काश ! कोरोना कार्यकर्ताओं के लिए भी होते पर्याप्त इंतजाम
[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]कीर्ति राणा[/mkd_highlight]
एक तो पहले ही झाड़ू आधी हो चुकी थी और इस लॉकडाउन के चलते दूसरी झाड़ू का विकल्प ना होने से कचरा साफ करने का सारा दबाव उस पर ही पड़ गया।फिर भी वह काम आ रही थी और अपने झाड़ू होने के दायित्व को बखूबी समझ भी रही थी।
पूरे साल में बस एक दिन ही झाड़ू को सम्मान मिलता है वह दिन भी दीपावली पूजन वाला होता है जब गृह लक्ष्मी ही घर की जमा-पूंजी, गहनों आदि के साथ नई झाडू की पूजा करती है और दूसरी सुबह कचरा बुहारने के साथ उस पुरानी झाड़ू को भी घर से बिदा कर दिया जाता है।
पिछले कई सालों से बड़ी झाड़ू के साथ छोटी झाडू की भी उपयोगिता बढ़ गई है। आम तौर पर ये छोटी झाड़ू किचन स्टैंड आदि की सफाई के काम आती है।
घर की साफ सफाई का दायित्व बिना कुछ बोले संभालने वाली झाड़ू का महत्व भी हमें समझ ही नहीं आए यदि च्यूंगम की तरह झाड़ू भी चलती रहे तो। अभी जब इंदौर से लेकर भारत ही नहीं पूरा विश्व कोरोना की चपेट में है तो इस झाड़ू के तिनकों की तरह वो तमाम सरकारी कर्मचारी और विभाग आंखों के सामने घूम गए जो बिना किसी अपेक्षा के दिन रात भिड़े हुए हैं।
हम घरों में दुबके हैं कि कहीं कोरोना हमारी शिनाख्ती ना कर लें, दूसरी तरफ हजारों सरकारी कर्मचारी हैं जो हमारा जीवन बचाने के लिए अपनी जान झोंक रहे हैं। जूनी इंदौर थाने के टीआई शहीद देवेंद्र चंद्रवंशी किसी पूंजीपति परिवार में जन्मे होते या नामचीन डॉक्टर ही होते तो फोन बंद कर के आराम से घर में बैठे महामारी से निपटने के सरकारी प्रयासों को कोसते रहते।
एमवायएच या एमआरटीबी जैसे सरकारी अस्पताल तो हर शहर में हैं ही।बाकी दिनों में सरकारी अस्पतालों को नरक से भी बदतर, सरकारी कर्मचारियों को मक्कार और बिना पैसे के काम नहीं करने जैसे आरोप पुलिसकर्मियों पर लगाना तो बहस के मुद्दे के साथ ही अपने दावे को प्रमाणित करने के ढेरों उदाहरण भी रहते हैं।
अब जब घर में कैद रहते एक महीना होने को है कभी इस पर चिंतन का वक्त मिला क्या कि कोरोना प्रभावित मरीज की तीमारदारी में उन्हीं सरकारी अस्पतालों के कर्मचारी लगे हुए जिन्हें नरक से बदतर कहते रहे हैं। निजी नर्सिंग होम तो सरकार का दबाव कहें या महंगे अनुबंध के बाद अपने अस्पताल सरकार को सौंपने पर राजी हुए हैं उससे पहले तो हर जिले में सरकारी अस्पताल ही कोरोना की त्रासदी से जूझते मरीजों के लिए लाइट हाउस बने हुए थे।
यह बात अलग है कि दिल्ली की आप सरकार को छोड़कर बाकी राज्य सरकारों ने इन अस्पतालों की बीमारियां दूर करने में सजगता दिखाने के नाम पर स्वास्थ्य सेवाएं भी निजी हाथों में सौंपने जैसी उदारता ही दिखाई है।
इस महामारी ने जहां आमजन में भय बढ़ाया है तो जान बचाने वाले कर्मचारियों को सहनशील भी बना दिया है।
क्या यह संभव है कि जांच करने वाले दल पर थूकने के साथ गालियों के साथ पत्थर बरसाए जाएं और वे सब ईसामसीह की शब्द यात्रा याद करते रहें ‘हे प्रभु इन्हें माफ कर देना यह नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं’ पुलिस कर्मी, स्वास्थ्यकर्मी, सफाईकर्मी, बिजली कर्मचारी सहित बाकी कर्मचारी मनमसोस कर रह जाते हैं कि बड़े अधिकारी फुलप्रूफ इंतजाम के साथ मोर्चे पर डटे रहने की हिदायत तो देते हैं लेकिन मैदानी सर्वे में जुटी हजारों आशा कार्यकर्ताओं के आधे अधूरे बचाव इंतजाम से आंखें चुरा लेते हैं।
शहीद देवेंद्र चंद्रवंशी और यशवंत पाल की शहादत, सेवा करते करते संक्रमित हो रहे डॉक्टरों-नर्सों, मुंबई के 50 से अधिक मीडियाकर्मियों को चपेट में लेने और मप्र की खुद हेल्थ सेक्रेटरी को भी अपना प्रभाव दिखाने वाला कोरोना आज नहीं तो कल विदा लेगा ही क्योंकि हर हाल में जीतना हमारी फितरत है।
जब सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा, सरकारी महकमों में फाइलें तेजी से दौड़ने लगेंगी तब क्या राज्य सरकारें सरकारी अस्पतालों को जिले के नामी निजी अस्पतालों से बेहतर बनाने के विषय में वाकई सोचेंगी? क्योंकि कोरोना तो विश्वव्यापी आर्थिक तबाही और बेकसूरों की बलि लेने के नए असरकारी तरीके की नई शुरुआत है और अब जब हजारों किमी दूर एक एसी रूम में बैठकर देशों को ऐसी ही महामारी से तबाह करने की प्लांनिग पर काम शुरु हो चुका है तो जरूरी नहीं कि कोरोना के भाई-बहन के भारत प्रवेश से पहले केंद्र सरकार आधार कार्ड या अन्य कोई सरकारी दस्तावेज मांगने का साहस दिखा सके।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार है )