कोरोना काल : नीति,नियत और नियति के साथ बनें सकारात्मक
-आओ सकारात्मक बन जाएं….
शैलेश तिवारी
बात शुरू करते हैं … नीति… नियत… और नियति से….। पहले बात नीति की…. जब बात नीति की हो तो विश्व प्रसिद्ध नीतिकार विष्णु गुप्त कौटिल्य चाणक्य …. का नाम ही जुबां पर आता है। चाणक्य ने लगभग ढाई हजार साल पहले …. अपने महानतम ग्रंथ अर्थ शास्त्र में एक नीति का सिद्धांत प्रतिपादित किया…।
एक पेड़ की जड़ों में और शासक में एक समानता होती है… जिस तरह पेड़ की जड़े माटी, जल और वायु आदि से आवश्यक पोषक तत्वों को एकत्रित कर… पूरे पेड़ के सकल अंगों को बिना किसी भेदभाव के पोषित करती हैं… ठीक इसी प्रकार एक शासक का कर्तव्य होता है कि…. उचित प्रकार से सामर्थ्यवान नागरिकों से कर वसूली कर… राष्ट्र के सभी वर्गों के लिए बेहतर स्वास्थ्य , शिक्षा और सुरक्षा मुहैया कराए….। राष्ट्र के सभी वर्गों में एकता और आपसी सौहार्द्र उस राष्ट्र की उपलब्धि नहीं वरन राष्ट्र की आवश्यकता होती है…। एक धारावाहिक के चाणक्य बने पात्र… अंत में कहते हैं कि नीतियां मेरी … नियति आपकी…?
जिस कोरोना का कहर इन दिनों देश भर में बरप रहा है… वो काफी डरावना, हृदय विदारक, भयावह और वीभत्स दृश्य दिखा रहा है…। नतीजा यह कि.. हर दिल में दहशत का साम्राज्य है… जो खतरा उसे आज दूसरे पर गुजरता दिख रहा है… कल वही खतरा उसके सिर पर भी मंडरा सकता है… इसी आशंका में उसका जीवन पहले तनाव और बाद में अवसाद यानि डिप्रेशन की तरफ बढ़ जाता है…। इसी नकारात्मकता को दूर करने के लिए…. अभी एक सकारात्मक विचार दिए जाने वाला संगठन अस्तित्व में आया है….। प्रथम दृष्टया बात तो पते की है…. सकारात्मक विचार काफी हद तक कोरोना का डर खत्म कर सकते हैं….।
अब बात करते हैं नियत की…. सकारात्मकता की बात क्या वाकई में नागरिकों के दिल से कोरोना का भय समाप्त करने के लिए की जाएगी अथवा इसके पीछे कोई राजनैतिक उद्देश्य काम कर रहा है। पहला बिंदु अगर इस योजना के आधार में है तो स्वागत योग्य है लेकिन दूसरे बिंदु का ख्याल भी हवा में नहीं है…. पहला कारण यह कि सभी को सकारात्मक बनाने से पहले खुद सरकार को भी सकारात्मक सोच रखना चाहिए… । विपक्ष द्वारा दी गई सलाह की खिल्ली उड़ाना सत्तापक्ष के नेताओं का शगल रहा है… यह अलग बात है कि उन्हीं सलाहों को कुछ समय बाद अमल में लाया जाता है.. ये कौन सी सकारात्मकता है..? बात यहीं नहीं थम जाती… मदद करने वाले श्रीनिवासन हों या दिलीप पांडे …. जांच की जद में लाए जाते हैं अथवा लोगों की जान बचाने वाले बिहार के पूर्व सांसद पप्पू यादव हों…. सत्ताधीश की पोल खोल दें तो जेल मिल जाती है…। उज्जैन की नूरी खान का जिक्र भी लाजमी है जो ऑक्सीजन सिलेंडर की सप्लाई करते करते अचानक … हवालात की हवा खाने पर मजबूर हो जाती हैं… या फिर उत्तरप्रदेश में अपने नाना के लिए