भारत में मर्दानी की असली दशा पर खुल कर बोले शिक्षाविद और पत्रकार
— डाॅ. बीआर अम्बेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय में विमेन: सिनेमा एण्ड मीडिया विषय पर राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन
मध्यप्रदेश। डाॅ. बीआर अम्बेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय द्वारा जेण्डर संवेदनशीलता और संबंधित विषय पर आयोजित अकादमिक गतिविधियों के क्रम में 20 जुलाई को विमेन: सिनेमा एण्ड मीडिया विषय पर राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न विशेषज्ञों एवं शिक्षाविदों ने अपने विचार व्यक्त किये।
डाॅ. प्रकाश हिन्दुस्तानी, संपादक एवं पत्रकार ने ‘‘सिनेमा में जेण्डर संवेदनशीलता‘‘ विषय पर बोलते हुए कहा कि जेण्डर को लेकर आग्रह, दुराग्रह और पूर्वाग्रह चल रहे हैं साथ ही टीवी न्यूज चैनल्स के एक सर्वे के हवाले से बताया कि 76 प्रतिशत पुरूष एवं 24 प्रतिशत महिलाऐं हैं। परिचर्चा वाले कार्यक्रमों में 81 प्रतिशत पुरूष 19 प्रतिशत महिलाऐं होती है। यह दर्शाता है कि मीडिया में महिलाओं की सहभागिता में जेण्डर विभेद है।
प्रो. विनीता भटनागर ने मर्दानी फिल्म को केन्द्र में रखते हुए कहा कि ‘मर्दानी‘ और ‘मर्दानी-2‘ जैसी फिल्में सिनेमा के बदलते स्वरूप के उदाहरण है। सिनेमा में नायिका के रूप में महिलाओं की बदलती भूमिकाऐं कई मायने में सकारात्मक कही जा सकती है। मर्दानी शब्द का इस्तेमाल ‘खूब लड़ी मर्दानी ….. झांसी वाली रानी‘ से जोड़कर बताया। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने ऐसे बदलावों की सराहना करते हुए इस बात पर चिंता भी जताई कि हमें भाषाई स्तर पर शब्दों के चयन में जेण्डर संवेदनशील होना पड़ेगा। किसी व्यक्ति की पहचान उसके कार्य और क्षमता से होना चाहिए न कि किसी खास तरह की पहचान से।
प्रो. मालाश्री लाल ने राधा और भारतीय सिनेमा के नारीवादी नजरिये के बारे में बात करते हुए राधा कृष्ण के प्रेम और हिन्दी फिल्मी गीतों को एक साथ रखते हुए, अपनी बात कहीं। उन्होंने पश्चिमी नारीवादी उदाहरणों की जगह भारतीय संदर्भ में नारीवाद की पुर्नविवेचना की बात कहते हुए बताया कि हमारी पौराणिकता काफी महत्वपूर्ण है, जिस पर हमें चिंतन करना चाहिए। भारतीय और पाश्चात्य परिप्रक्ष्यों पर अलग-अलग दृष्टिकोणों से चर्चा की जानी चाहिए।
फिल्म एवं सिनेमा विश्लेषक प्रो. अनिल चौबे ने सिनेमा को समाज का प्रतिबिम्ब बताते हुए कहा कि कमोवेश सिनेमा में जो दर्शाया जाता है, वह हमारे आस-पास के पर्यावरण से ही आता है। सुजाता, कागज के फूल, आंधी जैसी फिल्मों में महिला पात्रों के अभिनय का जिक्र करते हुए वर्तमान संदर्भो को शामिल करते हुए कहा कि भारतीय सिनेमा विश्वव्यापी हो चुका है, जिसमें महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है।
अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए ब्राउस कुलपति प्रो. आशा शुक्ला ने सिनेमा, मीडिया और समाज के अन्तरसंबंधों के बारे में बताते हुए जेण्डर समानता और संवेदनशीलता को महत्वपूर्ण तत्व बताया। उन्होंने कहा कि जेण्डर संवेदनशीलता के परिपे्रक्ष्य में सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के भाषाई दृष्टिकोण में बतलाव की आवश्यकता है। स्त्री-पुरूष को केवल देह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। बल्कि उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को मनुष्यता के आइने में देखना चाहिए। सिनेमा हमारी समझ को प्रतिबिम्बित एवं परिलक्षित करती है। ऐसे में इसके जेण्डर परिपे्रक्ष्य को समझा जाना अतिआवश्यक है। यह परिसंवाद इसी उद्देश्य को आगे बढ़ाने की पहल है। स्वागत प्रो. किशोर जाॅन, संचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन डाॅ. मनोज कुमार गुप्ता द्वारा किया गया।