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मातम के बीच ‘हास्य दिवस’

होमेंद्र देशमु

आज विश्व हास्य दिवस यानि हंसने की बरसी है । कोई ऐसा एक दिन , जब हम उसके लिए पुनः संकल्पित और पूर्ण समर्पित होते हैं । इन दिवसों के बहाने हम उस काम को बहुत लोगों को प्रेरित कर सकें , गौरव कर सकें , उससे जुड़े लोगों को याद कर सकें या अगर कोई बुरी घटना का दिवस हो तो ऐसा फिर कभी न हो उसका संकल्प ले सकें ।

यूं तो हंसना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है पर हंसने के लिए कोई मन मे खुशी का भाव या कोई अनुकूल प्रतिकूल विषय भी होनी चाहिए । वैसे तो ऐसे हँसोड़ों को कोई बहाना नही चाहिए जो हंस हंस कर अपनी तबियत सजाते हैं पर अगर इस बिना बात पार्क ,मैदान ,क्लब और समंदर के किनारे हंसते इन लोगों को देख लोग इनका पागलपन कह देते हैं । बिना बात क्या..! दूसरों पर हंस कर भी तो हम अपना स्वास्थ्य अच्छा रख सकते हैं । कुछ मंचीय हंसोड़े कहते हैं अपने आप पर हंसना और भी ज्यादा लाभकारी होता है , क्योंकि शायद यह ज्यादा दुस्कर कार्य होता है । पर इस महामारी के दौर में यह सबसे दुस्कर काम ज्यादा आसान हो गया है ।

जब हर तरफ मौत की ललकार ,उखड़ती सांसों की चीखें ,धधकते चिताओं की चटचटाहट, उजड़ती मांगों से उड़ते सिंदूर के ग़ुबार, छिनते पिता का साया और उड़ते मां के आंचल से चौंधियाता तेज धूप , बुजुर्ग मां बाप के टूटते सहारे की लाठियां हों और उस पर लाचार सत्ता का झूठ फरेब और बदइंतज़ामी हो तब आप आपके पास रो सकने लायक आंसू भी तो नही बचे हैं । ऐसे में अब हमें हंसना तो आना चाहिए ।
और ख़ुद पर जमकर हंसिये ..
क्योंकि इस मजबूरी में किसी दूसरे के नाकारेपन का दोष देने और न ही उन पर हंसने से किसी व्यवस्था में परिवर्तन आएगा न ही किसी को शर्म आएगी ।हंसने का फायदा ख़ुद को होता है । न कि उसको , जिस पर हंसा जाए ।
तो अपनी मजबूरी ,बेबसी पर रोने से कुछ नही होगा । कम से कम इसलिए तो हंसिये , भले खुद पर ही हंसिये..!

मानता हूं मैं गलत हूं । आज हंसने की बात कहना बेमानी और अपराध है । पर जब दिल-दिमाग, घर -परिवार, गली-शहर और विश्व-जगत मे खौफ़ और रोज मातम हो रहा हो तब फिर कल कौन सा एक दिन “मातम-दिवस” मनाओगे ।
इसलिए हंसो…!
हंसना और भी आसान हो जाएगा , जब दूसरों में अपनी खुशी का कारण ढूंढना बन्द कर दोगे । जीवन मे आकांक्षा की सफलता का राज है आकांक्षा छोड़ दो । जिसको भी पाने की दौड़ करेंगे वही आपसे दूर हो जाएगा । शांत होने की आकांक्षा करेंगे तो शांति नही मिलेगी । तथ्य की स्वीकृति में तथ्य से मुक्ति है । स्वीकार कर लो कि तुम मजबूर हो , पर तुम्हे किसी से शिकायत नही । जिसको जीसस ने कन्फेशन कहा है , वही स्वीकार है । फिर कोई बोझ नही रहेगा न दूसरे से उम्मीदों का न स्वयं के दूसरों पर निर्भर और असहाय होने का । असमर्थता का भाव भीतर के घाव भरने नही देगा । तब तक हंस नही पाओगे । वर्तमान को स्वीकार कर लो..
स्वयं के आनंद पूर्वक , हृदय से हंसने के लिए भिखारी नही सम्राट होना पड़ेगा । तुम सम्राट ही हो…!

फिर बनावटी हंसी की तुम्हे जरूरत नही पड़ेगी । और न ही हंसने के लिए किसी ‘हास्य दिवस’ की..

मुखौटों के इस दौर में चेहरे पर एक ‘मास्क’ हंसी का और सही…

आज बस इतना ही…!

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