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भारत, भारतीयता और जिंदगी का फलसफा, सबकुछ है अटलजी की इन 12 कविताओं में

भोपाल। भारत, भारतीयता और जिंदगी का फलसफा, अटल जी की कविताओं में ये सारे भाव देखने को मिलते थे। भारत के स्वाभिमान की बात हो या भारतीयता की शान की, या फिर बात हो जिंदगी के छोटे-बड़े सबक की। अटल जी की कविताओं में हर वो भाव था जो जिंदगी जीने का तरीका बताता था। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए हमने उनकी ऐसी ही दस रचनाएं पाठकों के लिए चुनी हैं।

1. पहली अनुभूति: गीत नहीं गाता हूं
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नजर बिखरा शीशे-सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ में छुरी सा चांद, राहु गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं

2.दूसरी अनुभूति: गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूं
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा
काल के कपाल पर लिखता- मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं

3. कदम मिलाकर चलना होगा
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.

4. मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूंठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना,
गैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।

5. स्वतन्त्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा
अगणित बलिदानों से अर्जित यह स्वतन्त्रता,
अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता।
त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतन्त्रता,
दुखी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतन्त्रता।

इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो,
चिंगारी का खेल बुरा होता है ।
औरों के घर आग लगाने का जो सपना,
वो अपने ही घर में सदा खरा होता है।

अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो,
अपने पैरों आप कुल्हाडी नहीं चलाओ।
ओ नादान पड़ोसी अपनी आंखे खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।

पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है?
तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई।
अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे़ पाये हैं,
मां को खंडित करते तुमको लाज ना आई?

अमरीकी शस्त्रों से अपनी आजादी को
दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो।
दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बर्बादी से
तुम बच लोगे यह मत समझो।

धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से
कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो।
हमलों से, अत्याचारों से, संहारों से
भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो।

जब तक गंगा मे धार, सिंधु मे ज्वार,
अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष,
स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे
अगणित जीवन यौवन अशेष।

अमरीका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध,
काश्मीर पर भारत का सर नही झुकेगा
एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,
पर स्वतन्त्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा।

6. हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय
मैने छाती का लहू पिला, पाले विदेश के क्षुधित लाल।
मुझको मानव में भेद नहीं, मेरा अन्तस्थल वर विशाल।
जग से ठुकराए लोगों को लो मेरे घर का खुला द्वार।
अपना सब कुछ हूं लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार।
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट।
यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरीट तो क्या विस्मय?
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय!

होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूं सब को गुलाम?
मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल–राम के नामों पर कब मैने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर–घर मे नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल मे जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी?
भूभाग नहीं, शत–शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय!

7. टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से,
न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है,
किरण अंतिम अस्त होती है
दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते।
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।

8 मैंने जन्म नहीं मांगा था
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करुँगा।
जाने कितनी बार जिया हूँ,
जाने कितनी बार मरा हूँ।
जन्म-मरण के फेरे से मैं,
इतना पहले नहीं डरा हूँ।

9 मौत से ठन गई
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी है कोई गिला।
मौत से ठन गई
ठन गई!
मौत से ठन गई

10आओ फिर से दिया जलाएं
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं

11. दूर कहीं कोई रोता है
तन पर पहरा भटक रहा मन
साथी है केवल सूनापन
बिछुड़ गया क्या स्वजन किसी का
क्रंदन सदा करूण होता है
दूर कहीं कोई रोता है

जन्म दिवस पर हम इठलाते
क्यों ना मरण त्यौहार मनाते
अन्तिम यात्रा के अवसर पर
आँसू का अशकुन होता है
दूर कहीं कोई रोता है

अंतर रोयें आँख ना रोयें
धुल जायेंगे स्वप्न संजोये
छलना भरे विश्व में केवल
सपना ही तो सच होता है
दूर कहीं कोई रोता है

इस जीवन से मृत्यु भली है
आतंकित जब गली गली है
मैं भी रोता आसपास जब
कोई कहीं नहीं होता है
दूर कहीं कोई रोता है

12. दूध में दरार पड़ गई
ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

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