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बंबई में वो पहला दिन : जब मेरे अन्नदाता और आश्रयदाता बने कमलेश्वर

(कीर्ति राणा)

अस्सी के दशक का वह किस्सा पिछले दिनों फिर याद आ गया जब सूत्रधार के सत्यनारायण व्यास द्वारा कमलेश्वर जी की स्मृति में आयोजित समारोह में चित्रकार-साहित्यकार प्रभु जोशी ने कमलेश्वर जी से जुड़ी यादों को सुनाते हुए मेरा नामोल्लेख किया। समारोह समापन पश्चात मैंने जब कमलेश्वर जी की पुत्री मानू (ममता) और उनके दामाद आलोक त्यागी (सुप्रसिद्ध शायर-हिंदी ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार के पुत्र) से मुलाकात की तो उन्हें भी वह प्रसंग सुनाया जब अस्सी के दशक में बंबई गया था और पहले ही दिन कमलेश्वर जी मेरे अन्नदाता और आश्रयदाता बन गए।
आलोक भाई ने तफ़सील से किस्सा सुनने की दिलचस्पी दिखाई, मैंने उन्हें बताया कि तब साप्ताहिक हिंदी करंट में प्रूफरीडर की जरूरत थी। कवि-प्रोफेसर सरोजकुमार ने मुझे बंबई जाने का सुझाव दिया कि रमेश निर्मल से मिल लेना वहां। गुजराती कॉलेज के मेरे मित्र अनिल मलिक के पिता डॉ ए मलिक का परदेशीपुरा चौराहे पर क्लिनिक था। जब उन्हें पता चला कि मुझे बंबई (जो अब मुंबई है) जाना है तो उन्होंने अपने दामाद प्रभु जोशी (आकाशवाणी में एनाउंर रहीं अनिता मलिक के पति) से कमलेश्वर के नाम एक चिट्ठी लिखवा दी।प्रभुदा से इस तरह परिचय हुआ।
बंबई पहुंचा, उस पहले दिन रमेश निर्मल दादर मुंबई सकाल में करंट की प्रिटिंग देखने गए थे, ऑफिस नहीं आए। संपादक डॉ महावीर अधिकारी ऑफिस आए और कुछ घंटों बाद चले भी गए। शाम होते ही ऑफिस बंद होने की तैयारी होने लगी। ऑफिस के टाइपिस्ट झा बाबू को मैंने अपनी परेशानी बताई कि मेरे पास रहने की समस्या है, कहाँ रहूंगा। उसने असमर्थता व्यक्त कर दी। तब करंट में कमलेश्वर जी का ‘परिक्रमा’ कॉलम प्रिंट होता था।

मैंने झा बाबू से कहा मुझे कमलेश्वर जी से मिलना है, उन्होंने कहा मंत्रालय से 222 नंबर डबल डेकर बस जाती है जुहू तक, वहीं उनका ऑफिस है। बस से जुहू पहुंचा, दो जोड़ कपड़ों वाली अटैची और कंधे पर कपड़े के झोले में एक दरी-चादर, स्टील की थाली-ग्लास लिए, पूछते पूछते कथा यात्रा के ऑफिस पहुंचा। शाम के करीब साढ़े सात बजे थे। ऑफिस के प्यून ने बताया कमलेश्वरजी मीटिंग में हैं। यह मीटिंग लंबी खिंचती गई। पानी-सिगरेट-नाश्ता आदि का दौर चल रहा था और बाहर बैठा मैं कुढ़ रहा था। रात साढ़े दस के करीब उनकी मीटिंग खत्म हुई, दोस्तों को सीऑफ कर कमलेश्वर जी वापस केबिन की तरफ मुड़े, केबिन का दरवाजा बंद होने से पहले ही मैं ऊँची आवाज में प्यून से कहने लगा कमलेश्वरजी को बताओ ना मैं इंदौर से आया हूँ, प्रभु जोशी ने भेजा है मुझे।(मैं ऊँची आवाज में बोला ही इसीलिए था कि उनके कानों तक बात पहुंच जाए)
कमलेश्वर जी वापस पलटे, बाहर आते हुए पूछा कौन आया है इंदौर से? मैं पास गया, नमस्कार किया और प्रभु जोशी वाला पत्र उनके हाथ में थमा दिया। पत्र पढ़ने के बाद मेरे चेहरे पर नजरे गढ़ाते हुए पूछा-तुमने खाना खाया? मैंने हाँ कहते हुए सिर हिला दिया। उन्होंने कहा झूठ बोल रहे हो, नहीं खाया है। उन्होंने गर्दन ऊँची करते हुए कहा डॉक साब (शायद डॉ लाजपत राय) ये कीर्ति, आज आप के यहां रहेंगे। इन्हें खाना खिलाइए, सुलाइए और कल सुबह बस स्टॉप पर छोड़ दीजिए।
अब मुझ से कहने लगे, सुनो भई, अब तुम बंबई से वापस नहीं जाओगे, कथायात्रा के दरवाजे तुम्हारे लिए खुले हैं। ‘करंट’ में नौकरी नहीं भी मिले तो चिंता मत करना, यहां काम है तुम्हारे लिए।
कमलेश्वर जी ने जिस तरह पहली मुलाकात में सीधे खाने का पूछा, रहने का इंतजाम किया, वह पूरा प्रसंग मेरे दिलोदिमाग़ पर अंकित हो गया। इतने बड़े आदमी, इतने बड़े लेखक कमलेश्वर, यह बाकी सब के लिए होंगे मेरे लिए वो एक ऐसे संवेदनशील इंसान, छोटे से क़स्बे के ऐसे व्यक्ति जिससे कोई पहली मुलाकात करे तो वह आम जन की तरह चाय-पानी-खाने का ही पूछता है।

(चित्र में कमलेश्वरजी की पुत्री ममता (मानू)और दामाद आलोक त्यागी।)

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