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नहीं रहे चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा

रघुवर दयाल गोहिया

प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के जीवंत प्रतीक श्रद्धेय सुंदरलाल बहुगुणा को भी क्रूर कोरोना निगल गया। न सिर्फ देश बल्कि दुनिया में प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के बड़े प्रतीक में शुमार सुंदरलाल बहुगुणा ने 1972 में चिपको आंदोलन को धार दी। साथ ही देश-दुनिया को वनों के संरक्षण के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप चिपको आंदोलन की गूंज समूची दुनिया में सुनाई पड़ी। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री बहुगुणा का नदियों, वनों व प्रकृति से बेहद गहरा जुड़ाव था। वह पारिस्थितिकी को सबसे बड़ी आर्थिकी मानते थे। यही वजह भी है कि वह उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं के पक्षधर थे। इसीलिए वह टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं के पक्षधर नहीं थे। इसे लेकर उन्होंने वृहद आंदोलन शुरू कर अलख जगाई थी।

हम पत्रकार साथियों की उनसे आत्मीय मुलाकात सितंबर 1993 को ऋषिकेश में आयोजित देश के सबसे बडे पत्रकार संगठन इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के 53वें राष्ट्रीय सम्मेलन में हुई थी। इस आयोजन में उन्हें हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष कामरेड के. विक्रम राव ने विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था। इस सम्मेलन में सीहोर जिला संगठन के जिला अध्यक्ष के रूप में मैं भी अपने साथियों के साथ सम्मिलित हुआ था। जिनमें स्व. विष्णु कुमार वर्मा, विद्रोही, स्व. प्रकाश व्यास काका, संतोष कुशवाहा, बसंत दासवानी, प्रकाश राठौर, मुकेश गुप्ता, हफ़ीज चौधरी आदि के नाम शामिल हैं। मेरे आग्रह पर श्री राव ने सीहोर के पत्रकार साथियों की भेंट श्री बहुगुणा से कराई थी। उनके उज्ज्वल धवल केश और दाढ़ी, सिर पर बंधा सफेद कपड़ा तथा खादी का कुर्ता पायजामा, उनकी सादगी में चार चांद लगा रहे थे। उनका चमकता दमकता चेहरा आज भी मेरे जेहन में ज्यों का त्यों बसा हुआ है। जब हमने उनसे चर्चा करते हुए सीहोर आने का न्यौता दिया तो सहज भाव से उन्होंने कहा कि जरूर आऊंगा…! आप पर्यावर्णीय आयोजन रखिये..! लेकिन हमारा सम्मेलन खत्म हुआ और वापस आकर हम सब अपने आप के कामों में उलझ गए। आज उनके वे शब्द बहुत याद आ रहे हैं। पर्यावरण को लेकर उनकी चिंता और चिंतन आज के माहौल में और अधिक प्रासंगिक है जब कोरोना काल में ऑक्सीजन भी हमें नहीं मिल रही थी। जिसके चलते सैकड़ों हजारों लोगों को अपनी जान गंवाना पड़ी। देश के पत्रकार साथियों को भी अब पर्यावरण संरक्षण की चिंता गंभीरता से करना चाहिए क्योंकि अनेक पत्रकार भी कोरोना की वजह से ऑक्सीजन के अभाव में अपने प्राण त्याग चुके हैं। प्रकृति से अटूट प्रेम करने वाले एक महान व्यक्तित्व को हमने खो दिया है।

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