प्रसिद्ध सहित्यकार पंकज सुबीर ने टैगोर अंतर्राष्ट्रीय साहित्य एवं कला महोत्सव “विश्वरंग से बनाई दूरी
— साहित्य एवं कला महोत्सव के नाम पर फिल्मी उत्सव
— “विश्वरंग” से मप्र के कई बडे सहित्यकारों को रखा गया अलग
मध्यप्रदेश। प्रदेश साहित्य एवं कला को बढाने की मंशा से यूं तो कई कार्यक्रम आयोजित होते है लेकिन इन दिनों “विश्वरंग” का कार्यक्रम अधिक चर्चा में है। इसकी वजह यह नहीं कि कार्यक्रम बहुत अच्छा हो रहा,बल्कि साहित्य एवं कला के इस कार्यक्रम में साहित्य एवं कला को छोडकर राजनीति,चापलूसी,तिकडबाजी हो रही है। जब यह सब इस कार्यक्रम के शुरूआती में जुडे सहित्यकारों को पता चली तो अब उन्होंने इससे किनारा करना शुरू कर दिया। इससे सबसे बडे नाम के तौर प्रसिद्ध सहित्यकार पंकज सुबीर शामिल है जिन्होंने अपनी फेसबुक वॉल पर स्पष्ट लिखा है कि वो अब “विश्वरंग” का हिस्सा नहीं है और न ही इस कार्यक्रम में शामिल होंगे।
पंकज सुबीर साहित्य का जाना माना नाम है उनके जितने फलॉअर भारत में उससे अधिक विदेशों में है। इंटरनेट की दुनिया में उन्हें ग़ज़ल गुरु का तमगा हासिल है। युवाओं में उन्हें बहुत अधिक पंसद किय जाता है। “विश्वरंग” के शुरूआत में उनके नाम पर ही कई विदेशी सहित्यकारों ने कार्यक्रम में शामिल होने की स्वीकृति दी थी। अब पंकज सुबीर ही इस कार्यक्रम में शामिल न होकर दूरी बना रहे है तो यह समझा जा सकता है कि इस कार्यक्रम की दशा क्या होगी?
यहां पढ़िए..प्रसिद्ध सहित्यकार पंकज सुबीर ने क्या लिखा
टैगोर अंतर्राष्ट्रीय साहित्य एवं कला महोत्सव “विश्वरंग” या “दुष्चक्र में सृष्टा”
वीरेन डंगवाल की इस कविता का शीर्षक पिछले कुछ दिनों से बहुत याद आ रहा है। कवि कथाकार श्री संतोष चौबे से मेरा परिचय पिछले दस वर्षों का ही है बस। लेकिन यह परिचय धीरे-धीरे मित्रता के अच्छे रिश्ते में परिवर्तित हो गया (मैं तो चाहता हूँ कि इस पोस्ट के बाद भी वह मित्रता कायम रहे)। यह परिचय आत्मीयता की ऊर्जा से भरा हुआ है, लेकिन पिछले दो या तीन साल से जब भी उन्हें देखता हूँ तो वीरेन डंगवाल की कविता का शीर्षक “दुष्चक्र में सृष्टा” याद आ जाता है। ऐसा इसलिए कि संतोष चौबे नाम का यह भला इंसान (जितना मैंने जाना, उस आधार पर) एक प्रकार की चांडाल चौकड़ी में घिर गया है। उनके आस पास के लोगों में श्री मुकेश वर्मा और श्री महेंद्र गगन को छोड़कर बाक़ी सारे लोग कूट रचने और षड्यंत्र रचने में माहिर लोग हैं। और इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। संतुलन अभी भी सधा हुआ है क्योंकि महेंद्र गगन और मुकेश वर्मा जैसे डैमेज कंट्रोल करने वाले लोग अभी हैं उनके आसपास (चांडाल चौकड़ी इन्हें कब तक रहने देगी कुछ नहीं कह सकते।)