दान की तीज अक्षय तीज
वीरायतन साध्वी पूज्य दिव्य पूर्णा
दान की तीज अक्षय तीज.। जिस दिन दान दिया, वह दिन अक्षय हो गया। दान देने वाले राजा श्रेयांश कुमार थे.. और लेने वाले भगवान ऋषभदेव( आदिनाथ प्रभु )..। दान तो भगवान आदिनाथ ने भी दिया था एक वर्ष तक हजारों लाखों लोगों ने भगवान द्वारा दिया गया दान लिया ..साक्षात भगवान दे रहे हैं वह दिन अक्षय नहीं हुआ और श्रेयांश कुमार ने दिया तो दिन अक्षय हो गया..।
भगवान आदिनाथ ने दीक्षा ली साधना के मार्ग पर चल दिये एक राजा आज भिक्षु है हर द्वार पर जाते हैं आहार के लिए.. लेकिन भोली प्रजा.. भोले लोग ..भगवान को हाथी , घोड़े ,वस्त्र, रत्न, कन्या, दे रहे हैं… क्यों दे रहे हैं भगवान जो राजा थे आज एक साधु हैं.. एक ही वस्त्र है उनके पास तो वस्त्र दे रहे हैं.. आज भगवान के पैर जमीन पर हैं.. खुले हैं ..वो जमीन पर चल रहे हैं.. कभी हाथी पर बैठते थे इसलिए हाथी घोड़े दे रहे हैं ..राजा है इसलिए कन्या और आभूषण दे रहे हैं ..राजा जिन चीजों से शोभा देता है वही चीज दे रहे हैं.. लेकिन भगवान मौन हैं वही चीजें सामने आ रही है जो भगवान ने स्वयं एक वर्ष तक दान में दी है ..।विचरण करते भगवान का हस्तिनापुर नगरी में आगमन हुआ भगवान कुछ नहीं ले रहे हैं… प्रजा के लोग बोल रहे हैं ..पीछे घूम रहे हैं राजा श्रेयांश ने देखा और जाति स्मरण ज्ञान( पिछले जन्मो का स्मरण ) हुआ ..जाति स्मरण ज्ञान से जाना कि साधु को भौतिक सामग्री की आवश्यकता नहीं है ..उन्हें तो आहार दिया जाता है.. राजा श्रेयांश को नगर श्रेष्ठी ने इक्षु रस( गन्ने का रस ) के घड़े उपहार में दिए थे.. यहां सवाल यह कि कोई राजा को इक्षु रस भेट में क्यों देगा राजा को देना होता तो श्रेष्ठ हीरे मोती कीमती वस्त्र देता.. ईक्षु रस क्यों दिया .. कीमती चीजें तो लोग भगवान को भी देते थे.. ईक्षु रस कोई कीमती वस्तु पौष्टिक आहार या पूर्ण आहार नहीं है.. तो क्यों ईक्षु रस दिया .. आज भी हम सामान्य मनुष्य एक दूसरे को ईक्षु रस भेट में नहीं देते …शायद नगर सेठ ने उस समय नए मशीन ..या नए तरीके से.. जो इक्षु को चूस के रस ना ले आसानी से रस का आनंद ले सके ..इसलिए राजा को प्रथम इस तकनीक द्वारा बनाया गया रस दिया जाए इसलिए भेज दिया.. राजा श्रेयांश ने भी क्या किया ..स्वयं के लिए उपहार के रूप में आया हुआ ईक्षु रस बिना चखे भगवान को दे दिया.. यह तो ऐसी घटना हुई सेठ ने दान दिया श्रेयांश को.. और श्रेयांश ने दान दिया भगवान को .. सेठ के मन में जरा सा भी यह भाव नहीं आया कि मैंने तो राजा को दिया था ..।शायद राजा वह इक्षु रस पी के आनंदित होकर कुछ मूल्यवान उपहार वापस देगा लेकिन एक बार किसी को दे दिया फिर हमारा अधिकार उस वस्तु पर नहीं रहता..। वह अब उनका हो गया.. सही अर्थों में दान वही है ..।दान देने के बाद वह चीज सामने भी आ जाए तो वह आपकी कभी थी वह भी स्मृति में ना हो तो सही दान है ..।आजकल महिलाएं कामवाली को अपनी पुरानी साड़ी देती है जब वह साड़ी पहनकर आती है तो मन में भाव आते हैं.. वह मेरी साड़ी पहन कर आई है.. यह सही नहीं है ..।राजा श्रेयांश कुमार ने भी जब दान देने की बारी आई जाति स्मरण ज्ञान से पता था कि साधु को आहार देना चाहिए ईक्षु रस ही क्यों दिया।
राज महल में सैकड़ों पकवान बने थे.. जो पौष्टिक और पूर्ण थे.. परंतु देने की भावना में इतने लालायित थे कि अभी क्या है ..जो तुरंत ही दे दूंगा और ढूंढने का समय नहीं निकालना था.. इसलिए आसपास देखा पास में ही ईक्षु रस के घड़े रखे थे .. और भगवान को आग्रह किया ..भगवन कृपा करो.. आहार ग्रहण करके हमें कृतार्थ करो ..भगवान ने दोनों हाथों की अंजलि बना ली और आहार ग्रहण किया.. तीज का वह दिन श्रेयांश कुमार दे रहे हैं.. भगवान ग्रहण कर रहे हैं.. और यह घटना अक्षय अमर हो गई.. बाद में भगवान ने एक लाख पूर्व तक चरित्र पालन किया है.. कई पारणे हुए ..कइ आहार दान दिए गए.. परंतु वह घटनाएं अमर अक्षय नहीं हुई.. भगवान महावीर का प्रथम पारणा ही सबको याद है और बाकी सब का ध्यान नहीं.. कुछ और याद है चंदनबाला के उड़द के बाकुले.. रेवती श्राविका का बिजोरा पाक भी याद है.. क्योंकि उस समय दान देने वाले का आनंद उल्लास कुछ और ही था..।
दान निर्दोष होना चाहिए.. उत्कृष्ट होना चाहिए.. वापस कुछ मिलने की भावना दान को मलिन बना देती है..। दान मिलावटी नहीं होना चाहिए… यहां श्रेयांश जो दान दे रहे हैं लेकिन मन में भाव यह है कि मुझ पर कृपा बरस रही है और जो ले रहे हैं स्वयं भगवान हाथ नीचे है दीनता नहीं है…। देने वाले में अहंकार नहीं था… और लेने वाले में दीनता नहीं थी .. इसलिए दान अक्षय हो गया.. अमर हो गया..।