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मिडिल क्लास परिवार के जांबाज़ बेटे की कहानी, जिसके पराक्रम से पस्त हुए कारगिल के पहाड़

नई दिल्ली। अमेज़न प्राइम वीडियो पर रिलीज़ हुई ‘शेरशाह’ को सिर्फ़ एक वॉर या देश पर कुर्बान हुए एक जांबाज़ नौजवान सैन्य अफ़सर की बायोपिक के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह भारत के छोटे शहर-क़स्बों में रहने वाले हर उस मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है, जिसके 14 साल के बेटे को दूरदर्शन पर आने वाले धारावाहिक ‘परमवीर चक्र’ में मेजर सोमनाथ शर्मा की वीरगाथा देखकर फौजी वर्दी से मोहब्बत हो जाती है और खेल-खेल में ही सही, वो इस मोहब्बत को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लेता है।

सपनों को उड़ान देने के लिए इंजीनियरिंग और मेडिकल व्यवसाय में जाने की 90 के दशक की भेड़-चाल के बीच वो फौज को अपना प्रोफेशन चुनता है और महज़ 25 साल की उम्र में बर्फ़ में लिपटे पहाड़ों के सीने पर शौर्य और शहादत की अमिट दास्तान लिख मुस्कुराता हुआ दुनिया को विदा कहता है।

कारगिल युद्ध में अपने पराक्रम के लिए सेना का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र पाने वाले कैप्टन विक्रम बत्रा के जीवन को निर्देशक विष्णु वर्धन ने बड़े पर्दे पर उतारा है, जिनकी यह पहली हिंदी और वॉर फ़िल्म है। विष्णु ने इससे पहले दक्षिण भारतीय भाषाओं में फ़िल्में निर्देशित की हैं। लेखक संदीप श्रीवास्तव ने शेरशाह की कहानी कैप्टन विक्रम बत्रा के जुड़वां भाई विशाल बत्रा के नज़रिए से पर्दे पर पेश की है, जिसमें बचपन की यादों के साथ उसकी कालेज की ज़िंदगी, प्रेम और फौज में भर्ती से लेकर कारगिल युद्ध में शहादत को समेटा गया है।

शेरशाह कैप्टन बत्रा के पारिवारिक और मानवीय पहलू से लेकर उनके देशप्रेम और बलिदान के लिए तत्पर रहने वाले जज़्बे की तस्वीर पेश करती है। अच्छी बात यह है कि इसमें कुछ कर गुज़रने का उत्साह तो है, मगर ग़ैरज़रूरी उन्माद नहीं है, जैसा कि पिछले कुछ वक़्त से देशभक्ति पर आधारित फ़िल्मों का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है।

फ़िल्म की शुरुआत कैप्टन विक्रम बत्रा के बचपन के दृश्यों से होती है। अपने से बड़े बच्चों से भिड़ जाने विक्रम को पिता उलाहना देते हैं कि बड़ा होकर गुंडा बनेगा। विक्रम कहता है कि उसने सोच लिया है, क्या बनना है। विशाल के नैरेशन के साथ कहानी आगे बढ़ती है।

विक्रम कॉलेज पहुंचता है। क्लास में साथ पढ़ने वाली डिम्पल से मुलाक़ात होती है। दोनों में प्यार हो जाता है। डिम्पल सिख है और विक्रम बत्रा पंजाबी खत्री। डिम्पल के पिता को रिश्ता स्वीकार नहीं होता। विक्रम, डिम्पल से शादी करने के लिए प्लान बी तैयार रखता है और मर्चेंट नेवी ज्वाइन करना चाहता है। मगर, फिर दोस्तों के समझाने पर एहसास होता है कि उसका सपना तो आर्मी है। आख़िरकार एसएसबी पास करके विक्रम लेफ्टिनेंट बनता है और 13 जम्मू कश्मीर राइफल्स रेजीमेंट में पहली पोस्टिंग मिलती है।

लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा एक ज़िंदादिल, मिलनसार और उत्साही नौजवान अफ़सर है, जो जितनी आसानी से अपने साथियों के साथ घुलमिल जाता है, उतनी ही तरलता से स्थानीय कश्मीरियों के साथ संबंध कायम कर लेता है। हालांकि, साथी आगाह करते हैं कि कश्मीरियों का यक़ीन नहीं करना चाहिए, मगर विक्रम का मानना है कि जब हम उनका यक़ीन नहीं करेंगे तो उनका भरोसा कैसे जीतेंगे।

कहानी आगे बढ़ती है। कारगिल युद्ध छिड़ता जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की की फुटेज के ज़रिए दुश्मनों को तगड़ा जवाब देने वाली फुटेज का इस्तेमाल यहां किया गया है। वहीं, कैप्टन सौरभ कालिया के बेहद चर्चित प्रकरण की भी झलक दिखाया गयी है, जिन्हें कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी फौज ने पलटन के साथ पकड़ लिया था और अमानवीय ढंग से यातना दी गयी थी। यह मामला उस वक़्त काफ़ी सुर्खियों में रहा था।

लेफ्टिनेंट वाई के जोशी कैप्टन विक्रम बत्रा और कैप्टन संजीव जाम्वाल के जज़्बे को देखते हुए उनकी पलटन को लेफ्टिनेंट कर्नल वाईके जोशी अहम मिशन पर भेजते हैं, जिसमें दोनों कामयाब रहते हैं। इसी मिशन में कैप्टन विक्रम बत्रा का कोडनेम शेरशाह होता है और जीत का सिग्नल यह दिल मांगे मोर।

इस सफलता के बाद अगला मिशन होता है प्वाइंट 4875 को दुश्मन के कब्ज़े से छुड़ाने का, जो स्ट्रैटजीकली काफ़ी अहम है। कैप्टन बत्रा इस मिशन को लीड करने की अनुमति मांगते हैं। ले. कर्नल उनके यह दिल मांगे मोर वाले जज़्बे को देखते हुए 4875 को कैप्चर करने के मिशन पर भेजते हैं। मिशन तो कामयाब रहता है, मगर कैप्टन बत्रा ज़ख़्मी जवान को बचाते हुए शहीद हो जाते हैं।

कारगिल का युद्ध जिस ऊंचाई पर लड़ा गया था। उस ऊंचाई पर जाकर युद्ध के दृश्य शूट करना वाकई हिम्मत का काम है। जागरण डॉटकॉम से बातचीत में निर्देशक विष्णु वर्धन ने बताया था कि लगभग 12-14 हज़ार फुट की ऊंचाई पर कास्ट एंड क्रू के साथ दृश्य शूट किये गये हैं। यह पहली फ़िल्म है, जो कारगिल के उन इलाक़ों में शूट हुई है। शेरशाह के कास्ट और क्रू की मेहनत युद्ध के इन दृश्यों में नज़र भी आती है।

दुर्गम पहाड़ियों पर चढ़ना और युद्ध सामग्री के साथ दृश्यों को कैमरे में कैद करना आसान नहीं रहा होगा। फ़िल्म भी इन दृश्यों के साथ रफ़्तार पकड़ती है और सबसे अधिक प्रभावित करती है। कैप्टन विक्रम बत्रा के किरदार में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने अच्छा काम किया है।

इस किरदार के लिए जिस उत्साह और उमंग की ज़रूरत थी, उसे पर्दे पर लाने में वो कामयाब रहे हैं। डिम्पल के किरदार के भावों को ज़ाहिर करने में कियारा आडवाणी कामयाब रही हैं। हालांकि, दोनों ही कलाकारों के स्थानीय भाषा के उच्चारण पर बेहतर काम हो सकता था।

सिद्धार्थ की पंजाबी में पहाड़ों का कम दिल्ली का असर अधिक नज़र आता है। वहीं, कियारा का पंजाबी एक्सेंट भी ओवर लगता है। पटकथा में सारा फोकस कैप्टन विक्रम बत्रा के किरदार पर रखा गया है, जिसके चलते सहयोगी किरदार और कलाकार उभरकर नहीं आ पाते।

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