समग्र’ दृष्टि का लघुकथा विशेषांक : लघुकथा के वास्तविक कलेवर से नए लघुकथाकारों का परिचय करवाता है
(शालिनी रस्तोगी)
दिल्ली।समग्र’ दृष्टि का यह लघुकथा विशेषांक संपादक अशोक जैन के कुशल संपादन में अपने नाम को सार्थक सिद्ध कर रहा है। सम्पादकीय के माध्यम से लघुकथा की संकल्पना से लेकर उसकी क्रमबद्ध विकासयात्रा को नवोदित लघुकथाकारों के समक्ष रखने का भागीरथ प्रयत्न वस्तुतः श्री जैन के समर्पण भाव की पराकाष्ठ को प्रस्तुत करता है एवं लघुकथा के वास्तविक कलेवर से नए लघुकथाकारों का परिचय करवाता है।
‘दृष्टि’ का यह विशेषांक 1978 में प्रकाशित लघुकथा संकलन ‘समग्र’ का पुनर्प्रकाशन है। ‘समग्र’ समग्रता से लघुकथा के विविध आयामों से बेबाकी से परिचित कराती डॉ. अशोक भाटिया का प्रस्तुति आलेख अपनी महीन दृष्टि से लघुकथा के एक अंश को भी अछूता नहीं छोड़ता।
देश-विदेश के कथाकारों से लेकर लघुकथा के सबल परिपुष्ट लेखकों को इंगित करता, उनकी कमजोरियों के लिए उन्हें कटघरे में खड़ा करके सवाल पूछता यह लेख बिना किसी लाग-लपेट के लघुकथाकारों और संपादकों की वस्तुस्थिति हमारे समक्ष खोलकर रख देता है। यह आलेख वस्तुतः लघुकथा और गैर्लाघुकथा के अंतर को दो-फाड़ करता है और लघुकथा की दुनिया के बाजारीकरण और अतिशीघ्रता की प्रवृत्ति के खतरों से आगाह करवाता यह लेख पुनर्पठनीय है|
हिंदी लघुकथा के शिल्प और रचना विधान से परिचित होना हो या उसकी क्रमबद्ध यात्रा का साझेदार बनना हो, ‘दृष्टि’ के इस अंक की यात्रा पृष्ठ दर पृष्ठ यात्रा आपके लिए हर पृष्ठ पर लघुकथा का एक नया आयाम खोलती जाएगी और आप धीरे-धीरे उन गहराइयों में उतरते लघुकथा की आत्मा को अपने भीतर समाहित होता महसूस कर पाएँगे।