आधुनिकता पर भारी, तांगे की शाही सवारी
(अनुराग शर्मा)
कभी राजे राजवाडों की शाही सवारी के रूप में जाने जाना वाला घोड़ा गाड़ी तांगा आज आजीविका चलाने के साधन के रूप के जाना जाता है आधुनिक युग में जहाँ एक ओर यातायात के साधनों के रूप में ऑटो रिक्शा आम चलन में आ गए है वही तांगा कुछ हद तक अपनी पहचान कायम रखने के कामयाब रहा है एक समय था जब रेलवे स्टेशन और अन्य स्थानों पर तांगा वाले लाइन से सवारी बैठाने के लिए खड़े रहते थे। फिर उन्हें शहर भर की सैर कराते थे। तांगा में जुते घोड़े भी काफी सजे-संवरे होते थे। समय बदला और यातायात के साधन भी बदल गए। तांगे में बैठ घूमना बेहद मस्ती भरा अनुभव है।
शाही शान की सवारी कहा जाने वाला तांगा कई शहरों में विलुप्त हो गए हैं। फिर भी मप्र में कुछ शहर है जहां आज भी लोग यात्रा करने के लिए तांगे का प्रयोग करते हैं। ऐसा ही एक शहर सीहोर में आज भी घूमने लिए तांगे का ही उपयोग किया जाता है। इससे भी रोचक बात तो यह है कि यहां तांगे का नाम फिल्मों के हिट किरदारों के नामों पर रखे गए हैं। लोगों का भी मानना है कि तांगे की सवारी से आना जाना और घूमने का आनंद दोगुणा हो जाता है।
जानकारी के मुताबिक धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल सीहोर में तांगे चलाने की परंपरा काफी पुरानी है। यहां के कई लोग अपना जीवन चलाने के लिए इसी पर निर्भर हैं। सीहोर में लगभग 50 के लगभग तांगे चलते हैं।
सीहोर घूमाने और कही आने जाने के लिये तांगे चालकों ने एक रेट फिक्स कर रखा है। तांगे चालक प्रति व्यक्ति से निश्चित रुपए लेते हैं। इस पेशे से जुड़े लोग बताते हैं कि प्रतिदिन चालकों की टीम यहां रहती है जो लोगों को घूमाने का काम करती है। इस तरह से रजिस्टर्ड हर तांगे चालक को प्रतिदिन में सवारियों को लाने ले जाने का मौका मिलता है। तांगे चालक एक गाइड के रूप में भी यहां काम करते हैं। उन्हें सीहोर के सारे इतिहास और मार्गो की जानकारी है। बहुत से चालकों को अंग्रेजी से लेकर हिंदी, उर्दू भाषा तक का ज्ञान है। वे लोगो को सारी जानकारी देते हैं। शहर के पुराने अमर टॉकीज के पास तांगे आसानी से मिल जाते है और नगर में कही भी लोगो को आना जाना हो यह तांगे आसानी से उपलब्ध रहते है, मुख्यतः रेलवे स्टेशन के लिए तांगा आसानी से मिल जाता है, हर गली चौराहे में पहले घोड़े के टाप ही सुनाई देते थे। तांगे की सवारी ऊंचे परिवार के लोग अपनी शान मानते थे। पहले तांगा की सवारी राजशाही सवारी मानी जाती थी। आधुनिकता की मार से अब तांगा भी अछूता नहीं रहा, कभी शानो शौकत की सवारी कहे जाने वाले तांगा आज भी युवा पीढ़ी ने आउट डेटेड करते जा रहे है। सचमुच, लगता है तांगा शब्द कुछ समय बाद सिर्फ इतिहास के पन्नों में दफन होकर रह जाएंगे।
तांगा चालक रफीक कहते है कि अब गांव-गांव, घर-घर दुपहिया व चारपहिया वाहनों की बाढ़ आ गई है। नई पीढ़ी के सामने पूर्व से चली आ रही शान की सवारी, आउट डेटेड भी होती जा रही है। पहले जहां लोग तांगें पर शौक से बैठकर यात्रा किया करते थे, वहीं अब इस सवारी पर बैठना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं।
तांगा चालक अजहर कहते है कि अपने बच्चों और परिवार को दो जून की रोटी के लिए अब दूसरा धंधा करना पड़ रहा है। हम में से कुछ ने पूर्वजों की निशानी कायम रखने के लिए तांगे को छोड़ा नहीं है, बल्कि वे इससे अब माल ढोने लगे हैं। जब संसाधनों की कमी थी, उस समय लोग तांगें की सवारी को ही उत्तम मानते हुए सड़कों के किनारे खड़े होकर -तांगों का इंतजार किया करते थे। जैसे-जैसे समय का पहिया घूमा, लोग आधुनिक संसाधनों की ओर बढ़ने लगे। आधुनिकता के दौर के साथ तांगा चालकों के तांगों पर चढ़ने का शौक रखने वालों का अभाव हो गया। आमदनी घटने के साथ ही इनके दुर्दिन शुरू हुए तो इन लोगों ने अपने परंपरागत धंधे को छोड़कर अन्य व्यवसाय की ओर रुख कर लिया और अनेक लोग अभी भी तांगे से से अपना घर चला रहे है। दिन भर में 200 रुपए मिलते हैं और अपना घर चलाते है।