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वो बता भी नहीं सकती कि उसकी संतान का पिता कौन?

बोलती है, चीखती है, चिल्लाती है, सिसकार भरती है, दर्द से कराहती है कहानी और उसकी नायिका पगली…। जी हां इस कहानी की नायिका पागल है,यह पागल नायिका इस सामज के उस चहरे को उजागर करती जिसमें हवस की सीमाएं नहीं है। इस कहानी ​को पढने के बाद आप ही तय करें कि पागल कौन है कहानी की नायिका या वो जो उसे सेक्स डॉल की तरह इस्तमाल कर समाज में छुप गए। पहले कहानी की समीक्षा पढे जिसे वरिष्ठ पत्रकार शैलेष तिवारी ने लिखा है। फिर कहानी पढें जिससे लेखक आकाश माथूर की किताब #मी-टू से लिया गया है। आकाश माथूर की किताब #मी-टू की यह चौथी कहानी की समीक्षा है।

 मौन खंडहर ( कहानी समीक्षा)

#me too…. किताब की एक कहानी… बकलम आकाश माथुर...। पिछली कहानियों से इस कहानी की तुलना की जाए तो यह भी घटना प्रधान कथानक है। जिसे एक घटना की तरह ही लिखा भी गया है। शब्दों का चयन बड़ी सावधानी के साथ किया है। कहानी का प्रभाव उतना गहरा नहीं है जितना गहरे से कहानी के भाव अपनी छाप छोड़ते हैं।
कथानक में जो नायिका है “पगली”। ये अमूमन हर शहर में मिल जाती हैं और उनके साथ जो हैवानियत का खेल खेला जाता है। शायद ये भी सभी जगह कामन सी दिखाई देती है लेकिन इस कथानक की एक ही बात है कि इन घटनाओं को वो स्थान कभी नहीं मिला जो पगली के साथ हुई हैवानियत के खिलाफ जन जाग्रति लाए। उस बेसहारा को इंसाफ दिला सके। कानून इस तरह के मामलों मे अंधा ही साबित होता है। कहानी मे भी हुआ।
यही इस कहानी का सबसे उजला पक्ष है कि पगली और उसके खंडहर के मौन को वाणी देने की कोशिश की गई है। वैसे वीरान और सुनसान खंडहरों मे न जाने कितनी पगली चीखी होंगी, चिल्लाई होंगी लेकिन उनकी चित्कार कभी समाज और कानून के कानों तक नहीं पहुंची। इस कहानी के माध्यम से खंडहर का मौन चीखा है… पगली की गूंगी जुबां को स्वर मिला है। हिंदू मुसलमान के बीच रहने वाले हैवान को नंगा किया गया है लेकिन शिनाख्त होना अभी बाकी है। इन्हें पहचाना जाना जरूरी है और कानून के दायरे मे लाना भी आवश्यक है।
ताकि भले ही वो पगली कहलाये लेकिन इंसान तो मानी जाए। इंसानों की बस्ती मे कोई उसे इंसान नहीं मानता। सबके लिए समान अधिकार देने की घोषणा करने वाले संविधान की नजर मे शायद वो नागरिक भी नहीं। जिससे उसके खिलाफ हुए अनाचार को करने वाले को अपराधी करार दिया जा सके। अदालत तक पहुँच वो दंडित हो सके। … काश ऐसा हो पाता… या हो पाए… लेकिन किस सूरत में..?? ऐसे तमाम सवालों की जन्मदात्री इस कहानी के अनुतरित्त प्रश्न आने वाला वक्त शायद हल कर सके।
अभी तो मौन है खंडहर… खामोश है पगली…. चुप है समाज…. अंधा है कानून…। बोलती है, चीखती है, चिल्लाती है, सिसकार भरती है, दर्द से कराहती है कहानी और उसकी नायिका पगली…।

 

कहानी  मौन खंडहर

मैं अपने बारे में आपको कुछ बताता हूँ। मैं स्कूल के समय से ही थोड़ा आवारा था। दोस्तों के साथ देर रात तक घूमना, देर से घर आना और कई बार बहुत देर से आना। घर वाले इसलिए कुछ नहीं कहते क्योंकि मैं देर से आने के सिवा ऐसा कुछ नहीं करता था, जो गलत हो। भरोसा था। स्कूल के समय से ही मेरे पास बाइक थी। जो बताता था कि उन्हें मुझ पर कितना भरोसा था। आज ये आम बात है, पर उस समय यह बड़ी बात होती थी। कुछ ही लोग ऐसे होते थे, जिनके पास बाइक होती थी। मेरे भी अधिकत्तर दोस्तों के पास सायकल ही थी।

