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विश्व परिवार दिवस विशेष : इस सदी की महामारी ले गया जनसंख्या नियंत्रण की सोच को सदियों पीछे ?

— क्या भारत के आबादी नियंत्रण को लगेगा महामारी का झटका ?
— महामारी और परिवार नियोजन : 100 साल पीछे से मेरी कहानी

होमेंद्र देशमुख

आज से 110 साल पहले , 1910 -11 में भारत मे हैजा (कालरा) महामारी आया तब मेरे दादा जी लगभग 12 साल के रहे होंगे । छः भाईयों में से तीन, एक-एक कर काल ले गाल में समा गए । कारण हैजा रहा हो यह तो मैं दावा नही कर सकता लेकिन पूरे परिवार और पीढ़ी ने उस महामारी को बड़े नजदीक से देखा था । छत्तीसगढ़ में आज शिवनाथ नदी से तीन तरफ से घिरे इस गांव में उस समय उनके बाकी बचे तीन भाइयों में से एक मेरे दादा जी ने अभी अपने यौवन में कदम रखा ही था कि 1918 से लेकर 1923 तक भारत मे आए लथारजिक इन्फ्लूएंजा और दूसरे स्ट्रेन के रूप में आए स्पेनिश फ्लू ने अलग अलग समय और अलग अलग शहरों में तबाही मचाई । संचार और यातायात के साधन बेशक शून्य थे उसके बावजूद भी यहां के लोगों का प्रवास उस समय उड़ीसा के कटक ,उप्र के झांसी , मध्य में नागपुर और दक्षिण में बंबई (आज मुंबई) तक था ।


मुंबई कोलकाता जैसे सैनिक गतिविधियों और बंदरगाहों वाले नगर उस समय महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ । मुंबई तो जैसे वीरान हो चला था । वही हाल उड़ीसा के कटक और अंगुल का था जहां औद्योगिक गतिविधियों के कारण छत्तीसगढ़ के लोगों का बहुतायत में प्रवास होता था । छत्तीसगढ़ के हजारों लोग अपने परिजनों के शव वहीं छोड़ फिर वहां कभी न लौटने की कसम खा कर आने लगे । 1860 में हैजा , 1896 में प्लेग और रेड प्लेग (चेचक ) और उसके बाद 1911 में आए पुनः हैजे के बाद तो बीमारी कुछ भी हो लेकिन ग्रामीणों के जुबान पर हैजा और चेचक ही आता । 19वीं सदी के इस पहले महामारी हैजे के बाद शहरों में टीके लगे । इन्ही दिनों में वायरस जनित रोगों से निपटने के कदम तेज हुए। इसके तहत वैक्सीनेशन को बढ़ावा दिया गया, कुछ वैक्सीन संस्थान खोले गए। कॉलरा वैक्सीन का परीक्षण हुआ और प्लेग के टीके की खोज हुई। बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में चेचक के टीके को विस्तार देने, भारतीय सैन्य बलों में टायफाइड के टीके का परीक्षण और देश के कमोबेश सभी राज्यों में वैक्सीन संस्थान खोलने की चुनौती रही। आजादी के बाद बीसीजी वैक्सीन लैबोरेटरी के साथ अन्य राष्ट्रीय संस्थान स्थापित किए गए। 1977 में देश चेचक मुक्त हुआ।

वापस लौटता हूं – 1912 में शहरों से टीका लगना शुरू हुआ फिर ये टीके गांवों में लगते लगते लगभग 5 साल और बीत गए ।
मेरे दादा जी को पहला वैक्सीन 1915 के आसपास उनके स्कूल में ही लगा होगा । गांव से स्कूल मीलों दूर ,शहरों में होने के कारण तब बच्चे ,थोड़ा अपना साज सम्हाल करने लायक यानि किशोरावस्था आ जाने के बाद ही एडमिशन लेते । तब कस्बों और जिलों में अंग्रेजी माध्यम से चौथी कक्षा का बोर्ड परीक्षा पास कर लेना सबसे ऊंची पढ़ाई होती थी । मेरे दादा जी ने 1916 में यह परीक्षा ‘फर्स्ट ग्रेड स्कॉलर’ के रूप में पास की थी और स्कूल छोड़ते समय उनके सर्टिफिकेट पर लिखा था ‘small-pox vaccinated”.

