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FARMERS PROTEST : न्यूनतम समर्थन मूल्य MSP कृषि कानून में शामिल क्यों नहीं ?
[mkd_highlight background_color=”” color=””]पंकज पुरोहित सुबीर[/mkd_highlight]
न्यूनतम समर्थन मूल्य MSP (Minimum Support Price) को कानून क्यों नहीं बनाया जा सकता है ? क्योंकि उससे किसानों के अधिकार सुरक्षित हो जाएँगे और अंबानी तथा अडानी के अधिकार असुरक्षित हो जाएँगे। वे लोग जो इस मुद्दे पर सरकार के समर्थन में खड़े हैं, उनको समझना होगा कि आज इस एक सौ पैंतीस करोड़ की आबादी वाले देश में सबका पेट इसीलिए भर पा रहा है क्योंकि अनाज अभी भी किसान के हाथ में है, कार्पोरेट के हाथ में नहीं गया है। आपको समझना होगा कि जिस प्रकार अनाज के सबसे प्राथमिक बाय प्रोडक्ट (कॉर्न फ्लैक्स, आलू चिप्स, गेहूँ का आटा, पॉप कॉर्न ) कार्पोरेट के हाथ में जाकर आसमान छूती कीमतों पर पहुँच गए हैं, उसी प्रकार कल को जब गेहूँ, चावल, दाल भी कार्पोरेट के सीधे हाथ में होंगे तब ये भी आपकी पहुँच से बाहर हो जाएँगे। अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बन गया तो कार्पोरेट सेक्टर मूल्यों के साथ अपने हिसाब से खेल नहीं कर पाएगा।
किसानों को बेईमान कहने वाले लोग एक बार यह देख लें कि 1966 में गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 54 रुपये प्रति क्विंटल था जो सरकार द्वारा तय किया था। 1966-67 में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की शुरूआत सरकार द्वारा की गई थी। अभी 2020 में गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य लगभग 1975 रुपये प्रति क्विंटल है। मतलब यह कि 1966 की तुलना में लगभग 36 गुना बढ़ा है। अब बात करते हैं स्वर्ण की जिससे बाज़ार और मुद्रा तय होती है। सोना 1966 में 84 रुपये प्रति दस ग्राम था 24 कैरेट का मूल्य और आज 2020 में लगभग पचास हज़ार रुपये है प्रति दस ग्राम 24 कैरेट का मूल्य। मतलब लगभग 600 गुना बढ़ चुका है। अब ज़रा 1966 में डीज़ल का दाम पता कर लीजिए और आज का पता कर लीजिए। 1966 में आपके पिताजी को जिस पद पर जितनी सैलेरी मिलती थी और आज उसी पद पर बैठे व्यक्ति को जितनी सैलेरी मिल रही है उसका पता कर लीजिए। इन सब सवालों का जवाब जब आप तलाशेंगे तो आपको समझ में आएगा कि किसान बेईमान नहीं है, बेईमान हम सब हैं, जो किसान का हिस्सा पिछले कई बरसों से हजम करते आ रहे हैं।
कार्पोरेट घरानों ने मिलकर भारत की पूरी कृषि व्यवस्था को अपने नियंत्रण में लेने का जो सपना तीन बिलों के माध्यम से देखा है, उस सपने की राह में सबसे बड़ी बाधा है न्यूनतम समर्थन मूल्य। अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बन गया तो कार्पोरेट के खुल कर खेलन के सारे अवसर समाप्त हो जाएँगे। इसीलिए कृषि मंत्री बार-बार यह तो कह रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य है और रहेगा, मगर वे उसको लेकर कानून बनाने की बात पर एकदम इंकार कर रहे हैं। असल में यह सरकार उस बिगड़ैल बच्चे की तरह हो गई है, जिसे माँ-बाप (जनता) ने पिछले सवा छह साल में हर अच्छे-बुरे काम का समर्थन कर-कर के इतना बिगाड़ दिया है कि अब यह बच्चा “एक इंच भी पीछे नहीं सरकेंगे” की ज़िद पर अड़ गया है। ‘Of the People, for the People and by the People’ अब बदल कर हो गया है ‘Of the Corporate, for the Corporate and by the Corporate’। क्योंकि इस बच्चे को जनता ने ही अतिरिक्त दुलार दे देकर बिगाड़ा है, इसलिए इसे भुगतना भी जनता को ही है। हम लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं, हम किसी न किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति के अंदर या बाहर से समर्थक होंगे, यह सामान्य सी बात है, किन्तु “अति सर्वत्र वर्ज्यते”। जब तक हम समर्थक रहेंगे, तभी तक हमारा लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा, जैसी ही हम आराधक हो जाएँगे वैसे ही लोकतंत्र ख़तरे में आ जाएगा। एक बार इस अंध आराधना का परिणाम हम आपातकाल के रूप में देख चुके हैं कि हमने अपने नेता को देवता घोषित कर उसे तानाशाह बना दिया था।
किसानों को बेईमान कहने वालों ने शायद किसान की मेहनत को आँखों से नहीं देखा है, कभी पूस की रात में खेतों में जाकर पानी फेरते हुए किसान को देखिए, फिर समझ में आएगा कि कानून की जरूरत रामप्रसाद को है या अंबानी को। चाणक्य ने कहा था “पिशाच हुए बिना अपार संपत्ति नहीं अर्जित की जा सकती” हमारे देश का किसान पिशाच नहीं है इसीलिए हमारी थालियों में रोटियाँ हैं। किन्तु हमारे देश का (शायद सारी दुनिया का) कार्पोरेट पिशाच से भी आगे का कुछ हो गया है, उसकी भूख शांत ही नहीं हो पा रही है।वह सब कुछ अपने कब्ज़े में कर लेना चाहता है। नहीं तो क्या कारण है कि किसानों के आंदोलन के विरोध में समाचार पत्रों में पूरे-पूरे पृष्ठ के विज्ञापन अडानी ग्रुप द्वारा दिए जा रहे हैं। शायद इसी को कहते हैं “चोर की दाढ़ी में तिनका”।
आप सब से अनुरोध है कि यह लड़ाई किसानों और कार्पोरेट के बीच की है, इसमें वही स्टैंड लीजिए जो “सर्वमंगल” का स्टैंड हो। व्हाट्सएप से प्राप्त हो रहे ज्ञान को फॉरवर्ड मत कीजिए, क्योंकि जो कॉर्पोरेट आज की तारीख़ में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर कब्ज़ा किए बैठा है क्या सोशल मीडिया उसके नियंत्रण में नहीं होगा ? होगा क्या है। बस अपने दिमाग़ को खुला रहिए और सूचनाओं की पड़ताल करते रहिए।