मक्का का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2 हजार क्विंटल और बाजार में आटा बिक रहा है 400 रुपये किलो
[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]पंकज पुरोहित सुबीर[/mkd_highlight]
अभी जाकर अमेज़न पर सर्च कीजिए मक्के के आटे के बारे में। मैंने सर्च किया तो यह मिला- Magic Makka Atta Corn Meal Flour,no Preservative Pack, Yellow Color (1000 g) M.R.P.: ₹ 420.00 Price: ₹ 399.00 (₹ 399.00 / kg) आपको पता है मक्का का न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या है ? लगभग दो हज़ार रुपये प्रति क्विंटल और उसी मक्के का आटा बिक रहा है चार सौ रुपये प्रति किलो की दर से मतलब चालीस हज़ार रुपये प्रति क्विंटल की दर से । और यह भी समझ लीजिए कि यह न्यूनतम समर्थन मूल्य भी किसान को नहीं मिलता है, अक्सर तो दस से पन्द्रह रुपये प्रति किलो ही मिलता है उसे । यदि बीस रुपये प्रति किलो को ही पकड़ कर चलें तो उस बीस का बीस गुना कमा रही है वह कंपनी जो उस मक्का को पीस कर केवल आटा बनाने का काम कर रही है। वह किसान जिसने हल चलाया, बीज बोया, पानी फेरा, खाद दिया, दिन भर धूप में खड़े रहकर दानों को पंछियों से बचाया, फिर कटाई की, भुट्टों से मक्का को निकाला, मंडी ले जाकर बेचा; उस किसान को इस श्रम का मूल्य तक भी नहीं मिल पाया और उस दाने को एक चक्की में पीस कर बाज़ार में लाने वाली कंपनी ने बीस गुना कमाई एक झटके में कर ली।
कई लोग कहते हैं कि किसानों को आयकर नहीं देना पड़ता है, उनको भी आयकर के दायरे में लाना चाहिए। मैं उन सब से कहना चाहता हूँ कि किसान हम सब से कहीं ज़्यादा अप्रत्यक्ष आयकर भर रहा है। अप्रत्यक्ष आयकर इस रूप में कि देश में सबको खाने के लिए अनाज मिल सके इसलिए ज़रूरी अनाजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य उतना नहीं बढ़ाया जाता, जिस हिसाब से महँगाई की दर बढ़ रही है। एक बार कहा गया था कि यदि देश में सबको भर पेट भोजन देना है तो किसानों को सेक्रीफाइज़ करना होगा। और किसान आज तक सेक्रीफाइज़ करता आ रहा है। आज गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य लगभग दो हज़ार रुपये प्रति क्विंटल है जबकि महँगाई की दर के हिसाब से इसे आज कम से कम बीस हज़ार रुपये प्रति क्विंटल होना चाहिए था, क्योंकि इस बीच डीज़ल, खाद, बीज, बिजली सबके दामों में इसी हिसाब से बढ़ोतरी हुई है। इस हिसाब से देखा जाए तो किसान इस देश में सबसे ज़्यादा आयकर भरता है। वह तो आज भी लगभग अठारह हज़ार रुपये प्रति क्विंटल की दर से आयकर देश के लिए भर रहा है। और उसके पास तो कोई दूसरा उपाय भी नहीं छोड़ा गया है कि वह इससे बच सके।
मैं पहले भी कई बार कह चुका हूँ और फिर से कह रहा हूँ कि इस देश के किसानों को खेती करनी एकदम बंद कर देनी चाहिए। क्यों परेशान होते हैं इन कृतघ्न लोगों के लिए। क्यों कर रहे हैं ऐसा काम जिससे उनके घर में दोनो वक्त का चूल्हा भी नहीं जल पाता है। छोड़ दें सारी ज़मीनों को पड़त। जब कारपोरेट खेती प्रारंभ हो जाएगी तब सबको पता चलेगा कि किसान का मतलब क्या होता था। क्योंकि कारपोरेट तो फिर बीस हज़ार रुपये क्विंटल की दर से ही बेचेगा गेहूँ को।
पर ये सब लिखने से क्या मतलब है। असल में इस देश की जनता एक नशे की आदी हो गई है। नशा उन सूचनाओं का जिनका कोई मतलब नहीं है। किसान के आंदोलन के सामने ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है अंबानी के घर पोता पैदा होना, या फिर अनुष्का तथा विराट के घर बच्चा पैदा होने की प्रतीक्षा। यह सब नशे हैं, जो हमें लगातार मदहोश रखने के लिए दिए जा रहे हैं। लेते रहिए इस नशे को और सोचते रहिए कि यही दुनिया है।
आधा देश अडानी का और आधा अंबानी का है
जिसे उठा कर चल देना है अपना बस वो झोला है