स्कूल से निकलते ही मेरे दादा जी का विवाह हुआ । उन्नीसवीं सदी के कई महामारियों और मौतों के किस्सों से तब गावों की चौपालें कांपती थीं और लोग किस्सा सुन सुन थर्रा उठते थे । उनके और उनके जैसे युवाओं ,बुजुर्गों के मन मे तब तक पिछले सदी की भयावह यादें और हाल ही में लगातार आए हैजा,इन्फ्लूएंजा और स्पेनिश फ्लू का खौफ और मौत के तांडव और अपने संतानों को लगातार खोए परिवारों में अपने परिवार को बड़ा रखने का चलन बन गया था ।
अशिक्षा तब ज्यादा गम्भीर विषय ही नही था क्योंकि शिक्षा ही सर्व-सुलभ नही थी । तब परिवार को बड़ा रखने का एक कारण – ज्यादा हाथ-ज्यादा काम की सोच और दूसरा- लगातार झेलते महामारियों के बीच परिवार के सदस्य खोने का डर था ।
मेरे दादा जी जैसे परिवार शुरू करने वाले शिक्षित और अशिक्षित नौजवानों ने अपना परिवार बड़ा रखा और 1922 से 1943 के बीच छः पुत्रों और तीन पुत्रियों केे साथ मेरे दादा जी के नौ संतान हो गए ।

दो गावों में लगभग 130 एकड़ ज़मीन के मालिक मेरे दादा जी का इतना बड़ा परिवार बढाना बहुत आश्चर्य भी नही था । खानदानी मालगुजारी में उनके पिता के पास चार गावों में इससे तीनगुना ज्यादा जमीनें थीं । ऐसे में उन दिनों बड़े परिवार का चलन शिक्षित होने के बाद भी इन्ही जायदादों और उनके वारिसों को जिंदा रख पाने की चुनौतियों के कारण भी था ।

वैसे भी शिक्षित आदमी गरीब और अशिक्षित आदमी से ज्यादा चालाक होता है । जब आदमी गरीब और अशिक्षित होता है तब आशा उसे बांधे रहती है । परिवार स हीे उसकी आशा बंधी रहती है । ज्यादा बच्चे कुछ इकट्ठा कर लेंगे । मकान बना लेंगे , जमीन जमीदारों से छुड़ा लेंगे । जब सम्पत्ति की ताकत क्षीण होती थी तब बड़े परिवार की ताकत ही उसकी आशा का केंद्र था ।
इसे ही शिक्षितों और अर्थशास्त्रियों ने गरीबी भुखमरी दुर्भिक्ष और महामारी में मौत का कारण माना । और उस कारण का नाम दिया ‘अशिक्षा’ ।
शिक्षा का अलख जगा । लोग पकड़ पकड़ कर शिक्षित करवाए जाने लगे । हजारों लाखों स्कूल महाविद्यालय खुले , फैक्ट्रियां ,उद्योग लगे । नौकरी और रोजगार मिलने लगे । लोगों का रहन सहन ‘लिविंग स्टेंडर्ड बदलने लगा । देश की जीडीपी और साख बढ़ने लगीं पर हर विकास के पीछे छुपा विनाश भी होता है । संयुक्त परिवार विघटित होकर एकल परिवार बनने लगे । खेती से विमुख होने और समाज मे समान वितरण और जमीन कानूनों से जमीनें बिकने और बटने लगीं ।

जैसे मैंने ऊपर कहा है कि शिक्षा , अशिक्षा और गरीबी के मुकाबले कम आशावान होना या सपनों में डूबे रहने से इतर चालाकी और आत्मविश्वास भी सिखाती है जिसे अतिविश्वास बन कर आत्मघात जैसी चोट करने में देर नही करती । और पहले से सम्पन्न और शिक्षित परिवार ,मेरे घर भी शिक्षा की अतिरिक्त ज्वाला जली और उस जमाने मे उच्च शिक्षित लैंड लार्ड ,मालगुजार मेरे दादा जी के 1927 में जन्मे तीसरे संतान, मेरे पिता 1975 तक ग्यारह संतानों के पिता बन बैठे ।

