मेहनतकशों के मंसूबों ने किया इंद्रदेव का घमंड पानी-पानी
( कीर्ति राणा)
इंदौर हर साल ऐसा होता ही है कि चल समारोह से पहले गणेश जी की विदाई बेला में सड़क धोने, पांव पखारने की अपनी ड्यूटी पूरी करने इंद्रदेव आते ही हैं। गुरुवार की दोपहर तो जैसे पानी डराने के लिए ही बरसा कि हिम्मत हो तो रात को झांकी निकाल के दिखाओ। शहर की इस अखंड परंपरा को खंडित करने के इंद्र देव के इरादे की मेहनतकशों के मंसूबों के आगे एक न चली।
झांकियों के कारवे की कभी बत्ती गुल करना पड़ी तो कभी फासला बढ़ गया लेकिन रुकते रुकाते परंपरागत मार्गों से शहर की पहचान की झांकी आगे बढ़ती रही।सड़कों पर पानी था और मजदूरों के श्रम की सराहना करने वाला सैलाब दोनों किनारों की दुकानों, मकानों की छतों के नीचे सिमट गया था। रेनकोट से लेकर छाते के नीचे लोग भीग रहे थे और झांकियों के आगे चल रहे अखाडों के कलाकार करतब दिखाते, पसीना और पानी एक करते चल रहे थे। सड़कों पर सैलाब कम होने, झांकियां फटाफट आगे बढ़ते जाने से प्रशासन भले ही अपनी मूंछें ऐंठ ले कि समय से पहले झांकियां निकाल दी लेकिन व्यवस्था में लगे तमाम विभागों के अधिकारी अपने अनुभव लिखते हुए यह जिक्र करना नहीं भूलेंगे कि इंदौर में कपड़ा मिलों की चिमनी ने धुआं उगलना भले ही बंद कर दिया हो लेकिन तीन दशक पहले वाला उत्साह आज भी उफान पर है तो इसलिए कि अपने बलबूते पर विकसित होने वाले इस शहर को अपनी परंपराओं पर नाज है।