नसबंदी के 4 लाख ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर को भूला स्वास्थ्य विभाग
[mkd_highlight background_color=”” color=”Red”]कीर्ति राणा[/mkd_highlight]
मध्यप्रदेश । करीब 39 साल की शासकीय सेवा में लेप्रोस्कोपी (नसबंदी) के 4 लाख ऑपरेशन कर फेमिली प्लानिंग में मप्र सरकार, विश्व में भारत का गौरव बढ़ाने वाले शल्य क्रिया विशेषज्ञ पीसी सेठी हॉस्पिटल से डॉ ललित मोहन पंत बिना हो हल्ले के सहज रूप से रिटायर हो गए।डॉ पंत के काम को अशासकीय स्तर पर तो खूब मान-सम्मान मिला, लिम्का बुक में उपलब्धियों का जिक्र भी हुआ लेकिन स्वास्थ्य विभाग उन्हें वो सम्मान नहीं दे सका जिसके वे हकदार रहे।
डॉ पंत के पास तो हर दिन, सप्ताह, महीने, साल का रिकार्ड है किस दिन कितने नसबंदी ऑपरेशन किए, लेकिन हेल्थ डिपार्टमेंट की नजर में उनका यह डेडिकेशन सामान्य ही रहा।शासकीय सेवा से जुड़े लोग या तो भ्रष्टाचार या अपने काम से ही लोगों की नजर में आते हैं, डॉ पंत ने अपने काम से नाम कमाया।लिम्का बुक में तो 2002 में ही नाम आ गया था लेकिन उसके बाद भी उनका काम जारी रहा जो यह भी सिद्ध करता है कि वे उपलब्धि के लक्ष्य को भूल कर काम करते रहे।डॉ पंत बताते हैं एक नसबंदी का मतलब होता है उस परिवार में अगले साढे़ तीन जन्म को रोकना, 4 लाख नसबंदी का मतलब है साढ़े 13 लाख की आबादी को रोकना। इतनी आबादी यानी विश्व का कम आबादी वाला कोई एक देश।
पीसी सेठी अस्पताल में सेवा देते रहे डॉ पंत बताते हैं जब मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, हम कुछ दोस्तों (गांधीवादी सुधीर जोशी, अशोक मेवाड़ा, केंटीन वाले प्रेमचंद जोशी, अजय गुलाटी, शिवाजीराव कनाटे, अनुराधा आदि) ने ‘अंतर बोध’ नाम से सेवा संस्था बनाई थी, उद्देश्य यही था कि पढ़ाई पूरी कर समाज के व्यापक हित में कुछ अच्छा करेंगे। मैं सर्जन हुआ लेकिन अस्पतालों की आंतरिक राजनीति आड़े आती रही।तब मुंबई से डॉ पीवी मेहता, गुजरात के डॉ सेठी शिविरों में नसबंदी ऑपरेशन करने आते थे, उन्हें सहयोग के लिए ड्यूटी लगती रहती थी।उस जमाने में फेमिली प्लानिंग अभियान से ही स्वास्थ्य विभाग की पहचान थी, मुझे लगा सेवा ही करना है तो यह फील्ड भी बुरा नहीं है, नसबंदी की दिशा में काम करने के लिए मैंने ग्रामीण क्षेत्रों को चुना। पहले लक्ष्य रखा कि 5 हजार ऑपरेशन तो करना ही है, यह लक्ष्य कब 10 हजार से होते एक लाख फिर 4 लाख हो गया पता ही नहीं चला।यह ड्यूटी न होकर जीवन को आनंद देने की राह बन गया था।खरगोन, औंकारेश्वर आदि जहां भी पदस्थ रहा तो अस्पताल में ड्यूटी के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में लेप्रोस्कोपी शिविर आयोजित करता रहा।वह समय भी आया जब मप्र शासन ने यह आदेश निकाला कि मप्र में कहीं भी नसबंदी शिविर के लिए डॉ पंत अधिकृत किए जाते हैं।हर माह कम से कम 6 हजार किमी का सफर तो हो ही जाता था। एक साल में 72 हजार किमी के सफर में हर दिन गांव और शिविर की तारीख महीनों पहले से निर्धारित रहती थी।शुरुआत में लोगों को दूरबीन पद्धति से ऑपरेशन पर भरोसा नहीं था, हाथ में गंगाजल लेकर कसमें भी खाई लोगों का भरोसा जीतने के लिए।विभागीय राजनीति, असहयोग, संसाधनों का अभाव, स्टॉफ का संकट जैसी तमाम चुनौतियों के बाद अब जब सेवा से मुक्त हो चुका हूं तो इस बात का संतोष है कि 39 साल, 6 महीने और 18 दिन के कार्यकाल में किए गए 4 लाख ऑपरेशन में कभी कोई कलंक नहीं लगा, यह लगता है कि एक जन्म में मैंने कई जन्मों का काम कर लिया।
मुस्लिम महिलाएं कहती थीं तकरीर करने वाले हमारे बच्चों का पेट पालने नहीं आते
डॉ पंत कहते हैं मुस्लिम समाज में भी जाग्रति है।इस सोच को बदलना होगा कि इस समाज का बच्चे पैदा करने में ही विश्वास है।बुरहानपुर में रेणु (डॉ पंत की पत्नी) कलेक्टर थीं, वहां मुस्लिम आबादी अधिक है।वो मस्जिदों में, प्रगतिशील मुस्लिमों के बीच जातीं और फेमिली प्लानिंग के फायदे समझाती थीं।नतीजा यह हुआ कि इस समाज की महिलाओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया। इन सभी का कहना रहता था तकरीर करने वाले तो हमारे बच्चों का पेट भरने आएंगे नहीं। टोंक (देवास) में जिस तारीख को शिविर था उस दिन ईद थी। शिविर में मुस्लिम समाज की महिलाए और पुरुष भी नसबंदी कराने आए जब उनसे पूछा आज तो ईद है। उनका कहना था ईद तो सुबह हो गई, अगला शिविर कब लगेगा पता नहीं।