हाँ, तो मुद्दे की बात यह है कि मेरे पास बाइक थी और मैं रोज देर से घर आता था। मैं जिस गली से आता था वो भारत-पाकिस्तान की बॉडर जैसी थी। एक तरफ मुस्लिम और दूसरी तरफ हिंदू। जब भी शहर, प्रदेश या देश में कहीं भी सांप्रदायिक माहौल बिगड़ता इस सड़क पर भारी पुलिस बल तैनात हो जाता। मैं देर रात इसी सड़क से आता था। कुछ असामाजिक तत्व इस सड़क पर हमेशा बैठे रहते थे, पर मुझको किसी का डर कहाँ था। मैं तो रोज अपनी मस्ती में जाता था। दिन में भी इसी सड़क से आना-जाना होता था। बात गर्मी के दिनों की है,  चिलचिलाती धूप में जब लोग घर में कूलर और एसी में आराम कर रहे थे। कुछ ही लोग घर के बाहर थे। पारा 40 डिग्री पर था। तब मैं दोपहर में घर का कुछ सामान लेकर लौट रहा था। उस समय भारत पाकिस्तान की बॉडर दिखने वाली उस सड़क पर बीच में एक गंजी महिला बैठी थी, जो गंदे कपड़े पहने थी। उसके बैठने का तरीका कुछ अजीब था। देखने में ही विक्षिप्त लग रही थी और पागल तो वो थी ही। जो 40 डिग्री में सड़क पर बैठी थी। काली सड़क जिसे कोई छू भी न सके, जो गर्म तवे की तरह तप रही थी कि अगर एक अंडा फोड़कर कोई डाल दे तो शायद दो मिनट में आमलेट तैयार हो जाए। ऐसी चिलचिलाती धूप में कोई समझदार तो उस सड़क पर बैठ नहीं सकता था। मैंने मन में तय कर लिया था कि वो पागल ही है। उसको देखते हुए मैं निकल गया। ये महिला कौन थी, कहाँ से आई थी? किसी को पता नहीं था।
दरअसल मेरा शहर सीहोर एक छोटा शहर है। यहाँँ रेलवे स्टेशन भी है, पर ज्यादा ट्रेने नहीं रुकती और ज्यादा लोग यहाँ ट्रेन से सफर भी नहीं करते, स्टेशन सुनसान रहता है। साथ ही शहर के बीच से इंदौर-भोपाल हाईवे भी गुजरा है। लोग अक्सर पागल लोगों को ऐसे शहरों में छोड़ जाते हैं। शायद उसे भी कोई यहाँ ऐसे ही छोड़ गया था और वो घूमते-फिरते उस सड़क पर आ गई थी। जहाँ वो बैठी थी, उससे कुछ दूरी पर लड़कों का झुंड जमा था। जिनसे मैंने पूछा कौन है ये? भीड़ में से कुछ लोगों ने कहा -पता नहीं कौन है? शायद पागल है। मैं आगे बढ़ गया। मेरे जाने के बाद आस-पास के लोगों ने उसे कुछ खाने के लिए दिया था। मैं जब कुछ देर बाद वापस घ्ार से निकला और वहाँ से घूमने के लिए गुजरा तो वो महिला बड़े चाव से कुछ खा रही थी। अब वो अक्सर मुझे वहीं दिखती थी। कभी किसी के ओटले पर, कभी सड़क पर तो कभी-कभी वह दिखती ही नहीं थी। सड़क पर ही एक पुराना खंडहर नुमा घर था जिसमें बारिश में गाय, सुअर, कुत्ते रहते थे। कुत्ते जो सुअरों पर दिन भर भौंकते और खदेड़ते रहते। वो उस दौरान चुपचाप एक साथ सोते। इसे कहते हैं सांप्रदायिक सोहार्द। वह पागल भी वहीं रहने लगी थी। अब वो पागल वहीं रहती किसी से बात नहीं करती, किसी ने उसकी आवाज भी नहीं सुनी थी। कभी-कभी मुस्कुराती। सड़क, खंडहर और कुछ ओटले उसके घर थे।
कभी शुक्ला जी, कभी वर्मा जी और कभी रईस भाई के ओटले पर बैठी रहती। जिसके ओटले पर वो होती वो उसे दो रोटी दे देता। चुपचाप रोटी खा कर वो बैठी रहती। कोई कुछ नहीं देता तो सड़क से कुछ भी खाने लायक चीज उठा कर खा लेती। गर्मी में उसकी हालात ज्यादा खराब हो जाती थी। किसी को कुछ कहती नहीं, कुछ करती भी नहीं, पर बिना कपड़ों के घूमती। नाली का पानी पीती, खुद पर नाली का कीचड़ और पानी डाल लेती। यहाँ तक की खुद के मल को हाथ से फैलाती। उसको देखकर घिन आती थी। ठंड और बारिश में वह कुछ ठीक रहती, पर गर्मी में तो बड़ा अजीब लगता उसे बिना कपड़ों के देखना। उलझे हुए गंदे बाल जिनमें लटें बनी हुई थी, लेकिन उसकी मदद कैसे की जा सकती थी समझ नहीं आता था? आसपास के लोग उसकी मदद करते थे, पर खाने और कपड़ों तक ही।
उसका नाम भी लोगों ने रख दिया था पगली। पगली को देख कर दया आती थी। वो कभी नजरें भी ऊपर नहीं करती थी। उसे वहाँ रहते-रहते एक साल से ज्यादा का समय हो गया था। एक दिन लोग चर्चा कर रहे थे कि पगली को कुछ हो गया है। वो मोटी हो गई थी। उसके शरीर पर सूजन भी दिखाई देती थी। वो कई बार दर्द से करहाती थी। उसका शरीर बेडोल हो रहा था। लोगों को चिंता थी। लोग सोचते थे। शायद वो बीमार है और मरने वाली है। कुछ अच्छे लोगों ने उसे डॉक्टर को दिखाने का मन भी बनाया, लेकिन यह सोच कर नहीं दिखाते की उसे दवाई कौन देगा? ऐसा चलता रहा। वो दर्द सहती रही। अचानक एक दिन सुबह से वो दर्द से करहाने लगी और खुद के ही पेट पर मारने लगी। वो शुक्ला जी के ओटले पर लेटी थी।

