कोरोना इफेक्ट : आर्थिक उपनिवेशवाद की ओर बढ़ते हुए चीन के कदम
[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]संजीव कुमार भूकेश[/mkd_highlight]
हाल ही में भारत सरकार ने अपनी एफडीआई नीति में कुछ बदलाव किए हैं। नए बदलावों के अनुसार भारत की सीमा से लगे हुए देशों की कंपनियां अब नए नियमों व शर्तों के साथ ही भारत में निवेश कर सकती है। भारत सरकार द्वारा एफडीआई नीति में किए गए इन परिवर्तनों को चीन पचा नहीं पा रहा है और विश्व व्यापार संगठन के मुक्त व्यापार सिद्धांत के विरुद्ध बता रहा है।
चीन के पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने एचडीएफसी बैंक में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई है, चीन की कई कंपनियां जैसे अलीबाबा,फोसुन भारत के स्टार्टअप्स में निवेश बढ़ा रही है। किसी भी स्टार्टअप के लिए फंडिंग बहुत बड़ी चुनौती होता है निश्चित ही ये भारतीय कंपनियां चीनी कंपनियों पर निर्भर हो जाएंगी।
भारत ही नहीं दुनिया के लगभग हर देश में चीन का निवेश बढ़ता ही जा रहा है। कोरोना के इस दौर में चीन की स्थिति पूरे विश्व के लिए संदिग्ध है और दूसरे देशों की छोटी से छोटी कंपनियों से लेकर बड़ी-बड़ी कंपनियों में बढ़ता उसका निवेश उसके आर्थिक उपनिवेशवाद की पुष्टि भी कर रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद से ही चीन ने विनिर्माण क्षेत्र में पूरी मेहनत से स्वयं को सक्षम बनाया और चीन को मैन्युफैक्चरिंग हब बना दिया।
चीन के गुणवत्ता युक्त सस्ते माल के सामने घरेलू उत्पाद प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते हैं, यही कारण है कि आज हर घर में दीपक से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स तक चाइनीज हो गया है। स्वदेशी के नारों का स्वर धीमा हो गया है, गृहस्थी के अर्थशास्त्र के सामने राष्ट्रभक्ति ने घुटने टेक दिए, महाशक्ति अमेरिका की संरक्षण वादी नीतियां भी चीन के उत्पाद के सामने विफल सिद्ध हुई हैं, क्या यूरोप, क्या अफ्रीका और क्या एशिया पूरी दुनिया के बाजार पर आज चीन का कब्जा है और इसमें भी कोई शक नहीं कि कोरोना महामारी से उपजे वैश्विक आर्थिक संकट का लाभ चीन मनमाने ढंग से उठाएगा।
दुनिया के तमाम छोटे देश, पहले ही उसके कर्जदार हैं और इस संकट के बाद उनकी निर्भरता चीन पर और बढ़ जाएगी। अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में चीन अपने अधिकारियों की नियुक्ति बढ़ा रहा है, जिसके मार्फत वह अंतर्राष्ट्रीय नीतियों को अपने अनुकूल प्रभावित करना चाहता है। 5G टेक्नोलॉजी के लिए सभी देश हुवावे पर निर्भर है, जिसकी गतिविधियां जासूसी के लिए संदिग्ध है और कई यूरोपिय देश इस पर बैन लगा चुके हैं।
चीन के छात्र और थिंक टैंक पूरी दुनिया पर गहनता से रिसर्च कर रहे हैं। चीन द्वारा किए जा रहे इन सभी प्रयासों के केंद्र में व्यापार ही है अर्थात् आर्थिक उपनिवेश! जिसके लिए उसने अपने प्रभाव से अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक नैतिकता के नियम शिथिल कर दिए।
भारत सरकार द्वारा एफडीआई नीति में किए गए परिवर्तन समय की मांग के अनुसार बिल्कुल उचित है, किंतु कोरोना संकट के बाद यदि भारतीय अर्थव्यवस्था को किसी भीषण आर्थिक संकट का सामना करने से बचाना है, तो भारत को ट्रेड इकोनामी के बजाय मैन्युफैक्चरिंग इकोनामी की ओर ले जाना होगा।
मेक इन इंडिया की सार्थकता के लिए घरेलू व्यापारियों को प्रोत्साहित करना होगा ना कि विदेशी कंपनियों पर निर्भर रहना। जिसके लिए सरकार को विशेष तौर पर माइक्रो, लघु और मध्यम उद्योगों में जान फूंकनी होगी, इज ऑफ डूइंग बिजनेस के नियमों पर फिर से विचार करना होगा और उनमें आवश्यकतानुसार सुधार करना होगा।
तकनीकी संस्थानों जैसे आईआईटी और अन्य विश्वविद्यालयों का सिलेबस अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के अनुरूप बदलना होगा, शोध के लिए अत्याधुनिक प्रयोगशालाओं का निर्माण करना होगा और वर्तमान प्रयोगशालाओं को विश्वस्तरीय सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी, ब्रेन ड्रेन को रोकना होगा और सबसे महत्वपूर्ण किसान और खेतिहर मजदूर की उत्पादकता बढ़ाने आमदनी बढ़ाने और जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ लेना होगा। फिर भारत, चीन के आर्थिक उपनिवेशवाद का जवाब ही नहीं देगा बल्कि पूरी दुनिया के साथ स्वस्थ व्यापारिक प्रतिस्पर्धा करेगा।
(लेखक रिसर्च स्कॉलर, एनआईटी भोपाल है)