दलाई लामा के बाद मोदी से मिली नैंसी पेलोसी:इनके भारत दौरे से भड़का चीन, कहा- तिब्बती धर्मगुरु अलगाववादी; गलत संदेश देना बंद करे अमेरिका
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुरुवार को तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से मिलने आए एक अमेरिकी डेलीगेशन से मिले। इस दौरान PM मोदी ने पूर्व यूएस हाउस स्पीकर नैंसी पेलोसी से भी मुलाकात की। पीएम मोदी और अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के बीच इस मुलाकात के कई मायने तलाशे जा रहे हैं।
दरअसल ये पहली बार है जब कोई विदेशी प्रतिनिधिमंडल भारत की जमीन से तिब्बत के समर्थन में आवाज उठा रहा है। हालांकि नैंसी इससे पहले मई 2017 में भी दलाई लामा से मिलने भारत आई थीं। हालांकि तब नैंसी पेलोसी किसी डेलीगेशन के साथ भारत दौरे पर नहीं आई थीं।
गौर करने वाली बात ये है कि भारत, तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है और इसे लेकर टिप्पणी करने से परहेज करता रहा है। अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल का ये दौरा आधिकारिक है या नहीं इसे लेकर अभी तक कोई जानकारी नहीं मिल पाई है।
बुधवार को अमेरिकी प्रतिनिधि मंडल ने कहा कि अमेरिका, चीन को दलाई लामा के ‘उत्तराधिकार’ मामले में हस्तक्षेप की इजाजत नहीं देगा। दरअसल, चीन तिब्बती धर्मगुरु के सर्वोच्च पद पर अपने ‘दलाई लामा’ को बैठाना चाहता है।
बुधवार को US डेलीगेशन से मिले थे दलाई लामा
इससे पहले बुधवार को अमेरिकी प्रतिनिधिनंडल ने धर्मशाला में धर्मगुरु लगाई लामा से मुलाकात की थी। इस प्रतिनिधिमंडल में नैंसी पेलोसी के अलावा सांसद माइकल मैकॉल समेत 5 अन्य सांसद हैं। ये सांसद रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स दोनों ही पार्टियों से हैं। इस डेलीगेशन का नेतृत्व रिपब्लिकन सांसद माइकल मैकॉल कर रहे हैं।
माइकल मैकॉल ने कहा कि इस सप्ताह उन्हें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने एक लेटर लिखा था जिसमें हमें यहां न आने की धमकी दी गई थी। लेकिन हमें उनकी धमकियों की परवाह नहीं है। अमेरिका, तिब्बत को हमेशा की तरह एक शक्तिशाली ताकत बने रहने में मदद करेगा। डेलीगेशन ने कहा कि वे दलाई लामा और चीनी सरकार के बीच बातीचत का अवसर तलाश रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि तिब्बत और चीन के बीच एक शांतिपूर्ण समाधान निकलेगा।
12 जून को अमेरिका में पास हुआ तिब्बत से जुड़ा बिल
अमेरिका में 12 जून को तिब्बत से जुड़ा एक बिल ‘द रिजोल्व तिब्बत एक्ट’ पास किया गया था। इस पर फिलहाल जो बाइडेन के दस्तखत होने बाकी हैं। इस एक्ट तिब्बत का समर्थन करता है और चीन और दलाई लामा के बीच बिना किसी शर्त के बातचीत बढ़ाने के पक्ष में है।
चीन ने अमेरिका को दी धमकी
इस बिल को लेकर अप्रैल में चीन की प्रतिक्रिया आई थी। चीन ने कहा कि दलाई लामा अलगावादी हैं और अमेरिका को उनके चीन विरोधी रवैये को पहचानना चाहिए। चीन ने चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर अमेरिका, शीजांग (तिब्बत) को चीन का हिस्सा ना मानते हुए, अपने ही पुराने वादे से पीछे हटेगा तो चीन उसका कड़े अंदाज में जवाब देगा।
कम्युनिस्ट सरकार आने के बाद तिब्बत पर चीन का रुख बदला
चीन और तिब्बत के बीच विवाद बरसों पुराना है। चीन, तिब्बत को अपना ‘शीजांग’ प्रांत बताता है। चीन के मुताबिक तिब्बत तेरहवीं शताब्दी से ही चीन का हिस्सा रहा है इसलिए तिब्बत पर उसका हक है। हालांकि तिब्बत चीन के इस दावे को खारिज करता है।
साल 1912 में तिब्बत के धर्मगुरु और 13वें दलाई लामा ने तिब्बत को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया था। उस समय चीन कमजोर था इसलिए वह विरोध नहीं कर पाया था। करीब 40 सालों बाद कम्युनिस्ट सरकार आने के बाद चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया।
इस सरकार की विस्तारवादी नीतियों के चलते 1950 में चीन ने हजारों सैनिकों के साथ तिब्बत पर हमला कर दिया। करीब 8 महीनों तक तिब्बत पर चीन का कब्जा चलता रहा।
आखिरकार 1951 में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने 17 बिंदुओं वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। इस समझौते के बाद तिब्बत आधिकारिक तौर पर चीन का हिस्सा बन गया। हालांकि दलाई लामा इस संधि को नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि ये संधि दबाव बनाकर करवाई गई थी।
चीन से विवाद के बीच तिब्बत से भागकर भारत आए थे दलाई लामा
इस बीच तिब्बती लोगों में चीन के खिलाफ गुस्सा बढ़ने लगा। 1955 के बाद पूरे तिब्बत में चीन के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन होने लगे। इसी दौरान पहला विद्रोह हुआ जिसमें हजारों लोगों की जान गई। मार्च 1959 में खबर फैली कि चीन दलाई लामा को बंधक बनाने वाला है। इसके बाद हजारों की संख्या में लोग दलाई लामा के महल के बाहर जमा हो गए।
आखिरकार एक सैनिक के वेश में दलाई लामा तिब्बत की राजधानी ल्हासा से भागकर भारत पहुंचे। भारत सरकार ने उन्हें शरण दी। चीन को ये बात पसंद नहीं आई। कहा जाता है कि 1962 के भारत-चीन युद्ध की एक बड़ी वजह ये भी थी। दलाई लामा आज भी भारत में रहते हैं। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से तिब्बत की निर्वासित सरकार चलती है।
इस सरकार का चुनाव भी होता है। चुनाव में दुनियाभर के तिब्बती शरणार्थी वोटिंग करते हैं। वोट डालने के लिए शरणार्थी तिब्बतियों को रजिस्ट्रेशन करवाना होता है। चुनाव के दौरान तिब्बती लोग अपने राष्ट्रपति को चुनते हैं जिन्हें ‘सिकयोंग’ कहा जाता है। भारत की ही तरह वहां की संसद का कार्यकाल भी 5 सालों का होता है। तिब्बती संसद का मुख्यालय हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में है।
चुनाव में वोट डालने और चुनाव लड़ने का अधिकार सिर्फ उन तिब्बतियों को होता है जिनके पास ‘सेंट्रल तिब्बेतन एडमिनिस्ट्रेशन’ द्वारा जारी की गई ‘ग्रीन बुक’ होती है। ये बुक एक पहचान पत्र का काम करती है।