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‘अपना इंदौर’ के बाद अभयजी लिख रहे हैं ‘होल्कर राजवंश’ का इतिहास

 नईदुनिया की लायब्रेरी का जिक्र करते हुए पनीली हो गईं उनकी आंखें

 

(कीर्ति राणा, इंदौर )

 

जब निर्माण चल रहा था तब शहर ही नहीं मप्र के खेल इतिहास की  उपलब्धियों में शामिल होने वाली इस भव्य इमारत का नाम खेल प्रशाल था और जिस दिन तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह खेल प्रशाल का लोकार्पण करने (1983 में)आए उन्हीं के आग्रह-अनुरोध पर खेल जगत की इस भव्य इमारत को नाम दिया गया अभय प्रशाल। यह एक तरह से खेल जगत में अभयजी की सेवा का सम्मान भी कहा जा सकता है।

उसी अभय खेल प्रशाल में तल मंजिल के एक सुसज्जित कक्ष में पद्मश्री अभय छजलानी नियमित बैठते हैं, लेखन करते हैं। उनकी यह सक्रियता अहसास कराती रहती है कि उनके सीने में इंदौर भी उतनी ही सक्रियता से धड़कता है। नईदुनिया भले ही अन्य हाथों में चला गया लेकिन इस अखबार को तब जिन लोगों के सामूहिक विचार और अनुशासित पत्रकारिता से मजबूती-ऊंचाइयां मिलीं उनमें बाबूजी लाभचंद छजलानी के बाद नरेंद्र तिवारी, राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, अभय छजलानी, विष्णु चिंचालकर आदि नाम रेखांकित किए जा सकते हैं। कभी नईदुनिया इंदौर की धड़कन था, वही इंदौर अब भी अभय जी के दिल में धड़कता है।इसी ‘अपना इंदौर’ का तीन खंडों में इतिहास लिखने के बाद अब अभय जी होल्कर राजवंश (1726 से) का इतिहास लिख रहे हैं, अब तक तीन वॉल्यूम लिख चुके हैं, लेखन जारी है।
फोन किया नहीं, मिलने का वक्त भी नहीं लिया, अभय जी से मुलाकात को अचानक ही चले गए।उसी चिर-परिचित आत्मीयता से मिले। पहला वाक्य जो कहा तुम लोगों को अंदर आने की इजाजत लेने की जरूरत नहीं, कोई मिलने आ जाता है तो अच्छा लगता है।
उनकी मेज पर ‘प्रजातंत्र’ रखा था, बात करते करते उन्होंने हेमंत शर्मा को फोन लगाया, बेहतर लेआउट की बधाई के साथ ही चुनाव पर लिखे संपादकीय की तारीफ करते हुए कह रहे थे इतना सुंदर लेआउट है, बीच वाले पन्ने पर पढ़ने को इतना कुछ होता है कि एकसाथ पढ़ना संभव नहीं होता।
उनकी बात खत्म हुई कि मैंने कहा आजकल तारीफ का यह भाव तो खत्म सा हो चला है। आप इतनी सहजता से तारीफ करें यह देख-सुनकर अच्छा लगा। अभय जी कहने लगे अब तो अखबार बस निकलने के लिए निकाले जा रहे हैं, इस तरह की मेहनत कहां हो रही है।अभी जो पत्रकारिता की स्थिति है वह तो बिछ जाने वाली है, कौन हिम्मत कर पा रहा है खरा खरा लिखने की। अब तो किन्हीं मुद्दों पर खुलकर बात करने से पहले सोचना पड़ता है, ऐसी स्थिति पहली बार देखने में आ रही है। इसी बीच अभय प्रशाल-लाभ मंडप के सत्कार-जनसंपर्क अधिकारी महेंद्र सिंह खींची किसी मामले पर उनसे सलाह लेने आ गए।
बात फिर उसी मुद्दे पर शुरु न हो जाए, मैंने विषयांतर के लिहाज से पूछा ‘अपना इंदौर’ के बाद अभी कुछ नया लिख रहे हैं ? वे बोले अब होल्कर राजवंश पर इसलिए लिख रहा हूं कि विस्तार से इस राजवंश की जानकारी उपलब्ध नहीं है, जबकि इंदौर की बसाहट से लेकर विकास तक में इस राजवंश की महती भूमिका रही है।
इस प्रामाणिक लेखन के लिए तो आपके पास संदर्भ जरूरी है, किसी जमाने में नईदुनिया की लायब्रेरी देश की पत्रकारिता में पहचान रखती थी। नईदुनिया के सौदे के दौरान उस लायब्रेरी का क्या हुआ, आप साथ ले आए क्या?
मेरा प्रश्न था तो लायब्रेरी को लेकर लेकिन उनके चेहरे के भाव के साथ ही आंखें बता रही थी जैसे नईदुनिया जलरंग वाली रांगोली की तरह हो गया हो। मैं पूरी लायब्रेरी तो ला नहीं सका, जितनी किताबें ला सकता था ले आया।अपने कक्ष की किताबे दिखाने के साथ ही वे बोले चलो आओ आप लोगों को लायब्रेरी वाले कमरे भी दिखाता हूं।मैं वरिष्ठ पत्रकार उमेश रेखे, फोटो जर्नलिस्ट राजू रायकवार (स्वदेश) अभय जी के पीछे-पीछे उन दो कमरों में जाते हैं जहां आदमकद रेक में व्यवस्थित तरीके से सैंकड़ों किताबें रखी हुई हैं। इस लायब्रेरी को अशोक जोशी और कमलेश सेन संभाल रहे हैं । अभयजी बता रहे हैं ये सौ खंड हैं ‘कलेक्टेड  वर्कस ऑफ महात्मा गांधी’ के ये सारे वॉल्यूम शायद ही किसी अन्य के पास मिलें। मोहन वर्मा बताने लगते हैं ये सारे नईदुनिया के दीपावली अंक, खास अवसरों पर निकाले नईदुनिया के अंक हैं, ये अभय जी के लिखे लेख-संपादकीय का संग्रह है।
अभय जी से जब मैंने पूछा कि ये पूरी लायब्रेरी तो नहीं है।उनकी आंखें नम हो चली थीं, आवाज में कुछ थर्रथराहट महसूस हो रही थी। रुक रुक कर वो कह रहे थे मैं जितनी किताबें ला सकता था, ले आया। जितनी व्यवस्थित तरीके से यहां रखी हैं वहां शायद ही हो।अभय जी ये सारा जिक्र करते हुए कहीं खो से गए थे और मेरे जेहन में जाने क्यों अचानक ही वह गीत गूंज रहा था ये आंसू मेरे दिल की जुबान है…’

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