उसने कपड़े फाड़ दिए। अब साफ दिख रहा था कि वो गर्भवती है, पर सवाल यह था कि अब तक लोगों को पता क्यों नहीं चला? शायद किसी ने गौर ही नहीं किया। अब लोग मन बना चुके थे कि उसे डॉक्टर को दिखाना है। मन बनाया, तय हुआ अगले दिन उसे डॉक्टर को दिखाएंगे। दिन भर लोग सोचते रहे उसे डॉक्टर को दिखाएंगे, सोचते-सोचते शाम हो गई। अब वह तेज-तेज चिल्ला रही थी। लोगों ने कभी उसकी आवाज नहीं सुनी थी, पर चिल्लाने की आवाज सबने सुनी। आधे घंटे तक वह चिल्लाई फिर अचानक उसके शरीर से एक नवजात बाहर आने लगा। शुक्ला जी के घर के बाहर भीड़ लगी थी। फिर कुछ युवकों ने अपने घर की महिलाओं को बुलाया। कुछ बुजुर्ग महिलाएं आई और उसका प्रसव कराया।
तब तक इस घटना की सूचना पुलिस को दे दी गई थी। साथ ही डॉक्टर को भी लेकर कुछ लोग आ गए थे। उसने एक सुंदर बच्चे को जन्म दिया। जो स्वस्थ था, जिसे आसानी से नजर लग सकती थी। बच्चे और पगली दोनों को डॉक्टर ले गए। बच्चे को केयर सेंटर में रखा गया और पगली को अस्पताल में। बच्चे को मोहल्ले के लोग एक-दो बार देखने भी गए, फिर कोई नहीं गया। इधर पगली को जिस दिन भर्ती किया गया उसके दूसरे ही दिन वह कहीं चली गई। क्योंकि उसे वहाँ देखने वाला कोई नहीं था। साथ ही अस्पताल वालों के लिए भी वो बोझ थी। जो जितनी जल्दी उतरे उतना बेहतर। इसके बाद पगली को कभी किसी ने नहीं देखा।
अब पूरे इलाके में एक ही सवाल था कि इतना गिरा हुआ कौन है? हम हिंदू -मुस्लिमों के बीच तो रहते हैं, पर हैवान भी थे आसपास। जो इस हद तक गिर गए थे। पागलों के साथ मानवीय संवेदना होती है और जिसे देख कर लोगों को तरस आता था। उसके साथ किसने दुष्कृत्य किया? पगली के साथ दुष्कृत्य हुआ जिसका पूरी दुनिया को पता चला, पर उसने कभी नहीं कहा मी-टू। वहीं वह खंडहर जहाँ पगली के साथ दुष्कृत्य हुआ, वे भी मौन हैं। 

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