। धीरे-धीरे हाेता यह जा रहा है कि असफल, कुंठित और फ्रस्टेटेड लेखक, गबन करके भागे हुए, संस्थाओं को लगभग डुबो कर भागे हुए कवि, इस प्रकार के सारे लोगों का एक ठिकाना रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय होता जा रहा है। अब तो ख़ैर इस चौकड़ी को एक कुशल नेतृत्व भी मिल गया है। यह वही लोग हैं जो लेखक होने का प्रमाण पत्र बाँटा करते हैं। यह तय करते हैं कि कौन लेखक है और कौन नहीं। श्री संतोष चौबे के प्रति इनकी निष्ठा का पता इसी बात से चल सकता है कि लगभग दो साल पूर्व इसी चौकड़ी में शामिल रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय में नौकरी कर रहे इनमें से एक आलोचक से मैंने कहा कि मेरी पत्रिका के लिए संतोष चौबे के उपन्यास “जलतरंग” की समीक्षा कर दो, तो बंदे का उत्तर था “अब मेरे इतने बुरे दिन भी नहीं आए कि मुझे जलतरंग की समीक्षा करनी पड़े।”
विश्वरंग की पहली और दूसरी बैठक में कोर कमेटी के सदस्य की हैसियत से भाग लेने के बाद मुझे लग गया था कि मेरी उपस्थिति से चांडाल चौकड़ी बुरी तरह असहज हो रही है। दूसरी बैठक के कुछ दिनों बाद ही मैंने मुकेश वर्मा जी के घर जाकर अपने आपको इस आयोजन से पूरी तरह से अलग करने की बात कही, इस अनुरोध के साथ कि इससे उनके और मेरे संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। अनादि टीवी की रिकार्डिंग से लौटते हुए श्री महेंद्र गगन के सामने भी मैंने अपना पक्ष रखा। शुरूआत में प्रवासी भारतीय लेखकों को पत्र मेरी तरफ़ से गए थे, मुकेश वर्मा जी के साथ मेरी मुलाकात के बाद वह दायित्व भी किसी और को दे दिया गया। और मैंने चैन की साँस ली। बाद में जब कार्यक्रम का स्वरूप सामने आया तो मैं हैरत में था कि श्री संतोष चौबे के साथ व्यक्तिगत चर्चा में जिन बातों पर वे अक्सर अपना विरोध दर्ज करते थे, वही सब कुछ हो रहा है। दो बातों पर उन्होंने हमेशा अपना कड़ा विरोध दर्ज किया, पहला लिट फेस्ट में लेखकों से ज़्यादा फ़िल्मी कलाकारों को दिये जाने वाले महत्व का और दूसरा सम्मान समारोह में थोक के हिसाब से दस-बारह सम्मान दिये जाने का। इस आयोजन में दोनो ही बातें हो रही हैं। मुझे नहीं लगता कि इन दोनों ही बातों पर उनकी सहमति रही होगी। और हाँ पहली और दूसरी बैठक में अपनी तरफ़ से मैंने जिन लेखकों के नाम सुझाए थे, वे नाम तो आयोजन से ग़ायब होने ही थे। कुछ अच्छे युवा शायर भी मेरे सुझाए जाने के कारण काट दिए गए।
दो दिन पहले ही कार्यक्रम का ब्रोशर मिला तो उसमें “लेखक से मिलिए” के अंतर्गत एक सत्र में मेरा भी नाम है। यह मुकेश जी का स्नेह है कि उन्होंने मुझे जोड़े रखने के लिए ऐसा किया है। मैं जानता हूँ कि मैं अगर गया तो चांडाल चौकड़ी मुझे उसी प्रकार अपमानित करने का प्रयास करेगी, जिस प्रकार “विश्वरंग” की पहली और दूसरी बैठक में किया था, इसलिए मैंने अपने निर्णय पर कायम रहने का फ़ैसला लिया है कि मैं कार्यक्रम से पूरी तरह से अपने आपको अलग ही रखूँगा। पिछले दो दिन में श्री संतोष चौबे और श्री मुकेश वर्मा ने मोबाइल पर संपर्क कर मुझे कार्यक्रम में उपस्थित रहने और पूरी सक्रियता से साथ रहने की बात कही। दोनों मेरे अग्रज हैं इसलिए थोड़ा दुखी हूँ, कि उनकी बात नहीं रख पा रहा हूँ; लेकिन मैं अपने निर्णय पर कायम हूँ।
“आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।”
जो मित्र आ रहे हैं, उनसे नहीं मिल पाने का भी मलाल रहेगा। आ रहे मित्रों का भोपाल में स्वागत है।
मित्रों से क्षमा के साथ
पंकज सुबीर