क्योंकि हमारे पिता शिक्षित थे इसलिए हम सभी संतान उनसे भी आगे शिक्षित हो गए । इतना बड़ा परिवार होने के कारण सबसे पहले हमारे संयुक्त परिवार का विघटन तय था फिर पिता के सम्पत्ति का । यह डर मुझे अपने परिवार को देखने के मेरे नए नजरिये से आया । चूंकि हमारे पिता शिक्षित थे पर वो लैंडलॉर्ड पिता से छः पुत्रों के बीच बंटवारे में मिले 40 एकड़ जमीन के मालिक थे इसलिए उन्होंने न नौकरी की न ही खेती कर पाए । ऊपर से उनके हिस्से की अधिकतर जमीनें सूखी और बंजर निकली । 1970 के बाद मेरे पड़े दुर्भिक्ष और अकाल में हमारे परिवार को बमुश्किल पेट भर खाना नसीब हो पाता । मेरा तो जन्म ही तब हुआ था । मेरे शिक्षित किशोर युवा भाई और बहनें मजदूरी करने भी नही जा पातीं । क्योंकि शिक्षा , आपको पेट भरने के साधनों की बढोत्तरी के साथ साथ इज्जत का काम और काम मे इज्जत या स्टेटस की चिंता में डाल देती है । रोजगार के कामों में छोटे और बड़े का फर्क करना सिखा देती है । मेरे भाई बहनों ने उस इज्जत की रोटी के इंतज़ार में कई दिन फांके में बिताए और हम जैसे छोटे भाई बहनों का पेट भरने कड़ा संघर्ष किया । बताते हैं यह समय लगभग दो साल रहा होगा ।
बड़े परिवार में पोषण , ऊसर भूमि पर खेती की निर्भरता और पर्याप्त काश्तकारी के बाद भी साल दर साल अवर्षा से पड़ते अकाल और परिवार द्वारा झेले झटकों की कहानियों ने मुझे झकझोर कर रख दिया ।
मैं कभी बाल पन में ही मां से सवाल करता कि आखिर पढ़े लिखे होने के बाद इतना संतान लाने की क्या जरूरत थी ? क्या इतनी भी समझदारी नही थी ? मैं चिढ़ कर सवाल करता ।
मां अपनी मातृभाषा में भोलेपन से मुझे कहतीं – ”पता नही गा, हमें इतनी समझदारी कैसे नही आई । गांव गांव में दीवारों पर छोटा परिवार -सुखी परिवार का नारा लिखा रहता । परिवार नियोजन के कैम्प लगते जिसमे पिता भी गांव प्रमुख के साथ साथ डिग्री धारी वैद्य होने के नाते कैम्पेन करते , लेकिन पता नही क्यों हमने खुद उस ओर कभी ध्यान नही दिया । “
पितृसत्तात्मक परिवार की मात्र गृहिणी होने के कारण उनके पास मेरे उस सवाल का शायद इससे बड़ा या सार्थक जवाब रहा भी नही होगा । और पिता से पूछ लेने की हिम्मत मुझ दसवें संतान में आ नही पाई ।
लेकिन मेरे इस सोच और मेरे मन मे दबे उस सवाल को कभी नही पूछ पाने की कुंठा ने मुझे अपने पिता से लगभग दूर सा कर दिया । यह भी कहा जा सकता कि बड़ा परिवार होने के कारण मेरे पिता सरीखे प्रौढ़ और जिम्मेदार मेरे बड़े भाइयों ने मेरा ज्यादा ख़याल रखा और राजनीति और समाज में व्यस्त हो गए पिता के सानिध्य की जरूरत ही मुझे ज्यादा नही पड़ी ।
मैं मां से अक्सर कहता – ‘क्या होता जो मैं या कुछ और भाई बहन आपके घर पैदा नही होते । कहीं और पैदा हो जाते लेकिन बाकी लोगों को वह मुसीबत तो नही झेलनी पड़ती । पुरखों की जमीन के तुकडे तुकडे तो नही होते ।’
मैंने शिक्षित और भारत का समझदार नागरिक बन कर दिखाने काठान लिया मैं मैं सीमित परिवार का हिमायती बन गया । लोगों को अपनी हालत और सोच बताकर इस ओर प्रेरित भी करने लगा । उसके पीछे मैं तुलनात्मक तर्क देता रहा हूँ । चिकित्सा जगत के विकास और महामारी से निपटने के आधुनिक खोजों का जिक्र करता रहा हूँ । अपने पुरखों की अज्ञानता और शिक्षित होते हुए भी विकासशील सोच की अशिक्षा पर गुस्सा करता रहा हूँ । 2003 में मेरा विवाह हुआ और मैंने एक मात्र संतान के जन्म को स्वीकारा ।

