आस्था ऐसी नहीं होना चाहिए जो अज्ञानता की ओर ले जाएं
[mkd_highlight background_color=”” color=”red”] जयंत शाह[/mkd_highlight]
कोरोना वायरस के चलते भारत में 21 दिन तक लॉक डाउन का ऐलान किया गया मैं शुरू से ही कानून का सम्मान करता हूं। आम दिनों में व्यापार के कार्यों के अलावा घूमना—फिरना लोगों से मिलना—जुलना मेरी दिनचर्या में शामिल है। लॉकडाउन के दौरान घर में बैठकर मोबाइल के द्वारा ही सब जगह घूम लेता हूं। मित्रों ने सलाह दी कि समय का सदुपयोग करते हुए कुछ किस्सें कहानी लिखें। विचार तो मेरे मस्तिष्क में चल रहे थे परंतु उन्हें शब्दों में कैसे पिरोया जाए यह नहीं समझ पा रहा था। मेरे बचपन के मित्र जो स्वयं पत्रकार एवं लेखक भी हैं पंडित शैलेश तिवारी ने कहां कुछ संस्मरण ही लिख दो । मेरे मन में विचार आया भारतवर्ष में करोना वायरस नामक जो बीमारी चल रही है उसके उपचार एवं बचाव के ऊपर काफी बातें चल रही है। प्रशासनिक अमला अपनी तैयारियों मे लगा हुआ है,लोक डाउन में व्यवस्था सुचारू रहे एवं लोग इस बीमारी बचाव के प्रति सावधान रहें ।
दूसरी ओर चिकित्सा विभाग का पूरा अमला भी इस बीमारी से लोगों को कैसे निजात मिले एवं लोग कैसे जागरुक रहें इस और प्रयास मे लगा हुआ है, परंतु अब सबसे बड़ी जरूरत है आम जनता को जागरूक रहने की
ऐसे समय में मुझे कुछ पुराने संस्मरण याद आ रहे हैं। मेरे मित्र शहर प्रसिद्ध चिकित्सक है साथ ही अत्याधिक मेहनती होने के साथ ही चिकित्सा क्षेत्र में होने वाली नई से नई खोज के प्रति अपडेट रहते हैं। जब एमडी की परीक्षा पास करके सीहोर में आए थे। उस समय युवावस्था तो नहीं कहूंगा परंतु उनके काम के प्रति लगन और मेहनत उन्हें युवाओं से भी अधिक ऊर्जावान बनाए रखती थी।
एक दिन रात्रि के समय अस्पताल में उनकी ड्यूटी टाइम में सयोंग मैं भी उनके पास बैठा हुआ था उसी समय कुछ लोग मरीज को लेकर आए जिसे सांप ने काटा था। इमरजेंसी केस भोपाल रेफर करने की परंपरा को तोड़ते हुए डॉक्टर साहब ने अपनी संपूर्ण ऊर्जा उस मरीज को ठीक करने में लगा दी सीमित साधनों में जो भी संभव हो सकता था वह सभी चिकित्सा उपाय उन्होंने किये इस तरह का मामला मैंने पहली बार देखा था इसलिए मैं भी वहीं रुक गया कि अब क्या होता है देखें। करीब 3 से 4 घंटे की मेहनत के बाद उस मरीज को कुछ कुछ राहत मिलने लग गई एवं उसकी हालत पहले से सुधरने लग गई। कुछ देर के बाद उस मरीज के एक रिश्तेदार आते हैं एवं कुछ झाड़ फुक करते हैं। दवाइयों के असर से मरीज की हालत कुछ सुधरने लगी थी, लेकिन डॉक्टर साहब उसकी हालत देखने गए तब अचानक उनके रिश्तेदारों की बात सुनाई पड़ गई कहा जा रहा था यह देखो इन्होंने झाड़ा दिया और यह ठीक हो गया। डॉक्टर साहब को मैंने इतना निराश भाव में कभी नहीं देखा था बड़े दुखी मन से बोले क्या होगा इस देश का क्या होगा इस शहर का डॉक्टर साहब आज भी अपना कर्तव्य ईमानदारी से निर्वाहन कर रहे हैं उनके स्वभाव में आज भी वही सब के प्रति मदद का भाव है। परंतु इस तरह की बार-बार घटानाये उनके सामने आने से उनके काम करने के तरीके में कुछ बदलाव आया एवं भाषा में मधुरता की जगह व्यंग और कटाक्ष भी आ गया जिसका उदाहरण देखने को मिलता है जब मरिज उनके पास आता है ओर उसके शरीर पर डोरा, धागा या ताबीज डला हो तो मरीज के परिजनों के प्रति उनका लहजा एकदम कटाक्ष पूर्ण हो जाता है ईलाज तो अच्छे से करते हैं दवाई एवं जांच भी..। परंतु परिजन द्वारा कोई प्रश्न पूछने पर उनकी भाषा बदल जाती है।
यह संस्मरण लिखने का मेरा उद्देश्य केवल इतना था लोगों को आस्था एवं अंधविश्वास में फर्क समझ आना चाहिए, जो कार्य चिकित्सक का है वह चिकित्सक ही कर सकता है शरीर की व्याधि के लिए चिकित्सकीय इलाज अत्यधिक आवश्यक है। आत्मबल बढ़ाने के लिए ईश्वर में विश्वास एवं आस्था रहना चाहिए। आस्था ऐसी नहीं होना चाहिए जो हमें अंधविश्वास या अज्ञानता की ओर न ले जाएं। वर्तमान परिस्थितियों में हमें समझदारी का परिचय देते हुए चुनौतियों का सामना करना है और समझदारी सतर्कता बचाव तथा वैज्ञानिक सोच के आधार पर ही हम इस महामारी पर विजय प्राप्त कर सकते हैं ।