दमोह का सबक, त्यागना होगा मोह, शीर्ष पर पहुंचे नेताओं को करनी होगी जमीनी कार्यकर्ताओं की कद्र
संगठन महामंत्री भी रहे हालात संभालने में नाकाम
भोपाल। दमोह विधानसभा उपचुनाव में मिली हार ने भारतीय जनता पार्टी को नए सिरे से सोचने पर विवश कर दिया है। पार्टी के सह संगठन महामंत्री शिवप्रकाश मोदी सरकार के सात साल के बहाने प्रदेश भर के कार्यकर्ताओं से बात कर रहे हैं। आम तौर पर पार्टी कार्यकर्ताओं में असंतोष सत्ता को लेकर होता है लेकिन इस बार मामला उलटा लग रहा है। प्रमुख कार्यकर्ताओं की शिकायतें संगठन और संगठन महामंत्री के कामकाज को लेकर ज्यादा हैं। 28 सीटों पर हुए उपचुनाव में बंपर सफलता के बाद प्रदेश में शिवराज सरकार को स्थायित्व मिल गया तो संगठन की उम्मीदें कुलांचे मारने लगी। कार्यकर्ताओं का जोश दोगुना हो गया। 14 महीने के कमलनाथ कालखंड में उन्हें समझ आ गया था कि सत्ता आखिर क्या होती है। संगठन के शीर्ष पर बैठे लोगों ने इसे अपना जादू समझ लिया। संघ से बड़ी उम्मीदों से संगठन में भेजे गए लोग खुद को किंगमेकर मानने लगे। बस यहीं से शुरू हुआ पुराने और अनुभवी लोगों को दरकिनार करने का सिलसिला। शुरूआत हुई 28 सीटों के उपचुनाव से। बीच चुनाव में सांची से आधा दर्जन से ज्यादा बार विधायक रहे गौरीशंकर शेजवार के अपमान से। शेजवार नेता प्रतिपक्ष रहे, प्रदेश सरकार में मंत्री रहे। उन्हें प्रदेश कार्यालय में घंटों बिठाकर अपमानित किया गया। आरोप था कि उनके कारण कांग्रेस से आए प्रभुराम चौधरी को दिक्कत हो रही है। शेजवार और उनके बेटे मुदित, चौधरी के खिलाफ काम कर रहे हैं। लेकिन पार्टी जब वहां से पहली बार रिकार्ड मतों से जीती तो उसे संगठन ने अपनी जीत मान लिया। शेजवार और उनके बेटे को बिसरा दिया गया। अगर दमोह की हार में मलैया का योगदान है तो क्या सांची की जीत में शेजवार की कोई भूमिका नहीं थी। ऐसे सवालों पर इस समय भाजपा में विचार नहीं हो रहा है।
दरअसल भाजपा में प्रदेश संगठन महामंत्री की भूमिका प्रेशर कुकर के उस सेफ्टी वाल्व की होती है तो असंतोष को निकाल देता है, कुकर को फटने नहीं देता। लेकिन अभी हो इसके उलट रहा है। दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार दीपक शर्मा ने ट्विटर पर लिखा है, ‘संगठन और सरकार के बीच बढ़ती दूरियां,दूसरी लहर में भाजपा की गिरती साख को और अधिक आघात पहुंचा रही हैं। यूपी के संगठन मंत्री सुनील बंसल और एमपी के सुहास भगत अपने ही सीएम की जड़े काटने में लगे हैं। बंसल व भगत की महत्वाकांक्षाएं भाजपा में भितरघात का नया संकट है। दरअसल,यही मोदी मॉडल है!’ अब यह मोदी माडल है या भाजपा में बदलाव का नया दौर लेकिन बचपन में स्कूल में पढ़ी एक कहानी याद आ रही है। ये कहानी लिखी थी हमारे देश के राष्ट्रपति रहे डॉ जाकिर हुसैन ने। उसका शीर्षक था, उसी से ठंडा, उसी से गरम। ये बौने और लकडहारे की कहानी थी। जिसमें बौने को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर लकड़हारे ने उसी फूंक से आलू को ठंडा कैसे किया, जिस फूंक से हाथों को गर्म करते हैं। अभी के बौने फूंक से आलू को ठंडा करने की बजाय चूल्हे को गरम करने में लगे हैं और भ्रम में हैं कि वे ठंडा कर रहे हैं। यही वो जरा सी बात है तो संगठन और उसके कर्ता-धर्ता शायद समझ नहीं रहे हैं या समझना नहीं चाहते।
अब बात दमोह की। जब प्रदेश में शिवराज या कहें भाजपा सरकार थी और कांग्रेस के पच्चीस विधायक इस्तीफा दे चुके थे तो दमोह में राहुल लोधी का इस्तीफा कराने की जरूरत ही क्या थी। इसी निर्णय ने साबित किया कि भाजपा कहां चूक कर रही है। सामूहिक निर्णय की परंपरा वाली इस पार्टी में राहुल को कांग्रेस से इस्तीफा कराने के बाद भाजपा में लाने में सरकार के साथ संगठन की भी सहमति रही होगी। लेकिन जो सामने दिख रहा है उससे साफ है कि इस निर्णय से पहले जयंत मलैया को विश्वास में नहीं लिया गया। कहा यह भी जा रहा है कि राहुल को भाजपा में लाया ही जयंत मलैया को नीचा दिखाने के लिए। यहीं से मैसेज गया कि पार्टी का नया ( या कहें युवा) नेतृत्व अपने हिसाब से