पोलियो चेचक खसरा हैजा प्लेग जैसे कैटेगराइज्ड महामारी भी अलग अलग इसी बीच आते रहे ,मौते भी हुईं , और उनका उन्मूलन होते रहे हैं पर इसी बीच जद्दोजहद से सरकारों ने लोगों को परिवार छोटा रखने के फायदे गिना गिना कर उस ओर प्रेरित किया । पर ठीक 100 साल बाद आए महामारी के इस भीषण दौर ने मुझे अपनी सोच को पुनः विचार कर 110 साल पीछे की महामारी के दिनों तक ले जाने पर मजबूर कर दिया । संतति नियोजन आज की जरूरत है अर्थ के विकास और विश्व मे देश की जीडीपी दिखाने के लिए ।

मैंने कहीं पढ़ा है कि – यह ठीक ही बात थी कि जितना छोटा परिवार होगा, जितना छोटा यूनिट होगा उतना संगठित भी होगा। उतना प्रत्येक व्यक्ति उत्तरदायी भी होगा। और निकटता होने की वजह से, पति पत्नी ,गिने चुने बच्चे हैं उनकी और ज्यादा चिंता की जा सकेगी। और यह कमाने में भी ज्यादा उपयोगी होगा। लेकिन किसी को ख्याल में नहीं आया कि जहां-जहां संयुक्त-परिवार टूटा , वहां अब परिवार नाम की संस्था भी भी टूट रहा है। यह मैं नही कह रहा । अमेरिका यूरोप और चीन में हुए अध्ययन बता रहे । चीन आज बुजर्गों का देश बन गया है ।
जहां-जहां ज्वाइंट फेमिली खत्म हुई, वहां यह सिंगल फैमिली भी टूट रही है। यह टूटेगी ही। इसका कारण यह है, यह वैसे ही टूटेगी..क्योंकि यह जो पूरा बड़ा मकान है हमारा, इसमें हमने सब कमरे गिरा दिए और एक कमरा बचा लिया, यह कमरा बच नहीं सकता, क्योंकि इस कमरे को बचाने के लिए वे सारे कमरे सहारा जो थे। और फिर जब एक दफा सब तय हो गया कि जितना छोटा परिवार होगा उतना प्रोग्रेसिव होगा, तो आखिर में पति-पत्नी भी इकट्ठे क्यों हों? तो ठीक यूनिटरी फेमिली हो जाएगी, कि एक व्यक्ति अपने को सम्हाल ले, और बात खत्म हो गई।
वह जो इतना बड़ा परिवार था, वह चीजों को सम्हालता था। असल में छोटे संबंध जो हैं बड़े संबंधों के बीच में ही फलित होते हैं। अगर मैं अपने काका के लड़के से भाईचारा नहीं निभा सकता, तो मैं अपने भाई से ज्यादा दिन नहीं निभा पाऊंगा। और अगर मैं अपने काका और अपने मामा और दूर के काका और दूर के मामा से भी भाईचारा निभा पाता हूं उनके लड़कों से, तो मेरे भाई से जो मेरा भाईचारा है वह गहरा रहेगा। जब हम परिधि को तोड़ते चले जाते हैं तो नीचे सरकते आते हैं और जाकर के खत्म हो जाते हैं। पर अगर महामारियों के डर से परिवार बढ़ाए लोगों को जो ये 100 साल समझाने में लगे रहे कि अब बच्चे ऐसे नही मरा करते ,नही मरा करेंगे । क्योंकि हमने चिकित्सा जगत में अप्रतिम विकास कर लिए । हम चांद और मंगल पर सवारी करने लगे । हम पिछड़े से उन्नत देश बन गए ।
अब किस मुंह से हम उन्हें मनाएंगे ..और वो कैसे मेरी जैसे सन्तति नियोजन के सोच को मानेंगे और में निजी रूप से कैसे किसी को परिवार बढाने से रोक पाऊंगा यह मुझे भी सन्देह है ..क्योंकि कथित विकसित 21वीं की सदी की इस पहली महामारी ने माता पिता का साया, भाई बहन का साथ , परिवार का वारिस ,बुढापे की लाठी सब छीन लिया ।

आज बस इतना ही…!

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