ऑक्सीजन की गुहार लगाने वाले मजबूर पर एफ आई आर हो जाती है… अथवा हमारे बच्चों के हिस्से के वैक्सीन विदेश क्यों भेजे गए के सवाल वाले पोस्टरों पर …. दिल्ली के अलग अलग थानों में एफ आई आर होकर 25 लोग गिरफ्तार हो जाते है… हालांकि बाद में जमानत मिल जाती है…। यह किस सकारात्मक सोच का परिणाम है…. बहुत चिंतन मंथन करने के बाद भी समझ से बाहर ही रहता है….। लेकिन इन सब के पीछे की नियत जरूर साफ होने लगती है कि… जनता से वसूले गए टेक्स की राशि से तीन करोड़ छह लाख रुपये प्रतिदिन अपने प्रचार प्रसार पर खर्च करने वाली सरकार… की चमकती छवि पर इन तमाम मददगारों द्वारा उसकी नाकामी का गहरा आघात दिया गया है… । शायद उसी चमकदार छवि को बरकरार रखने की कवायद में लापरवाही और नकारेपन के नंगे सच की खबरों पर से ध्यान हटाने की कवायद कहीं यह सकारात्मकता तो नहीं…?
खैर राजनीति की बातें छोड़ हम बात करें हमारे तीसरे बिंदु.… नियति की…। यह भाग आमजन के ही हिस्से में आया है…। जिसको अस्पताल में बेड के लिए भटकना पड़ा… बेड मिल गया तो ऑक्सीजन बेड ने तरसा दिया… तो किसी किसी को वेंटिलेटर बेड के लिए तमाम तरह की जुगाड़ करना पड़ी…। हद तो उन सभी के साथ हुई .. जिन्हें हजार रुपये में मिलने वाले रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए दो हजार से तीस हजार रुपये तक चुकाने के बाद नसीब हो पाया… कुछ को वो भी नहीं…। इन तमाम भागीरथी प्रयास करने के बाद भी जब उसके परिजन के प्राण नहीं बच पाए…. तो उससे कैसे उम्मीद की जाए कि वह सकारात्मक हो जाए..। इंतहा के उस आलम का नजारा अभी देश भर की आंखों से ओझल नहीं हुआ है… जब सिस्टम की बदहाली के बाद नागरिक के मरीज बनकर शव में तब्दील हो जाने के बाद भी…. उन्हें अपने अंतिम संस्कार के लिए श्मशानों और कब्रिस्तानों की लाइन मे लगकर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ा….। इन सभी के निकट संबंधी को सकारात्मक बनाने के लिए कौन सा फार्मूला इस्तेमाल किया जा सकता है।
साधारण से स्वास्थ्य लाभ के लिए असाधारण प्रयास करने वाले मुल्क में …. जब पवित्र पावनी एवं मोक्षदायिनी मां गंगा की लहरों पर शव तैरते मिलने लगे और जो बहते बहते किनारे लग गए… उन शवों को चील कौवे और कुत्तों सहित अन्य मांसभक्षी पशु पक्षी नोंचकर खाते दिखें… तो इन वीभत्स दृश्यों को देखकर कौन … कैसे सकारात्मक हो पाएगा..। साफ है कि इन शवों का अंतिम संस्कार करने के लिए लोगों के पास पैसा और साधन उपलब्ध नहीं रहे होंगे…। संविधान द्वारा प्रदत जीने के अधिकार को तो संविधान की शपथ लेकर सत्तारूढ़ होने वाले उपलब्ध नहीं करा पाए …. लेकिन मृत्यु उपरांत सामाजिक रूप से मृतक के शव का अंतिम संस्कार का अधिकार भी हम उसे नहीं दे पाए… क्या यही नियति है किसी रोगी या मृतक की..? अब उम्मीद यह कि सकारात्मक हो जाएं….। बताओ तो कैसे..?