पार्टी को चलाना चाहता है। यहां फिलहाल अनुभवी नेताओं की जरूरत नहीं है। इसकी छाप संगठन में भी साफ देखी जा सकती है। प्रदेश महामंत्री से लेकर प्रदेश मंत्री तक की उम्र और अनुभव इसकी साफ गवाही दे रहा है। बस फिर संगठन, संगठन महामंत्री और उनकी टीम ने अपनी मर्जी से रणनीति बनाई। दावा किया कि मलैया से लेकर तमाम कार्यकर्ताओं को मना लिया है। शिवराज सिंह चौहान ने जमकर प्रचार किया। लेकिन कोरोना की दूसरी लहर ने शिवराज के कदम वल्लभ भवन में रोक लिए। ये भाजपा के लिए आपदा थी, लेकिन इसे वे अवसर में बदल सकते थे। लेकिन संगठन और उसके कर्ताधर्ता यहीं धोखा खा गए। वे खुद तो जमीनी हकीकत समझने की बजाय हवा में उड़ रहे थे और चार दशक से जमीनी राजनीति कर रहे जयंत मलैया को भी जमीन पर काम करने की बजाय हवा में उड़ने के लिए हेलीकॉप्टर थमा दिया।
दो मई को नतीजे आए तो जमीनी हकीकत नहीं समझ पाने वाली भाजपा खुद औंधे मुंह जमीन पर थी। हार का अंतर इतना की जयंत मलैया की पिछली आधा दर्जन जीतों के कुल वोटों का अंतर एक बार में बराबर। फिर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। संगठन ने समीक्षा की बजाय हार की ठीकरा फोड़ा जयंत मलैया, उनके बेटे सिद्धार्थ और पांच मंडल अध्यक्षों पर। यदि मलैया इतने ही प्रभावशाली थे कि वे भाजपा के उम्मीदवार को 17 हजार वोटों से हरवा सकें तो फिर पार्टी ने उनकी अनदेखी क्यों की। या फिर मलैया खुद इतने सक्षम थे तो निर्दलीय लड़ लिए होते। आफर तो उनके पास कांग्रेस से भी था।
भले ही मलैया ने प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा से मुलाकात कर उन्हें अपनी सफाई दे दी है, लेकिन दिल्ली का रास्ता उन्हें भी पता है। फिर प्रहलाद पटेल की नाराजगी भी अपनी जगह है और अजय विश्नोई, कुसुम मेहदेले और हिम्मत कोठारी जैसे नेताओं के तीखे तेवर भी। अब बात एक फोटो की। जिसे देखकर दमोह के मोह और संगठन की हैसियत और उसके इकबाल का अनुमान लगाया जा सकता है। 25 मई को वीडी शर्मा, प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत और सह संगठन मंत्री हितानंद शर्मा दिल्ली में थे। यहां वे केंद्रीय मंत्री और दमोह सांसद प्रहलाद पटेल से मिलने पहुंचे थे। लॉन में चारों नेता बैठे हैं। प्रहलाद पटेल टी शर्ट और बरमूडा पहने सवाल की मुद्रा में हैं और बाकी तीनों उन्हें ध्यान से देखने, समझने का प्रयास कर रहे हैं। जिन लोगों ने संगठन महामंत्री के रूप में कभी कुशाभाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल, कप्तान सिंह सोलंकी, माखन सिंह या अरविंद मेनन का कार्यकाल देखा है उन्हें पता है कि भाजपा में संगठन महामंत्री का रुतबा क्या होता है। कभी उमा भारती भी इस मुद्रा में कप्तान सिंह सोलंकी के सामने नहीं बैठ पाईं थी। जाहिर है ये फोटो भाजपा में संघ के कद के पतन का प्रतीक भी मान सकते हैं। या ये कहें कि प्रहलाद पटेल ने दिल्ली दरबार से जो शिकायत की हैं, उसका असर है। लेकिन ये भी शाश्वत सत्य है हर युग में प्रहलाद बच जाता है, होलिका जल जाती है। इस बार होलिका की भूमिका में कौन होगा, इसके लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। लेकिन एक बात साफ है, प्रदेश नेतृत्व को अपनी एक लाइन खींचना होगी। युवा जोश अपनी जगह है, लेकिन होश भी पार्टी के लिए उतना ही जरूरी है। अरविंद मेनन की विदाई के बाद प्रदेश संगठन महामंत्री बने सुहास भगत से पार्टी कार्यकर्ताओं को बहुत उम्मीदें थीं। लेकिन जाहिर है, भगत उन उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके। यह राकेश सिंह के कार्यकाल में ही सामने दिख गया था। वरना, 2018 में भाजपा किसी भी कीमत पर सत्ता से दूर नहीं हो रही थी। आखिर, 109 सीटें उसने जीती थीं। तब भी पार्टी के लोगों का मत था कि यदि मेनन ही इस जगह कायम रहते तो शायद सत्ता गंवाने की नौबत नहीं आती। बहरहाल संगठन महामंत्री के तौर पर भगत अब तक खुद को साबित नहीं कर पाएं हैं और हितानंद शर्मा अगर उन्हीं के पदचिन्हों पर चलना चाह रहे हैं तो फिलहाल भाजपा का भगवान ही मालिक है।
मनोज वर्मा भोपाल-पत्रकार