढांचे से पहले धराशायी उस नीम के पेड़ पर चढ़कर खरोच खाये श्यामलाल ने अपना जख्म भी दिखाया । जोश में आकर एक बार
श्यामलाल ने अपने असली कारसेवक होने का तर्क के साथ सबूत भी रखा और अपनी पोटली में बांधकर रखा एक ईंट दिखाया जो वह उसी विवादित ढांचे की दीवार से उखाड़कर लाया था ।
उस पुराने से लेकिन साबुत ईंट पर लिखा था 1817 ..!
हमारा स्टेशन आ गया और हम दुर्ग में उतर गए , श्यामलाल और उनके जत्थे को लेकर ट्रेन आगे बढ़ गई ।
छूटते-छूटते उस ट्रेन के गेट पर आकर श्याम लाल ने जोर से फिर चिल्लाया …
कसम राम की खाते हैं -मंदिर वहीं बनाएंगे ।
श्यामलाल की जुबानी मुझे सुनाई गई और साथ में रखे उस ईंट की कहानी सच होगी तो पांच अगस्त 2020 को इतिहास की तारीख में वह भी नींव के किसी ईंट की तरह जरूर दर्ज होगा ..
आज बस इतना ही..!
( लेखक वरिष्ठ विडियो जर्नलिस्ट है )