ख़ाक में मिल गई इंदौर के श्रमिक आंदोलन के इतिहास की किताब
-टूटी नहीं, लड़ती रहीं पेरिन दाजी
स्मृति शेष
(कीर्ति राणा )
कौन होमी दाजी? मनमोहन-मोदी के जमाने वाली इंदौर की पीढ़ी जब होमी एफ दाजी को ही नहीं जानती तो उनकी पत्नी पेरिन दाजी के नाम से अनभिज्ञ होना स्वाभाविक है।जो थोड़े बहुत युवा सुरेश सेठ को इंदौर के शेर के नाम से जानते भी हैं उन्हें भी यह नहीं पता कि सुरेश सेठ से पहले पुरानी पीढ़ी लाल झंडे का मतलब होमी दाजी और दाजी को इंदौर के शेर के नाम से पहचानती थी।इंटक को यदि विवि द्रविड़ पर नाज था तो उससे जुड़े हजारों श्रमिक भी उग्र आंदोलन के वक्त होमी दाजी के इशारे का इंतजार करते थे।
1962 के लोकसभा चुनाव में इंदौर संसदीय क्षेत्र से जिन कॉमरेड होमी दाजी ने जीत दर्ज कराई उन्हीं के नाम से राजकुमार ब्रिज पुल का नामकरण करने की मांग को लेकर पेरिन दाजी ने शिवराज सरकार के वक्त अहिंसक आंदोलन किया था।पुल का नामकरण भाजपा की राजनीति के चलते उलझा दिया गया था।पहले बेटे रुसी (रुस्तम) की मौत, 1992 में ब्रेन हेमरेज के चलते करीब 17 साल बेड पर रहे होमी दाजी की 2009 में मौत इसके बाद डॉक्टर बेटी रोशनी भी चल बसी। लगातार सदमे झेलने के बाद भी पेरिन दाजी न टूटी और न ही उनके तेवर ठंडे पड़े। जितना शरीर कमजोर हुआ, इरादे उतने ही मजबूत होते गए।कपड़ा मिलें जब इंदौर की पहचान थीं तब श्रमिक आंदोलनों में इंदौर, मुंबई, कोलकाता की पहचान थी। कॉमरेड होमी दाजी के नाम से भी इंदौर पहचाना जाता था। मिलों की चिमनियों ने धुआँ उगलना बंद किया, मजदूर अपने बकाया वेतन के लिए आंदोलन करने लगे तो होमी दाजी के अभाव की पूर्ति पेरिन दाजी ने की। मजदूरों की लड़ाई, धरना-प्रदर्शन-आमसभा में पेरिन दाजी की मौजूदगी मजदूरों में जोश भरती थी।बाद में वे महिला अधिकारों, महिला श्रम संगठनों की पेरोकार हो गईं।
उम्र का बोझ संभालती छड़ी के सहारे खरामा खरामा वे हर बैठक-आंदोलन, शोकसभा में अपनी मौजूदगी का अहसास कराती थीं। जिन दिनों दाजी साहब बेड पर थे और लगातार सत्रह साल पेरिन दाजी उनकी तीमारदारी में लगी रहती थीं एक दिन दाजी ने इशारों इशारों में पूछ लिया मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा? उनका जवाब था चिंता मत करो, आपने इंदौर के लिए खुद को समर्पित कर दिया है तो मुझे दो वक्त की रोटी तो कोई दे ही देगा।वे जितनी अच्छी गृहिणी थीं, माँ, नागरिक और शिक्षक भी उतनी ही बेहतर थीं। स्नेहलतागंज के जिस पारसी परिवार में जन्मी वो संपन्न परिवार था। पिता होल्कर रियासत में मुलाजिम थे।स्कूली पढ़ाई सेंट रेफियल, मल्हारआश्रम से हुई लेकिन कॉलेज की पढ़ाई को एजुकेशन से नहीं कराने के निर्णय के तहत घर पर ही ट्यूशन शुरु कराई गई, पढ़ाने आते थे युवा होमी दाजी। पढ़ाई के साथ प्रेमांकुर भी फूट पड़ा, घर के सदस्यों की असहमति थी, खुद दाजी ने भी समझाया लेकिन वे अपनी जिद पर अड़ी रहीं।
दोनों ने शादी की कुछ वक्त परिजनों की नजरों से दूर रहे। एक कॉमरेड के संपर्क में आने का ऐसा असर हुआ कि संपन्न परिवार की इस युवती ने भी खुद को उसी रंग में ढाल लिया। तब भी वे टूटी नहीं, मजदूरों के संघर्ष में वे दाजी की सहयोगी बन गईं और यह जूनून दोनों बच्चों और दाजी की जुदाई के बाद भी बरकरार रहा, हुकमचंद मिल मजदूरों के आंदोलन में उनके तेवर इस शहर ने देखे हैं।वैसे तो कपड़ा मिलों की समाप्ति के साथ ही इंदौर की पहचान रहा श्रमिक आंदोलन भी समाप्त हो गया है लेकिन पेरिन दाजी के होने का मतलब था आंदोलन के चलते फिरते इतिहास का अपने बीच होना। वक्त के थपेड़ों से इतिहास की जर्जर हो चुकी यह किताब भी अब ख़ाक में मिल गई।