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मोना की लड़ाई: आत्मनिर्भरता के खिलाफ घरेलू हिंसा की कहानी

22 वर्षीय मोना, पिता स्वर्गीय नंदन गौड़ की बेटी, उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिले के पनघट की रहने वाली हैं। मोना की कहानी उन लाखों भारतीय लड़कियों की एक प्रतिकृति है, जो अपने दम पर कुछ कर दिखाने का सपना देखती हैं, लेकिन परिवार और समाज की दकियानूसी सोच उनके रास्ते में अड़चनें पैदा करती हैं।

संघर्षों से घिरी मोना का जीवन

मोना सोशल मीडिया पर रील्स बनाती हैं और इसके साथ ही एक बुटीक में बतौर सेल्स लेडी (रिटेल गर्ल) काम करती हैं। उनकी आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं है। उनके पिता का निधन हो चुका है, और उनकी मां दूसरे के घरों में बर्तन धोने और सफाई का काम करती हैं, जिससे परिवार का गुजारा चलता है। मोना के तीन भाई हैं, जिनमें से मझला भाई देवनारायण पुट्टी का काम करता है, जबकि बड़ा भाई मेहंदी लगाने का काम करता है।

मोना के परिवार की हालत ठीक न होने के बावजूद, वह आत्मनिर्भर बनने और अपने करियर को संवारने के लिए संघर्ष कर रही हैं। मोना की यही कोशिश उनके मझले भाई देवनारायण को नहीं भा रही है। वह मोना के बाहर काम करने और समाज में स्वतंत्र रूप से जीने की इच्छा का विरोध करता है। देवनारायण को लगता है कि घर की लड़की को बाहर जाकर काम नहीं करना चाहिए। इस सोच के कारण, मोना को न सिर्फ रोका गया बल्कि उसे बेरहमी से मारा-पीटा भी गया।

घरेलू हिंसा की शिकार मोना

मोना के मझले भाई देवनारायण ने अपनी बहन को करियर बनाने से रोकने के लिए मारपीट की, जिससे उसे शरीर पर गंभीर चोटें आई हैं। मोना के शरीर का रोम-रोम दर्द से कराह रहा है, लेकिन उसे पुलिस और प्रशासन से अभी तक कोई मदद नहीं मिली।

मोना ने पुलिस हेल्पलाइन 1090 पर कॉल करके मदद की गुहार लगाई, जिसके बाद पुलिस की 112 टीम मौके पर पहुंची। लेकिन, पुलिस ने मोना की शिकायत दर्ज करने के बजाय उसे ही समझाने की कोशिश की। पुलिस का यह रवैया मोना और उसके जैसे अन्य पीड़ितों के लिए न्याय की राह को और कठिन बना देता है। थाने में अभी तक मोना की शिकायत पंजीकृत नहीं की गई है, और पुलिस ने मेडिकल कराने की मांग को भी नजरअंदाज कर दिया है।

मोना को चाहिए न्याय

मोना जैसी लड़कियों की कहानियां यह बताती हैं कि हमारे समाज में अभी भी महिलाओं के लिए आत्मनिर्भर बनने की राह कितनी कठिन है। मोना को अपने ही घर में हिंसा का सामना करना पड़ा, जब उसने अपने भविष्य के लिए कुछ करने की ठानी। उसका एकमात्र अपराध यह था कि वह अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी।

पुलिस और प्रशासन की अनदेखी के बावजूद मोना ने हार नहीं मानी है। वह चाहती हैं कि उनकी आवाज सोशल मीडिया और मीडिया के माध्यम से देशभर में पहुंचे, ताकि उन्हें न्याय मिल सके। मोना की यह लड़ाई न सिर्फ उनके लिए है, बल्कि उन तमाम लड़कियों के लिए भी है, जो समाज के बंधनों से निकलकर अपने सपनों को साकार करना चाहती हैं।

सवाल उठता है: क्या मोना को इंसाफ मिलेगा?

यह सवाल सिर्फ मोना से जुड़ा नहीं है, बल्कि उन सभी महिलाओं से जुड़ा है, जो आज भी पितृसत्तात्मक समाज में अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रही हैं। मोना के साथ हुई हिंसा को न केवल समाज बल्कि प्रशासन भी नजरअंदाज कर रहा है। इस मामले को जितनी जल्दी संभव हो, गंभीरता से लिया जाना चाहिए ताकि मोना और अन्य लड़कियों को उनका हक मिल सके।

समाज और सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि मोना जैसी लड़कियों को आत्मनिर्भर बनने के रास्ते में आने वाली हर बाधा को पार करने में मदद मिले। उम्मीद है कि मोना की कहानी मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से न्याय की दिशा में कदम बढ़ाएगी, और उसे जल्द ही वह इंसाफ मिलेगा, जिसकी वह हकदार है।

मोना की कहानी हमारे समाज के उन पहलुओं को उजागर करती है, जहां महिलाओं की स्वतंत्रता और करियर के विकल्पों पर पाबंदियां लगाई जाती हैं। यह एक ऐसे समाज की तस्वीर पेश करती है, जहां महिलाएं अब भी पुरुषों की सोच की बंदिशों में जकड़ी हुई हैं। मोना को न्याय दिलाने के लिए हमें मिलकर आवाज उठानी होगी।

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