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MP BY ELECTION : किसकी रणनीति होगी सफल,बीजेपी या कांग्रेस ?

 

— सोचो गर ऐसा हो तो क्या हो…?

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]शैलेश तिवारी[/mkd_highlight]

 

 

एक फिल्मी गाने की लाइन से ही आज की बात शुरू की जाए…सोचो गर ऐसा हो तो क्या हो…? राजनीति भी क्या गज़ब की चीज है… जिसमें जो कहा जाता है वो किया नहीं जाता… और जो किया जाना हो उस को कहा नहीं जाता। गुजिस्तां वक्त में यह नीति कूटनीति के नाम से विख्यात थी लेकिन उस दौर में लोकतंत्र की जगह राजतंत्र हुआ करता था। आजादी के बाद से देश में जब लोकतंत्र का परचम लहराया तो हमारे हुक्मरानों ने कुटिलता को ही अपनी नीति बना लिया। भोली भाली जनता को बहलाने और फुसलाने के लिए नए नए नारे …नाना प्रकार के शब्द जाल रचे जाने लगे।
बीती सदी तक बहुत कुछ फिर भी ठीक रहा लेकिन इक्कीसवीं सदी ने हर परिभाषा को अपने अनुरूप ही गढ़ लिया। बात करते हैं मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास में संपन्न होने जा रहे सबसे बड़े उपचुनाव की..। कमलनाथ को धता बताकर कमल की डंडी पकड़ने वाले सिंधिया इन दिनों भाजपा के डिजिटल रथों से नदारद हैं तो कांग्रेस के प्रमुख रणनीतिकार दिग्विजय सिंह का चेहरा भी आम सभाओं में नजर नहीं आ रहा है। दोनों पार्टियों की अपनी अपनी रणनीति है। भाजपा में प्रवेश करने के बाद भी पार्टी लीडर और कार्यकर्ता सिंधिया को भाजपाई बनने मे वक्त लगने की बात कह रहे हैं तो मिस्टर बँटाढार की छवि वाले दिग्गी राजा के नेपथ्य में बने रहने में कांग्रेस को अपनी भलाई नजर आ रही है।
इन सब के बीच भी उप चुनावी प्रचार अपने चरम की तरफ बढ़ रहा है तब इस बात पर गौर कर लेना मुनासिब होगा कि 2018 के मुख्य चुनाव में ग्वालियर चम्बल की सोलह सीटों से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले भाजपाई नेता इस उप चुनाव के बेला में कितना कसमसा रहे होंगे। वैसे तो 28 में से 25 सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में आए नेताओं को ही अपना उम्मीदवार बनाया है। कहना न होगा कि यह सब राजनैतिक सौदेबाजी के चलते संभव हुआ है।
याद करिये शिवराज मंत्रिमंडल के विस्तार के उन लम्हों को जब कई दिनों की रस्साकशी के बाद मंत्रिमंडल में सिंधिया समर्थकों को ज्यादा जगह मिल पाई थी। बताया तो यह भी जाता है कि मंत्रिमंडल में 41 प्रतिशत मंत्री कांग्रेस से हाल ही में आए हुए नेता शामिल किये गए हैं। उसी दौर में यह अटकलें भी लगाई गई थी कि शिवराज अपने पसंद के लोगों को चाहकर भी अपने मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करा पाए थे। बस इसी सिरे को थामकर भाजपा के अंदरुनी खानों पर नजर डालते हैं। उन सभी सीटों पर भाजपा के नेता कांग्रेसी से भाजपाई बने नेताओं को कितना पचा पाएंगे। दूसरा सत्ता नेतृत्व भी सिंधिया की महाराजशाही को मजबूरी में झेलते हुए कहीं मजबूती से दूर कर देने की चाल तो नहीं चल रहा है। सिंधिया के वर्तमान दबदबे को कमजोर करने के लिए उनके विरोधियों के पास यह स्वर्णिम अवसर है।

भाजपा को स्पष्ट बहुमत के लिए मात्र नौ सीटें चाहिए, जो सिंधिया समर्थकों की जीत के बिना भी संभव है। कहा जाता है राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं। अगर ये संभव हो जाता है तो सिंधिया जी खुद और उनके समर्थक न घर के रहेंगे न घाट के…। वर्तमान सिंधिया समर्थकों के चुनाव हार जाने से भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को मंत्रिमंडल में स्थान पाना आसान भी हो जाएगा। भाजपा आसानी से यह कह भी सकेगी कि हमने तो अपना करार पूरा किया लेकिन आपका अपने ही क्षेत्र में असर नहीं रहा तो हम क्या करें? हमने तो आपके प्रचार प्रसार में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी।…. सोचो गर ऐसा हो तो क्या हो….?

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