Madhy Pradesh

POLITICS : चुनाव लडने और जीतने के बाद सियासत के बदलते रंग

 

– बिहार में कांग्रेस तो यूपी में बसपा संकट में

 

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]जोरावर सिंह[/mkd_highlight]

 

 

 

 देश में कभी चुनाव लडने के दौरान ही सियासत में गर्माहट रहती थी पर हर रोज ही सियासत अपना रंग बदलती हुई नजर आ रही है। इसमें सबसे बडा पफर्क आया है वह यह है कि चुनाव लडने से पूर्व की सियासत और चुनाव जीतने के बाद की सियासत अब अलग अलग रंग में देखी जा रही है। विगत कुछ वर्षो से देश की सत्ता पर सबसे अधिक समय तक काबिज रहने वाली कांग्रेस पार्टी और बहुजनों की सियासत की हामी भरने वाली बहुजन समाज पार्टी के नेता और चुने हुए विधायक पाला बदल रहे है।
गौरतलब है कि ऐसा नहीं है कि पहले कभी सियासी दलों का बिखराव नहीं हुआ है। बिखराव तो होता ही रहा है और चलता रहेगा। पहले भी कई सियासी दलों के नेता अपनी पार्टी बदलते रहे है, लेकिन ज्यादातर चुनावों के दौरान एक दल से दूसरे दल में आना जाना ज्यादा रहा है पर अब वर्तमान राजनीति पर नजर डाली जाए तो चुनाव लडने और चुनाव जीतने के बाद की सियासत अलग अलग नजर आ रही है। इस तरह की सियासत ने मतदाताओं को मुश्किल में डाल दिया है। इस सियासत ने कई सवाल खडे किये हैए कि कही विचारधाराएं कमजोर हो रही है या फिर सियासत में अवसर वाद हावी हो रहा है।

भारत में बहुदलीय प्रणाली है। इससे देश में राजनीतिक दलों की संख्या भी अधिक है। इन सियासी दलों की अपनी अपनी विचार धारा है पर सियासी दलों में पाला बदलने की बात की जाए तो कांग्रेस पार्टी के बिखराव की लंबी लिस्ट है। इस पार्टी नेता तो दूसरी पार्टियों में जाते ही रहे हैं, इसमें महाराष्ट में शरद पंवार और बंगाल में ममता बनर्जी की पार्टिया भी बिखराव के उदाहरण है। इसके साथ ही जनता दल भी बिखराव को झेलता रहा है। देश में जनतादल से पूर्व प्रधान मंत्री एचडी देवगौडा, नीतिश कुमार, लालू यादव की की वर्तमान पार्टियां इसका उदाहरण मानी जाती है। क्या उसी राह पर कांग्रेस और बसपा भी जाने की कतार में है।
-अब बिहार में हलचल
कांग्रेस पार्टी के दिन अभी कुछ अच्छे नहीं चल रहे है। कांग्रेस में टूटन की चंद वर्षो की ही बात की जाए तो गोवा में, कर्नाटक में, मध्यप्रदेश में इसका खामियाजा पार्टी को उठाना पडा है। यह कांग्रेस और कांग्रेस कार्यकर्ताओं, मतदाताओं के सामने है। राजस्थान में पार्टी में मुखालफत का खेल कई दिनों तक चलता रहा। गनीमत रही कि सामजस्य बैठ गया। अब खबरें बिहार से आ रही है कि यहां पर कांग्रेस के 11 विधायक एनडीए का दामन थाम सकते हैं। सोशल मीडिया पर यह खबर चर्चा का विषय बनी हुई है। बिहार में अपनी ही पार्टी की मुखालफत कितनी जोर पकडेगी और इसका परिणाम क्या होगा यह तो आगामी वक्त ही बताएगा।
-क्षेत्रीय दलों की रही है यह समस्या
देश में प्रमुख सियासी दलों के अलावा क्षेत्रीय दल भी मतदाताओं को लुभाते रहे हैं, वह राज्यों में कभी ताकत के साथ उभर कर सत्ता तक पहुंचते है तो कभी सिमटते हैं पर बीते कुछ वर्षो से क्षेत्रीय दल पाला बदल की समस्या से अधिक जूझ रहे है। बहुजन समाज पार्टी इस समस्या से लंबे समय से जूझ रही है। बसपा से चुनाव जीतने के बाद विधायक दूसरे दलों का दामन थामते रहे है। राजस्थान में विधान सभा चुनावों में जीते हुए विधायक कांग्रेस का दामन थाम चुके हैं। जेडीयू के अरुणाचल के छह विधायक भी भाजपा का दामन थाम चुके है। इसके साथ स्थानीय दलों के नेता दूसरे दलों का दामन थाम लेते है।
-बसपा की भी बढी मुश्किलें
उत्तर प्रदेश में विधान चुनावों की तैयारियों में पार्टियां जुट गई है, ऐसे में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की मुश्किलें एक बार फिर बढती हुई नजर आ रही है। सियासी गलियारों से जो खबरें आ रही है। उसमें बहुजन समाज पार्टी के बडे नेता पाला बदल सकते है, वैसे ही उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी पिछले चुनावों में ज्यादा दम नहीं दिखा पाई है। अब यदि पार्टी के कददावर नेता पार्टी का दामन इस समय छोडते हैं तो और मुश्किलें बढ सकती है।
-यह तो छले ही जाते है
क्षेत्रीय दल हों या फिर कांग्रेस पार्टी कार्यकर्ता चुनाव के दौरान अन्य दलों से लेकर स्थानीय स्तर पर जी तोड मेहनत कर अपनी अपनी पार्टियों को चुनाव जिताते है। इसमें कई बार कार्यकर्ताओं को हिंसा का भी शिकार होना पडता है। जब चुनाव जीतने के बाद उनके पसंदीदा दल के नेता और चुने हुए विधायक दूसरे दल का दामन थाम लेते है, तो वह कर्मठ कार्यकर्ता अपने आपको छला हुआ महसूस करते है। सियासत में चुनाव जीतने के बाद पाला बदल की बढती परंपरा स्वस्थ्य लोकतंत्र में इस समय सबसे अधिक चर्चा का विषय बनी हुई है और आमलोगों की नजरें इस समय बिहार और उत्तर प्रदेश के घटनाक्रमों पर बनी हुई है।

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